आज पाश्चात्य संस्कृति की ओर हमारे देश के युवा और विद्यार्थी आकर्षित हो रहे हैं । चाहे वह खानपान हो, संगीत हो, शिक्षा हो अथवा वेशभूषा हर ओर से युवाओं को भ्रमित करने वाली बयार चल रही है । क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इससे प्रभावित नज़र आते है । ये पाश्चात्य का ऐसा एक ऐसा षड्यंत्र है जो युवाओं के चारित्रिक दौर्बल्य और नैतिक पतन का मुख्य कारण है ।
आज युवा अपनी भारतीय संस्कृति
रूपी सीता की चरण वंदना न करते हुए पाश्चात्य संस्कृति रूपी शूपनखा का आलिंगन करने
को लालायित है जो निश्चित रूप से हमारी जीवनी शक्ति, पावन पवित्र बुद्धि का ह्रास
कर हमें मानसिक दिवालिया बना कर रख देगी ।
रामचरित्र मानस में
आता है की जब शूपनखा ने पंचवटी में श्री राम के रूप सौंदर्य को देखा तो वह राक्षसी
का रूप त्यागकर एक अति सुंदर स्त्री का रूप धारण करती है और श्री राम को आकर्षित
करने के लिए उन्हें अनेकानेक प्रकार से भरमाने का प्रयत्न करती है । लेकिन श्री
राम उसके किसी भी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते और उस राक्षसी को अपने नाक कान
कटवाने पड़ते हैं ।
इसी प्रकार आज
पाश्चात्य संस्कृति विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर हमारे युवाओं को अपने
षड़यंत्रों में फँसाने का प्रयत्न कर रही है । अत: युवाओं को चाहिए की वह सतर्क
रहें और इसके झांसे में नहीं आएं अन्यथा ये आपके नाक कान कटवा कर समाज में आपको हँसी
का पात्र बना कर रख देगी ।
सनातन संस्कृति
श्रेष्ठ समाज के निर्माण का मूलाधार है । हमारी ऋषि परंपरा में अत्रि,
वशिष्ठ,
विश्वामित्र,
वाल्मीकि,
परशुराम,
भारद्वाज
दधिची जैसे ब्रह्मर्षि और महर्षि हुए हैं । जिन्होंने हमारे समाजोत्थान के लिए
अपनी तप-साधना और अपने तप से संचित समस्त शक्तियों व ज्ञान से भूले भटके अप्रबंधित
जीवन जीने वाले लक्ष्यहीन मानवों को दिशा निर्देश देकर, एक श्रेष्ठ समाज के
निर्माण के लिए अपने जीवन को तपाया और आहूत किया है ।
जगतगुरु शंकराचार्य,
स्वामी
विवेकानन्द, दयानंद सरस्वती,
ईश्वर
चन्द्र विद्यासागर, ज्योतिबा
फूले, विनोबाभावे को कौन
भूल सकता है। भगत सिंह, राजगुरु,
सुखदेव,
चन्द्रशेखर
आज़ाद, सुभाष चन्द्र,
महात्मा
गांधी और सरदार पटेल का समर्पण किसे याद नहीं होगा । राणाप्रताप, शिवाजी
महाराज, गुरुनानक,
गुरु
गोविंद सिंह के रणकौशल को कौन नहीं जानता होगा ।
इस देश की महान
नारियों तपस्विनियों ने अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए समाज में पुरुषों के
समान ही अपना योगदान दिया है। गार्गी,
मदालसा,
भारती,
स्वयंप्रभा,
सीता,
दौपदी,
राधा,
अरुंधती,
अनुसूइया
के तप तेज से कौन अनभिज्ञ होगा।
अपनी मात्रभूमि की
रक्षा के लिए मर मिटने वाली झाँसी की रानी, झलकारी
बाई और हाड़ारानी को कौन नहीं जानता होगा । ऐसी संस्कृति के अनुयाई हम कहाँ
पाश्चात्य की झूठी चकाचौंध में अपनी आयुष्य का नाश कर रहे हैं ।
सनातन संस्कृति की
विशेषता रही है कि इसमें रचा बसा व्यक्ति स्वयं के लिए सहनशीलता,
सहृदयता
सादगी और अनुशासन के भाव से भरा होता है जबकि दूसरों के लिए प्रेम,
स्नेह,
दया,
क्षमा
और करुणा के भाव से भीगा रहता है । इस
संस्कृति का व्यक्ति केवल अपने पुत्र परिवार के लिए ही नहीं सोचता बल्कि समूचे
विश्व को अपना परिवार समझते हुए प्रत्येक प्राणी को अपना परिजन,
स्वजन
मानता है । ये वह संस्कृति है जो व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है अत: इस संस्कृति
से युवाओं को जोड़ना और इसका प्रचार-प्रसार करना आवश्यक है ।
पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’
लेखक एवं विचारक
कोटा ,राज.
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