प्रेम जगत का सार स्वरुप है । जिसने ये समझा वह कृष्ण हो गया और जो इसमें समाहित हुई वह श्री राधा हो गईं । गोपियों का प्रेम भी कितना निर्मल, निश्छल और पवित्रता से भरा रहा होगा कि जिसके वशीभूत होकर परात्पर परब्रह्म श्री कृष्ण आँसू बहाते हैं। कैसा दिव्य भाव रहा होगा कि वृन्दावन का माधुर्यभाव से भरा कान्हा ऐश्वार्याधिपति द्वारिकाधीश होने के बाद भी अपने वृन्दावन के प्रेम को भूल नहीं पाया। सच माने तो प्रेम एक ऐसा महीन धागा है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। जब ये दो लोगों के हृदयों को बाँधता है तो पता भी नहीं चलता लेकिन जब भी इस धागे की पकड़ जरा भी कमज़ोर होने लगती है तो ये युगल के लिए दर्द का कारण बन जाता है ।
प्रेम आज हुआ और कल भूल गये ऐसा नहीं होता ये तो
मृत्युपर्यंत साथ रहता है चाहे प्रेमी पास हो या नहीं । प्रेमी साथ हो तो हमारे
आँखों के सामने होता है लेकिन हमसे बिछड़ जाए तो वही प्रेम प्रकृति के कण-कण में
अभिराजित हो प्रतिक्षण अपने प्रेमी को पुकारता है । प्रेम एक असाध्य रोग है जिसका
कोई उपचार नहीं कबीर कहते हैं ‘विरह भुवंगम तन बसे मन्त्र न लागे कोई, प्रेम वियोगी ना
जीवे, जीवे तो बौरा होई।’ प्रेमी से
मिला विरह भी आनंद और उदासीनता से पूरित होता है। विरह का कोई उपचार नहीं होता कोई
औषधि या मंत्र काम नहीं करता।
प्रेम में विरह भी अपने प्रेमी का दिया उपहार है जो प्रेम
को और ज्यादा सशक्त और समृद्ध बना देता है । प्रेम में प्रेमी का कुछ नहीं होता सब
कुछ दूसरे के लिए ही हो जाता है और तो और मन भी उनका और मन का विरह भी उनका । अपनी
परछाई तक में वो ही दिखने लगता है ... वैसे देखा जाए तो प्रेम में विरह होता ही
नहीं है हाँ सांसारिक दृष्टि से देखने पर वह दूर लगता है लेकिन हृदय में सबसे करीब
वही होता और उसी का चिंतन प्रतिक्षण होता रहता है।
प्रेम का निस्वार्थ रूप प्रेम का सबसे परिष्कृत रूप है।
प्रेमी की निस्वार्थता एक ऐसा भाव है जिसके आगे ईश्वर भी स्वयं को बँधा हुआ पाते
हैं। एक प्रसंग याद आता है माँ यसोदा श्री कृष्ण को बाँधने का प्रयास करती हैं घर
में रखी एक रस्सी का टुकड़ा लाती हैं लेकिन वह रस्सी का
टुकड़ा छोटा होता है तब माँ कृष्ण की शिकायत करने आई गोपियों से कहती हैं तुम भी
अपने-अपने घर से रस्सी लाओ आज कान्हा को बाँध दूंगी फिर तुम आराम से अपने माखन को
सँभालकर रख सकोगी। गोपियाँ अपने-अपने घर से रस्सियों के टुकड़े ले आती हैं लेकिन
विस्मय तो तब होता है जब सभी रस्सियों के टुकड़े आपस में जोड़ देने के बाद भी छोटे
पड़ जाते हैं।
तब एक गोपी श्रीराधा के पास जाकर उनसे एक रस्सी का छोटा सा
टुकड़ा ले आती है जैसे ही श्री राधाजी की रस्सी का टुकड़ा उन रस्सियों के साथ जुड़ता
है तो श्री कृष्ण बंध जाते हैं। श्रीराधा जी द्वारा दिया गया रस्सी का टुकड़ा सिर्फ
एक रस्सी का टुकड़ा मात्र नहीं था बल्कि रस्सी के रूप में श्री कृष्ण के प्रति उनका
अगाध प्रेम था और सच्चे प्रेम के आगे तो किसी की चालाकी नहीं चलती इसके आगे तो अबद्ध परमात्मा भी मुस्कराकर बद्ध हो
जाता है।
पंकज कुमार,आर शर्मा ‘प्रखर’
लेखक एवं विचारक
कोटा, राज.
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