31 Oct 2017

वसुधैव कुटुम्बकम’ का भाव रखने वाली एकमात्र संस्कृति ‘भारतीय संस्कृति


हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति समूचे विश्व की संस्कृतियों में सर्वश्रेष्ठ और समृद्ध संस्कृति है | भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यता का देश है। भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व शिष्टाचार, तहज़ीब, सभ्य संवाद, धार्मिक संस्कार, मान्यताएँ और मूल्य आदि हैं। अब जबकि हर एक की जीवन शैली आधुनिक हो रही है  भारतीय लोग आज भी अपनी परंपरा और मूल्यों को बनाए हुए हैं। विभिन्न संस्कृति और परंपरा के लोगों के बीच की घनिष्ठता ने एक अनोखा देशभारतबनाया है। हर भारतीय का ये कर्तव्य है कि वो अपनी भारतीय संस्कृति और उसके वैदिक ज्ञान का अंतरात्मा से अनुकरण करे जिससे की इस संस्कृति का और प्रचार प्रसार हो ये बढ़ती रहे तथा तेजस्वी रूप धारण करे। यह संस्कृति ज्ञानमय है और युतियुक्त कर्म करने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति है। ये वो संस्कृति है जो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की अनुकरणीय और लीलापुरुषोत्तम श्री कृष्ण की अनुसरणीय शिक्षाओं की साक्षी है | भारतीय संस्कृति का अर्थ है, सर्वांगीण विकास, सबका विकास। भारतीय संस्कृति की आत्मा छुआछूत को नहीं मानती और ना ही हिन्दू और मुसलमान के भेद को जानती है | यह प्रेमपूर्वक और विश्वास पूर्वक सबका आलिंगन करके, ज्ञानमय और भक्तिमय कर्म का अखण्ड आधार लेकर माँगल्य-सागर की ओर तथा सच्चे मोक्षसिन्धु की ओर ले जाने वाली संस्कृति है।
भगवान् ने इस इच्छा से हम मनुष्यों का निर्माण किया है कि हम सब उसकी इस सृष्टि को अधिक सुन्दर, अधिक सुखी, अधिक समृद्ध और अधिक समुचित बनाने में उसका हाथ बंटायें। अपनी बुद्धि, क्षमता और विशेषता से अन्य पिछड़े हुये जीवों की सुविधा का सृजन करें और परस्पर इस तरह का सद्व्यवहार बरतें जिससे इस संसार में सर्वत्र स्वर्गीय वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे। ये वो संस्कृति है जो अधिकार से ज्यादा कर्तव्य पालन पर बल देती है भारत देश और यहाँ की संस्कृति अनेक धर्मो को और उनकी शिक्षाओं को न केवल अपने में संजोय हुए है अपितु इस देश ने या संस्कृति ने किसी भी धर्म को श्रेष्ठ या निम्न नहीं आंका भारतीय संस्कृति यथार्थ के बहुआयामी पक्ष को स्वीकार करती है तथा दृष्टिकोणों, व्यवहारों, प्रथाओं एवं संस्थाओं की विविधता का स्वागत करती है। यह एकरूपता के विस्तार के लिए विविधता के दमन की कोशिश नहीं करती। भारतीय संस्कृति का आदर्श-वाक्य अनेकता में एकता एवं एकता में अनेकता दोनों है।
भारत एवं भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम का भाव रखने वाली संस्कृति है|  भारतीय संस्कृति ने न केवल भारत को अपितु समूची धरा को सदैव एक कुटुंब (परिवार) माना है जबकि अन्य देशों ने भारत को केवल बाज़ार मान है| लेकिन ये संस्कृति और इस संस्कृति में रचे बसे लोग इतने उदार है की हमने सदैव अन्य देशों की संस्कृतियों का दोनों बाहें फैलाकर स्वागत किया है |  भारतीय संस्कृति के उपासकों की महान यात्रा अनादि काल से आरम्भ हुई है। इस संस्कृति में व्यास,वाल्मीकि,बुद्ध,महावीर, शंकराचार्य,रामानुज, ज्ञानेश्वरतुकाराम, नानक,कबीर एवं महर्षि अरविन्द जैसी महान विभूतियां हुई जिन्होंने इस संस्कृति को आगे बढ़ाया और समृद्ध बनाया।
आइए, हम सब अपने आपसी मतभेदों को दरकिनार कर इस पावनयात्रा में सम्मिलित हों। आज भारतीय संस्कृति के ये सारे सत्पुत्र हम सबको पुकार रहे हैं। यह पुकार जिसके हृदय तक पहुँचेगी और जो अपने राष्ट्र और उसकी संस्कृति की सेवा के लिए सजग हो जायेगा उसी का जीवन धन्य होगा।

22 Oct 2017

अच्छे दिन आने वाले है” क्या आ गये किसानों के अच्छे दिन ?

राजनैतिक परिस्थितियाँ इतनी दुर्भाग्यपूर्ण हो गई हैं कि देश का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति हमारा अन्नदाता किसान आज विकट परिस्थितियों से जुझ रहा है इसका कारण है कि वो अपनी मेहनत का उचित मूल्य चाहता है । क्या ये सरकार इतनी नाकारा हो गयी है कि अपना अधिकार मांगने वाले किसान पर गोली दाग दे कढ़ी धूप, बरसात और हाढ़ कंपाती सर्दी में जो किसान अपनी मेहनत और खून पसीने से धरती की छाती को फोड़कर बीज बोता है । उधार लेकर बीज,खाद,सिंचाई और दवाई की व्यवस्था करता है हम जैसे लाखों लोगों का पेट पालता है यदि वो किसान अपनी मेहनत का उचित मूल्य चाहता है तो क्या ये अनुचित है अपराध है? वृक्ष की सबसे महत्वपूर्ण इकाई उसकी जड़े है यदि उनसे ही नाता टूट जाये तो बड़े से बड़ा वृक्ष को  भी धराशायी होने में समय नहीं लगता किसान की समाज में यही स्थिति है यदि इन जड़ों को हिलाने या नुकसान पहुँचने का प्रयास होगा तो निश्चित रूप से विकास रुपी वृक्ष धराशयी हो जायेगा । देश में विकास क्या केवल उद्योगों एवं मशीनों से ही आएगा ?  सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि हर इकाई का अपना महत्व है उपयोगिता है किसी को भी नज़रंदाज़ करने की भूल नहीं की जा सकती ।
इस आन्दोलन में केवल किसान ही भाग नहीं ले रहा बल्कि घर में बैठा उसका भूखा, प्यासा परिवार भी शामिल है,जिसकी आँखों में आंसू हैं इतिहास सक्षी है दुखियों की आह और आंसुओं ने बड़े–बड़े सत्ताधारियों को मुंह के बल पछाड़ा है । आज सरकार द्वारा उस किसान के ऊपर उसे चुप करने, दबाने कुचलने के लिए गोली तक चलवा देना और फिर मृतकों को मुआवजा देना निश्चित रूप से सरकार की असफलता और संवेदनहींनता को दर्शाता है । जी हाँ,ये वास्तविकता उसी सरकार की है जिसे उम्मीदों की पालकी पर बिठाकर इसी जनता ने सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठाया था ।
परिस्थिति ये है कि आज की सरकार तब तक किसी आन्दोलन को महत्व नहीं देती जब तक की कोई बढ़ी घटना नहीं घट जाती और क्या कारण है की किसान आन्दोलन हिंसक न हो जिन लोगों की जान चली गयी है क्या मुआवजा देने से उनके परिवार की भरपाई हो पाएगी क्या सरकार के प्रतिनिधि जो बढ़ी कुर्सियों को दोनों हाथ से थाम कर बैठे है वो एक करोड़ रूपये के एवज में अपने पुत्र परिवार की मृत्यु को स्वीकार करंगे ।
सरकार द्वारा घोषित किया गया की किसानो की मांगे मान ली गई है । वास्तव में ये सरकार द्वारा फूट डालो शासन करो की निति का अनुसरण था । जिसके द्वारा किसानो को दो भागों में बाँट दिया गया अब इन दो धड़ो में जिसने आपकी हाँ में हाँ मिलाई वो धन्य-धन्य हो गया लेकिन जिसने मुद्दे की और हक की बात की वो दोषी करार कर दिया गया यहाँ तक की उस पर गोलियां भी बरसा दी गयी। ये लोकतंत्र की हत्या है ।
सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कि गोली हमने नहीं चलाई आन्दोलन में कुछ विपक्ष के लोग माहौल बिगाड़ने का काम कर रहे हैं जबकि वहां के पुलिस अधिकारी कह रहे हैं कुछ फायरिंग हमारी तरफ से भी हुई है ये दोनों बयान सरकार पर प्रश्नचिन्ह लगाते है क्योंकि यदि पुलिस ने गोली नहीं चलाई तो सरकार मृतकों को एक –एक करोड़ देने के लिए क्यों मरी जा रही है ? अब इसे क्या समझा जाए क्या सरकार और पुलिस प्रशासन में तालमेल नहीं है या पुलिस प्रशासन निरंकुश हो गया है मुझे तो लगता है आने वाले दिनों में आपको ये भी सुनने को मिल सकता है की किसान आपस में ही एक दुसरे को गोली मार रहे है क्या आप ने चुनावों में अच्छे दिन इन्ही परिस्थितियों को कहा था क्या इसी के लिए शिवराज सरकार को सत्ता सौंपी थी।
यदि ये सरकार वाकई किसानो की मौत को लेकर दुखी है तो इस सरकार को दान बांटने और आड़े टेड़े बयान देने की जगह जल्दी से जल्दी किसानो को उनकी मेहनत का उचित मूल्य देना जिससे ये आन्दोलन और इससे होने वाली क्षति से बचा जा सके । 
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अवसर” खोजें, पहचाने और लाभ उठायें

अवसर का लाभ उठाना एक कला है एक ऐसा व्यक्ति जो जीवन में बहुत मेहनत करता है लेकिन उसे अपने परिश्रम का शत-प्रतिशत लाभ नहीं मिल पाता और एक व्यक्ति ऐसा जो कम मेहनत में ज्यादा सफलता प्राप्त कर लेता है  इन दोनों व्यक्तियों में अंतर केवल अवसर को पहचानने और उसका भरपूर लाभ उठाने भर का होता है प्राय: आपने देखा होगा की अपने वर्तमान से अधिकाँश मनुष्य संतुष्ट नहीं होते हैं। जो वस्तु अपने अधिकार में होती है उसका महत्व, उसका मूल्य हमारी दृष्टि में अधिक नहीं दीखता। वर्तमान अपने हाथ में जो होता। अपने गत जीवन की असफलताओं का भी रोना वे यही कह कर रोया करते हैं कि हमें भगवान या भाग्य ने अच्छे अवसर ही नहीं दिए अन्यथा हम भी जीवन में सफल होते। ऐसा कहना उनकी अज्ञानता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जिनसे वह लाभ उठा सकता है। पर कुछ लोग अच्छे और उचित अवसर को पहिचानने में ही अक्षम्य होते हैं। ठीक अवसर को भलीभांति पहचानना तथा उससे उचित लाभ उठाना जिन्हें आता है जीवन में सफल वे ही होते हैं। पर यह भी सत्य है कि अच्छे अवसर प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक बार आते हैं। अब हम उन्हें न पहचान पावें या पहचानने पर भी उनसे उचित लाभ न उठा पावें तो यह हमारा अज्ञान है। एक पाश्चात्य विद्वान का कहना है “अवसर के सर के आगे वाले भाग में बाल होते हैं, सर के पीछे वह गंजा होता है। यदि तुम उसे सामने से पकड़ सको, उसके आगे बालों को, तब तो वह तुम्हारे अधिकार में आ जाता है,पर यदि वह किसी प्रकार बचकर निकल गया तो उसे पकड़ा नहीं जा सकता ।
आपको अनेक ऐसे मनुष्य मिलेंगे जो बिना सोचे-समझे यह कह देते हैं कि फलाँ - फलाँ को जो जीवन में सफलतायें मिली वह इत्तफाक के कारण। घटनावश उनका भाग्य उनके ऊपर सदय हो गया और यह इत्तफाक है कि आज सफलता पाकर वे इतने बड़े हो सके। पर सच पूछा जाय तो इत्तफाक से प्रायः कुछ नहीं होता। संसार के समस्त कार्यों के पीछे कार्य - कारण-सम्बन्ध होता है। और यदि इत्तफाक से ही वास्तव में किसी को सुअवसर प्राप्त हो जाता है, तो भी हम न भूलें कि यह बात हमें ‘अपवाद’ के अंतर्गत रखनी चाहिए। एक विद्वान ने कहा है” जीवन में किसी बड़े फल की प्राप्ति के पीछे इत्तफाक का बहुत थोड़ा हाथ होता है।” अंधे के हाथ बटेर भी कभी लग सकती है। लेकिन सफलता प्राप्त करने का सर्वसाधारण और जाना पहिचाना मार्ग है केवल लगन, स्थिरता, परिश्रम, उद्देश्य के प्रति आस्था और समझदारी।
मानिए एक चित्रकार एक चित्र बनाता है तो उसकी सुन्दरता के पीछे चित्रकार का वर्षों का ज्ञान, अनुभव, परिश्रम और अभ्यास है। इस चित्रकला में योग्यता पाने के लिए उसने बरसों आँखें फोड़ी हैं, दिमाग लगाया है तब उसके हाथ में इतनी कुशलता आ पाई है। उसने उन अवसरों को खोजा है जब वह प्रतिभावान चित्रकारों के संपर्क में आकर कुछ सीख सके। जो अवसर उसके सामने आये, उसने उन्हें व्यर्थ ही नहीं जाने दिया वरन् उन अवसरों से लाभ उठाने की बलवती इच्छा उसमें  थी और क्षमता भी।
मनुष्यों की समझदारी तथा चीजों को देखने परखने की क्षमता में अन्तर होता है। एक मनुष्य किसी एक घटना या कार्य से बिल्कुल प्रभावित नहीं होता, उससे कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता, जब कि एक दूसरा मनुष्य उसी कार्य या घटना से बहुत कुछ सीखता और ग्रहण करता है।
साधारण रूप से मनुष्य की बुद्धि तथा प्रवृत्ति तीन प्रकार की हो सकती है। इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए एक प्रसंग याद आता है “एक नदी के तट पर तीन लड़के खेल रहे हैं। तीनों खेलने के बाद घर वापस आते हैं। आप एक से पूंछते हैं भाई तुमने वहाँ क्या देखा? वह कहता है ‘वहाँ देखा क्या, हम लोग वहाँ खेलते रहे बैठे रहे।’ ऐसे मनुष्यों की आँखें, कान, बुद्धि सब मंद रहती है। दूसरे लड़के से आप पूछते हैं कि तुमने क्या देखा तो वह कहता है कि ‘मैंने नदी की धारा, नाव, मल्लाह, नहाने वाले, तट के वृक्ष, बालू आदि देखी।’ निश्चय ही उसके बाह्य चक्षु खुले रहे, मस्तिष्क खुला रहा था। तीसरे लड़के से पूछने पर वह बताता है कि ‘मैं नदी को देखकर यह सोचता रहा कि अनन्त काल से इसका स्रोत ऐसा ही रहा है। इसके तट के पत्थर किसी समय में बड़ी-बड़ी शिलाएँ रही होंगी। सदियों के जल प्रवाह की ठोकरों ने इन्हें तोड़ा-मरोड़ा और चूर्ण किया है। प्रकृति कितनी सुन्दर है, रहस्यमयी है। तो फिर इनका निर्माता भगवान कितना महान होगा, आदि।’यह तीसरा बालक आध्यात्मिक प्रकृति का है। उसकी विचारधारा, अन्तर्मुखी है। ऐसे ही प्रकृति के लोग अवसरों को ठीक से पहचानने और उनसे काम लेने की पूरी क्षमता रखते है .सतत परिश्रम के फल स्वरूप ही सफलता मिलती है, इत्तफाक से नहीं जो भी अवसर उनके सामने आये उन्होंने दत्तचित्त हो उनसे लाभ उठाया।
यदि हम एक कक्षा के समस्त बालकों को समान अवसर दें, तो भी हम देखते हैं कि सभी बालक एक समान लाभ नहीं उठाते या उठा पाते। बाह्य सहायता या इत्तफाक का भी महत्व होता है पर हम एक कहावत न भूलें ‘भगवान उनकी ही सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करना जानते हैं।’अतः आलस्य और कुबुद्धि का त्याग कीजिये। अवसर खोइये मत। उन्हें खोजिये,पहचानिए और लाभ उठाइए ।
अनेक ऐसे आविष्कार हैं जिनके बारे में हम कह सकते हैं कि इत्तफाक से आविष्कर्त्ता को लक्ष्य प्राप्त हो गया पर यदि हम ईमानदारी से गहरे जाकर सोंचे तो स्पष्ट हो जायगा कि इत्तफाक से कुछ नहीं हुआ है। उन आविष्कर्त्ताओं ने कितना अपना समय, स्वास्थ्य, धन और बुद्धि खर्ची है आविष्कार करने के लिए।
न्यूटन के पैरों के निकट इत्तफाक से वृक्ष से एक सेब टपक कर गिर पड़ा और न्यूटन ने उसी से गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त ज्ञान कर लिया। पर न जाने कितनों के सामने ऐसे टूट-टूट कर सेब न गिरे होंगे। पर सभी क्यों नहीं न्यूटन की भी भाँति गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त ज्ञात कर सके? कारण स्पष्ट है। अवसर आया और न्यूटन ने उस अवसर को पकड़ा और उससे लाभ उठाया। न जाने कितने वर्षों से न्यूटन ने इस सिद्धान्त की खोज में दिन रात एक किये थे। सेब का उसकी आँखों के सामने गिरना एक ऐसा इत्तफाक था जिसने बिजली की भाँति उनके मस्तिष्क में ज्योति दी और वह इस आविष्कार के ज्ञाता बन सके। अतः यदि आप जीवन में सफलता चाहते हैं तो अवसर से लाभ उठाना सीखिये।
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29 Sept 2017

आधुनिकता के इस दौर में संस्कृति से समझौता क्यों ?

आज एक बच्चे से लेकर 80 वर्ष का बुज़ुर्ग आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगा हुआ है आज हम पश्चिमी हवाओं के झंझावत में फंसे हुए हैं। पश्चिमी देशो ने हमें बरगलाया है और हम इतने मुर्ख की उससे प्रभावित होकर इस दिशा की और भागे जा रहे हैं जिसका कोई अंत नहीं है ।वास्तव में देखा जाए तो हमारा स्वयं  का कोई विवेक नहीं है हम जैसा देख लेते है वैसा ही बनने का प्रयत्नं करने लगते है निश्चित रूप से यह हमारी संस्कृति के ह्रास का समय है जिस तेज गति से पाश्चात्य संस्कृति का चलन बढ़ रहा है, उससे लगता है कि वह समय दूर नहीं, जब हम पाश्चात्य संस्‍कृति के गुलाम बन जायेंगे और अपनी पवित्र पावन भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा सम्पूर्ण रूप से विलुप्त हो जायेगी, गुमनामी के अंधेरों में खो जायेगी। आज मनोरंजन के नाप पर बुद्धू बॉक्स से केवल अश्लीलता और फूहड़पंन का ही प्रसारण हो रहा है हमें मनोरंजन के नाम पर क्या दिया जा रहा  है मारधाड़, खुन खराबा, पर फिल्माए गए दृश्य मनोरंजन के नाम पर मानवीय गुणों, भारतीय संस्कृति व कला का गला घोट रहे हैं।माना की आधुनिक होना आज के दौर की मांग हैं और शायद अनिवार्यता भी है, लेकिन यह कहना भी गलत ना होगा कि यह एक तरह का फैशन है। आज हर शख्स आधुनिक व मॉर्डन बनने के लिये हर तरह की कोशिश कर रहा है, मगर फैशन व आधुनिकता का वास्तविक अर्थ जानने वालों की संख्या न के बराबर होगी, और है भी, तो उसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। क्या आधुनिकता हमारे कपड़ों, भाषा, हेयर स्टाइल एवं बाहरी व्यक्तित्व से ही संबंध रखती है? शायद नहीं।
भारत वो देश है जहां पर मानव की पहचान उसके महंगे और सुंदर वस्त्र नहीं बल्कि उसके अदंर छुपे हुए नैतिक मूल्य है जो मानव के व्यवहार से प्रतिबिंबित  होते है विवेकानंद जब शिकागो धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये तो वहां के लोग उनकी भारतीय वेशभूषा को देख कर हास्य करने लगे कई लोगों ने मजाक बनाया बुरा भला कहा लेकिन जब उन्होंने धर्म सम्मेलन में अपने विचार व्यक्त किये तो सारा जन समूह भारतीय संस्कृति के रंग में रंग गया विवेकानन्द ने अपने ज्ञान से विदेशियों के समक्ष अपना लोहा मनवा दिया ।
मैं आधुनिकता के विपक्ष में नहीं हूँ मैं समय के साथ बदलना आवश्यक मानता हूँ। लेकिन आधुनिकता का मतलब ये तो बिल्कुल नहीं है की हम अपनी संस्कृति  के स्वयं भक्षक बन जाएँ । वास्तविक रूप में आधुनिकता तो एक सोच है, एक विचार है, जो व्यक्ति को इस दुनिया के प्रति अधिक जागरूक व मानवीय दृष्टिकोण से जीने का सही मार्ग दिखलाती है। सही मायने में सही समय पर, सही मौके पर अपने व्यक्तित्व को आकर्षक व् सभ्य परिधान से सजाना, सही भाषा का प्रयोग तथा समय पर सोच-समझकर फैसले लेने की क्षमता, समझदारी और आत्मविश्वास का मिला-जुला रूप ही आधुनिकता है। लेकिन आधुनिकता के नाम पर हो कुछ और रहा है  आज हमारी वेशभूषा से लेकर सोच तक सारी पश्चिम के रंग में रंगी हुई है ।।
हम इतने आधुनिक हो गए की व्यक्ति को व्यक्ति से बात करने की फुर्सत नहीं है सब काम ऑनलाइन है सब व्यस्त है किसी के पास समय नहीं है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो सब व्यस्त नहीं है बल्कि तृस्त है आज तकनीक को हम नहीं बल्कि तकनीक हमें स्तेमाल कर रही है । सुबह उठते ही सबसे पहले  मोबाइल पर हाथ जाता है की किस –किस के और कितने मेसेज आये ,फेसबुक पर कितने लाइक आये । आदमी पहले सुबह उठकर ईश्वर का नाम लेता था अपनी दैनिक - चर्या से निवृत्त हो फिर वो अपने कामकाज में लगता था परिवार के साथ माता-पिता के पास बैठता था आज हमें अपने बच्चों से बात करने का माता-पिता के पास बैठने का ही समय नहीं है आज भीढ़ में भी आदमी अकेलेपं का अनुभव करता है ।
आज युवा इससे ज्यादा तृस्त है वो युवा जो आने वाले समय में इस देश की दिशा धारा निर्धारित करने वाले है । वेशभुषा हमारी निहायती फूहड़ और भद्दी हो गयी बिगडती हुई भाषा शैली और अस्त व्यस्त जीवन शैली से युवा तृस्त है । अपने बच्चो को छोटे-छोटे कपड़े पहनाने में भी हमें अब गर्व का अनुभव होने लगा है सलवार कुर्ते की जगह अब मिनी स्कर्ट और टॉप ने ले लिया लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ समाज का वातावरण दूषित हुआ हाँ ये बात पक्की है मेरे इस विचार को पढकर कई तथाकथित सामाजिक लोग मुझे पिछड़ी और छोटी सोच का व्यक्ति आंकेगे । जिसका मुझे कोई रंज नहीं है लेकिन ये वास्तविकता है ।
एक बहुत सोचनीय स्थिति बनी हुई है और वो ये की हमारे बच्चे हमारी  और आप की आधुनिक शैली अपनाने की वजह से समय से पहले बड़े हो रहे ।
बचपन में दादा-दादियों द्वारा हमें अच्छी-अच्छी कहानिया सुनाई जाती थीं। कहते हैं कि जब बच्चा छोटा होता है तो उसका दिमाग बिल्कुल शून्य होता है। आप उसको जिस प्रकार के संस्कार व शिक्षा देंगे उसी राह पर वह आगे बढ़ता है। अगर वाल्यकाल में बच्चों को यह शिक्षा दी जाती है कि चोरी करना बुरी बात है तो वह चोरी जैसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा। छोटी अवस्था में बच्चों को संस्कारित करने में माता-पिता, दादा-दादी व बुजुर्गो का बड़ा हाथ होता था। कहानियां भी प्रेरणादायी होती थीं। - कही ऐसा ना हो की अंधी आधुनिकता और स्वयं की मह्त्व्कंषा की वजह से हमारा सारा कुछ समय से पहले ही लूट जाये और हमारे सामने रोने के सिवा कुछ ना बचे देश में आधुनिकता के नाम पर एक अंधी दौड़ जारी है।
आम इंसान आधुनिकता की इस दौड़ में अंधा व भ्रमित हो गया है, उसे यही समझ में नहीं आ पा रहा कि आधुनिकता के नाम पर कंपनियाँ आम इंसान को किस प्रकार गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने की फिराक में लगी हुई हैं।
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तपस्या और प्रेम की साकार प्रतिमा है “नारी”


नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥

प्राचीन समय से स्त्रियों के नाम के साथ देवी शब्द का प्रयोग होता चला आ रहा है जैसे लक्ष्मी देवी, सरस्वती देवी, दुर्गा देवी आदि नारी के साथ जुड़ने वाले इस शब्द का प्रयोग आकस्मिक रूप में नहीं हुआ है अपितु ये नारी की दीर्घकालीन तपस्या का ही फल है । वास्तव में पुरुष में ऊर्जा का संचार करने वाली पथ-प्रदर्शिका को देवी कहा जाता है। आज की नारी भी अपने अंदर वो अतीत के देवीय गुण संजोए हुए है जिन्होंने समाज के समग्र विकास में योगदान दिया है ।
कहा जाता है पुरुष के जीवन में माँ के बाद नारी का दूसरा महत्वपूर्ण किरदार पत्नी का होता है। उसके इस रूप को सबसे विश्वास पात्र मित्र की संज्ञा दी जाती है। जीवन के कठिन क्षणों में जब सब नाते रिश्तेदार हमसे किनारा कर लेते है हमें अकेला छोड़ देते है धन संपत्ति का विनाश हो चूका होता है शरीर को रोगों ने जकड़ लिया होता है हम मानसिक अवसाद से ग्रस्त होते है, उपेक्षा जनित एक प्रकार की खीज और चिढ़चिढ़ापन हमारे अंदर आ गया होता है। उस स्थिति में केवल पत्नी ही होती है जो पुरुष को हिम्मत देती है। उससे कुछ और करते ना बन पढ़े तो भी वो कम से कम पुरुष के मनोबल को बढ़ाने उसे हिम्मत देकर उसमें आशा को जगाए रखने का काम तो करती ही है । वो पुरुष को पीयूष रुपी स्नेह से धैर्य बंधाती है उसके आत्मबल को जागृत कर उसके टूटे स्वाभिमान को समेटकर उसे इस लायक बना देती है की वो समाज की चुनौतियों को न केवल स्वीकार करता है अपितु सफल भी होता है।
यदि नारी न होती तो कहाँ से इस सृष्टि का सम्पादन होता और कहाँ से समाज तथा राष्ट्रों की रचना होती! यदि माँ दुर्गा न होती तो वो कौन सी शक्ति होती जो संसार में अनीति एवं अत्याचार मिटाने के लिये चंड-मुंड, शुम्भ-निशुम्भ का संहार करती । यदि नारी न होती तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक, प्रचण्ड पंडित, अप्रतिम साहित्यकार, दार्शनिक, मनीषी तथा महात्मा एवं महापुरुष किस की गोद में खेल-खेलकर धरती पर पदार्पण करते। यहाँ तक की राम और कृष्ण धरती पर कैसे उतरते मानव मूल्यों और धर्म की स्थापना कैसे होती । नारी व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की जननी ही नहीं वह जगज्जननी हैं उसका समुचित सम्मान न करना, अपराध है तथा अमनुष्यता है।
प्राचीन काल से ही नारी में लेने का नही अपितु देने का ही भाव रहा है नारी में दया, क्षम, करुना, सहयोग, उदारता, ममता जैसे भाव भरे रहते है ये दैवीय गुण उसे जन्म से ईश्वर द्वारा प्रदत्त किये जाते है। नारी के ये गुण उसे पुरुष से श्रेष्ठ सिद्ध करते है यदि नारी को श्रद्धासिक्त सद्भावना से सींचा जाए तो ये नारी शक्ति सम्पूर्ण विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है ।
प्रेम नारी का जीवन है ।अपनी इस निधि को वो आदिकाल से पुरुष पर बिना किसी स्वार्थ के पूर्ण समर्पण और ईमानदारी के साथ निछावर करती आई है ।कभी न रुकने वाले इस निस्वार्थ प्रेम रुपी निर्झर ने पुरुष को शांति और शीतलता दी है । स्त्री को एक कल्पवृक्ष के रूप में भी देखा जा सकता है जिसके सानिध्य में बैठने पर न केवल  पुरुष  को आत्म तृप्ति मिलती है अपितु उसका पूरा परिवार संतुष्टि प्राप्त करता है 

कई दिनों पहले एक महापुरुष की वाणी सुनने का सौभाग्य मिला उन्होंने एक इतना सुंदर विचार दिया जिसकी मौलिकता जिसकी सत्यता ने मुझे ये लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया ।
वो महापुरुष बता रहे थे कि यदि सारे संसार से केवल स्त्रियों को हटा दिया जाए तो इस समूचे ब्रह्माण्ड  का विनाश निश्चित है क्योंकि स्त्री के अभाव में तो सृष्टि आगे चल ही नहीं सकती शक्ति के अभाव में शिव  भी शव समान हो जाते है ।बात सोलह आने सच भी है स्त्री ही परिवार और समाज की निर्मात्री है वो ही वंश परम्परा को आगे बढ़ती है। लेकिन उनकी बात यहाँ पर ही समाप्त नहीं हुई उन्होंने आगे बोला की यदि इस समूचे ब्रह्माण्ड से पुरुष जाति को समाप्त कर दिया जाए तब भी स्त्री अकेले ही स्त्री का न केवल निर्माण कर सकती है बल्कि उसे आगे भी बड़ा सकती है ।ये विचार सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ की ये कैसे सम्भव है मैं उन महापुरुष से ये पूछ बैठा की महाराज ऐसे कैसे सम्भव है क्योंकि स्त्री तो धरती होते है और पुरुष आकाश के समान है और जब आकाश रूपी पुरुष का स्नेह बीज के रूप में जब धरती के गर्भ में पहुँचता है तब ही तो धरती से कोमल पौधों का सृजन  होता है ।तब उन्होंने कहा की जो बीज आकाश रूपी पुरुष धरती रूपी स्त्री को सौंप देता है स्त्री उसके द्वारा हजारों बीज बना लेती है तो जो गर्भवती महिलाएं इस धरा पर रह जायेंगी वो पुरुष का अभाव होने के बाद भी उनके बीज से सृष्टि का निर्माण करने में सक्षम रहेगी जबकि पुरुष के पास ये योग्यता नहीं है तो इस प्रकार यदि सृष्टि से पुरुष समाप्त भी हो जाएँ तो स्त्रियाँ तो सृष्टि फिर से रच देने में सक्षम है लेकिन यदि समूची स्त्री जाति नष्ट हो जाए तो पुरुष स्त्री को नहीं रच सकता क्योंकि नारी सनातन शक्ति है और ये सामान्य जीवन में देखने में भी  आता है की स्त्री  अपने जीवन में इतने सामाजिक दायित्वों को उठाकर पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलती है । यदि उन दायित्वों का भार केवल पुरुष के कंधे पर ही डाल दिया जाए तो पुरुष मझदार में ही असंतुलित होकर गिर पढ़े । जब कोई व्यक्ति अपने भवन का निर्माण करता है तो सबसे पहले नींव खुदवाता है ना केवल खुदवाता है बल्कि अच्छे से अच्छे चुने  मिट्टी का प्रयोग करता है जिससे की एक मजबूत नींव के ऊपर एक सुद्रण भवन स्थापित हो सके उसी प्रकार स्त्री भी परिवार में मूक रूप से नींव के पत्थर का कार्य करती है  जिस पर पूरा परिवार निर्भर करता है । नारी के अभाव में एक संस्कारी सभ्य परिवार की कल्पना नही की जा सकती । अतः नारी हर परिस्थिति में वन्दनीय है वो पुरुष की पथ प्रदर्शिका है उसकी प्रेरणा स्रोत है ।पुरुष सदैव स्त्री का ऋणी रहा है और आगे भी रहेगा ।
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24 Sept 2017

कन्याभ्रूण ‘आखिर ये हत्याएं क्यों ?

बेटा वंश की बेल को आगे बढ़ाएगा,मेरा अंतिम संस्कार कर बुढ़ापे में मेरी सेवा करेगा। यहाँ तक की मृत्यु उपरान्त मेरा श्राद्ध करेगा जिससे मुझे शांति और मोक्ष की प्राप्ति होगी और बेटी, बेटी तो क्या है पराया कूड़ा है जिसे पालते पोसते रहो उसके दहेज की व्यवस्था के लिए अपने को खपाते रहो और अंत में मिलता क्या है ? वो पराये घर चली जाती है। यदि गुणवान है तो ससुराल के साथ निभा लेती है, अन्यथा बुढ़ापे में उसके ससुराल वालों की गालियाँ सुनने को ही मिलती है और कहीं घर छोड़ कर आ गयी तो मरने तक उसे खिलाओ और इसी चिंता में मर जाओ की हमारे बाद उसका क्या होगा ।
ये मानसिकता प्रबल रूप से काम करती है आज के समय में कन्या भ्रूण हत्या के पीछे लड़के या लड़की का पैदा होना स्वयं उसके हाथ में तो नहीं होता और कौन ऐसा होगा जो ये चाहे की उसके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पढ़े तो ऐसे में हम लड़की को समस्याओं परेशानियों का पुलिंदा और लडकों को कुल का दीपक  क्यों समझते है?
ये बात मैं केवल अशिक्षित और गाँव देहात के लोगों के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि ये ही हालात पढ़े लिखे समाज में हाई सोसाइटी के माने जाने वाले लोगों के भी है ।
आखिर क्योंक्या अपराध है उसकाजिस मासूम ने अभी दुनिया में कदम भी न रखा होजिस अबोध की आँखों में संसार का चित्र भी न उभरा होउसका भी कोई जानी-दुश्मन हो सकता हैये प्रश्नवाचक चिह्न अटपटे जरूर हैंपरन्तु वर्तमान समाज की क्रूर व्यवस्था का एक नग्न सत्य है। पितृ सत्तात्मक समाज पुत्र से वंश-बेल को आगे बढ़ाने की सड़ी-गली परम्परा को बदले हुए परिवेश और परिस्थितियों में भी ढोए फिर रहा है। इस रूढ़ि ग्रस्तता की आसक्ति ही हैजिससे प्रेरित होकर बेकसूर कन्या अपनी भ्रूणावस्था में ही माँ की कोख से जबरदस्ती खींचकर फेंक दी जाती है।
पुराने जमाने के इतिहास-पुराणों मेंलोक-कथाओं में ऐसे राक्षस-पिशाचों का जिक्र आता हैजो छोटे बच्चों का मारकर खा जाते थे। बाल हत्यारे इन राक्षसों की कथाओं को सुनने पर हर किसी का मन घृणा से भर जाता है। अपरिपक्व भ्रूण तो बालक से भी मासूम होता हैउसकी हत्या करने वालों को क्या कहा जाएजो इनके हत्यारे हैंक्या उनमें सचमुच पिता का प्यार और माता की ममता स्पंदित होती हैयदि ऐसा है तो शायद वे ऐसा क्रूर कर्म कभी न कर पाते।
पुत्र प्राप्ति की प्रबल इच्छा एक मृगतृष्णा ही तो हैआखिर क्या दे रहे हैं पुत्र आज अपने माता-पिता कोइस प्रश्न का उत्तर प्रायः हर घर में लड़कों द्वारा माँ-बाप की जमीन -जायदाद हथियाने के बदले उन्हें दिए जाने वाले शर्मनाक अपमान-तिरस्कार में खोजा जा सकता है। इसे मोहान्धता ही कहेंगे कि रोजमर्रा की ऐसी सैकड़ों-हजारों घटनाओं को देखने के बाद भी पुत्र प्राप्ति की लालसा नहीं मिटती। इस लालसा को मिटाए जाने के बदले कन्या को जन्म लेने के पहिले ही मिटा दिया जाता है। विज्ञान और आधुनिक तकनीकी ज्ञान जैसे- अल्ट्रासाउंड स्केनिंग आदि ने इस क्रूरता को और बढ़ावा दिया है।
इस सबके परिणामस्वरूप वर्तमान समाज में गर्भपात की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई। इन गर्भपातों में बहुलता कन्या शिशुओं की होती है।
अब ये कहा जाए की इसकी रोकथाम के लिए सरकार क्यों कुछ नहीं करती तो मैं ये कहना चाहूँगा क्या सब काम सकार करेगी हम लोगों में जागृति कब आएगी सरकार हर एक के पीछे तो भाग नहीं सकती तो क्या होना चाहिए । इसका समाधान बहुत सोचने के बाद मुझे लगा की जो समाजसेवी संस्थाएं है और जो वास्तव में समाज सेवा करना चाहती है। उन्हें जन जागृति के बड़े कदम उठाने चाहिए। समाजसेवी संस्थाओं को जिन इलाकों में ज्यादा भ्रूण हत्या होती है उन्हें गोद ले लेना चाहिए और पूरी चौकसी के साथ नजर रखनी चाहिए कि ऐसी एक भी घटना उसके गाँव में न हो सके साथ ही साथ सरकार को भी ऐसी संस्थाएं बनानी चाहिए ,जहां अनचाहे बच्चों को जीवन जीने योग्य वातावरण मिल सके और उन्हें भी समाज में वही सम्मान और अधिकार मिले जो एक सामान्य व्यक्ति के होते है ।यदि ऐसा होता है तो परिस्थितियाँ एक दम तो नहीं लेकिन धीरेधीरे बदली जा सकती है।
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22 Aug 2017

तीन तलाक का खेल ख़त्म हुआ


मुस्लिम वर्ग की महिलाओं के लिए आज सोने का सूरज उगा है  ये तारीख और ये फैसला इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा क्योंकि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता का उद्घोष करने वाले इस भारत देश में अब हमारी मुस्लिम बहनों को भी आज समाज में बराबरी का दर्जा मिला है। सुप्रीम कोर्ट के तीन तलाक पर आये फैसले के द्वारा अब हमारा देश मुस्लिम वर्ग की महिलाओं के गौरव, गरिमा और अस्मिता की रक्षा करने में समर्थ हुआ है साथ ही अब सरकार को संविधान और मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार हिन्दू मेरिज एक्ट की तरह मुस्लिम मेरिज एक्ट भी बनाना चाहिए जिसमें विवाह की उम्र, औरतों के अधिकार और विकट परिस्थितियों में तलाक लेने का प्रावधान हो जिससे की मुस्लिम औरतों का जीवन भी अधिक सुरक्षित हो सके।
ये ऐतिहासिक फैसला उन लोगों के मुंह पर करारा तमाचा है जो हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य बड़ाने के लिए  ये कहते फिरते है की मुसलमानों के साथ भेदभाव हो रहा है। यदि सरकार के मन में भेदभाव होता तो सरकार मुसलमान औरतों के तीन तलाक के कारण उनके उजड़ते परिवार, समाज और उनके बच्चों की ज़िन्दगी के बारे में नहीं सोचती मुस्लिम महिलाओं के दर्द और परेशानियों को इस सरकार ने बिना किसी भेदभाव के समझा और सशक्त बहस और मुद्दों पर बात करते हुए इस समस्या का निराकरण किया। जिसे कांग्रेस सरकार पिछले 7सालों में समझ नहीं पायी कोशिश उन्होंने भी की लेकिन वोट बैंक की राजनीति के कारण धराशायी हो गयी।
हालांकि अभी भी कई मौलवी मन ही मन इस फैसले से खुश नहीं है उनका मानना है की ये उनके धर्म में हस्तक्षेप है। उनके धर्म से छेड़छाड़ है। लेकिन मैं पूछना चाहता हूँ कि ये कैसा धर्म है जिसमें पुरुष वर्ग द्वारा की गयी गलती को एक स्त्री जीवन भर भुगते, उसके बच्चे यतीम हो जाए, उसका घर खानदान समाज में बदनाम हो जाए, और वो शख़्स जिसने तलाक देने का पाप किया है वो बिना किसी भय और दुःख के अपने लिए नई नवेली दुल्हन लाकर फिर से घर बसा ले और इस घृणित कृत्य को एक बार नहीं बल्कि तीन-तीन बार कर सके और कभी उस शोहर को वापस पुरानी पत्नी की याद आ जाये तो वो फिर से उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए उसका हलाला करवाए गौर किया जाना चाहिए इस सब बखेड़े में वो औरत जो अपना घरबार छोड़कर आपका घर बसाने आई थी उसे किस-किस दोज़ख से गुजरना पढ़ता वो कितने मानसिक अवसाद  और तनाव से गुजरती होगी। क्या इस्लाम में  स्त्रियों को केवल इतना ही सम्मान मिला हुआ है नहीं इस्लाम एक महान धर्म है। हर धर्म की तरह इसमें भी विकृतियाँ है जिन्हें दूर करने का समय आ गया है। हिन्दू धर्म में सती प्रथा जैसी विकट कुरीतियाँ शामिल थी लेकिन उनका भी निषेध किया गया। इसी प्रकार किसी भी धर्म में यदि कोई विकृति आ गयी है या किसी रीति-रिवाज़ का दुरुपयोग हो रहा हो तो ऐसे में उस धर्म के ज्ञाता और जानकार लोगों का ये नैतिक कर्तव्य हो जाता है की वो उन विकृतियों को समाप्त कर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करने में सहायक सिद्ध हो। 
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तकनीकी के अग्रदूत राजीव गांधी का शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण


हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री राजीव गांधी का कहना था कि देश के प्रत्येक व्यक्ति तक शिक्षा का प्रसार होना चाहिए। यदि प्रत्येक नागरिक शिक्षित होगा तो एक श्रेष्ठ राष्ट्र का निर्माण होगा। श्री गांधी हमारे देश में तकनीक लाने वाले पहले व्यक्ति थे जिन्होंने न केवल भारतीय जनता को तकनीकी से रूबरू कराया अपितु तकनीकी के द्वारा एक नये राष्ट्र की कल्पना की जिसका जीता जागता स्वरूप हम वर्तमान समय में देख रहे है। आज हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में तकनीकी से जुड़ा हुआ है ।
राजीव गांधी की मान्यता थी कि शिक्षित जनता ही श्रेष्ठ प्रतिनिधियों को निर्वाचित कर सकती है। देश की समस्याओं का सुन्दर ज्ञान रख सकती है और शिक्षित जनता ही देश के कार्यों में बुद्धिमतापूर्ण तथा सक्रिय योगदान दे सकती है। कोई भी लोकतंत्र अपने मतदाताओं की सामान्य बुद्धि एवं शिक्षा के स्तर को बढ़ाए बिना ऊंचा नहीं उठ सकता। इसलिए नागरिकों के शिक्षा के स्तर को ऊंचा करने से ही उत्कृष्ट लोकतंत्र का जन्म हो सकता है। अशिक्षित जनता लोकतंत्र की घातक शत्रु होती हैअशिक्षित जनता के कारण लोकतंत्र प्रायः निरंकुश तंत्र अथवा भीड़ तंत्र में परिवर्तित हो जाता है। शिक्षित जनता ही वास्तविक लोकतंत्र का निर्माण करती है। इसीलिए राजीव गांधी का पूर्ण विश्वास था कि लोकतंत्र में शासन तभी श्रेष्ठ होगा जब जनसाधारण शिक्षित हो तथा उसमें उच्च कोटि की राजनीतिक सूझबूझ हो। राजीव गांधी के अनुसार सम्पूर्ण समाज में ऐसी सहज बुद्धि और राजनीतिक चातुर्य होना चाहिए जिससे नागरिक बुद्धिमतापूर्वक अपने प्रतिनिधियों एवं नेताओं को चुन सके तथा सामने आने वाले महत्वपूर्ण प्रश्नों को समझ सके और बुद्धिमतापूर्वक उन पर वाद-विवाद कर सके। लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब जन साधारण अनिवार्य रूप से शिक्षित हो। वास्तव में लोकतंत्र की सफलता के लिए अति महत्वपूर्ण पूर्व शर्तों में शिक्षा का एक अपरिहार्य स्थान होता है। अच्छी शिक्षा के द्वारा ही नागरिकों का चरित्र श्रेष्ठ बनाया जा सकता है तथा उनमें अपने अधिकारों के उचित उपभोग एवं कर्तव्यों के उचित सम्पादन की भावना जागृत की जा सकती है।
उनकी कल्पना एक ऐसे भारत की थी जिसमें अमीर-गरीब का भेदभाव न होसभी आनन्द से एकजुट होकर रहेंजहां साम्प्रदायिक भेद-भाव की गुंजाइश नहीं हो-सचमुच में एक ऐसा भारत जो सभी तरह से अपने पैरो पर खड़ा होकर विश्व का नेतृत्व करे। राजीव गांधी के भीतर अपने देश एवं देशवासियों के लिए अपनी क्षमता के अनुसार कुछ कर देने की प्रबल भावना थीजिसके बल पर उन्होंने इक्कीसवीं सदी के समुन्नतसमृद्ध भारत की परिकल्पना की थी। वस्तुतः राजीव गांधी के रूप मेंएक ऐसे व्यक्तित्व का नेतृत्व हमारे देश को प्राप्त हुआ था जो देश को भावी यात्रा के संबंध में एक निर्धारित दिशा दे सकता था।

राजीव गांधी निश्चित रूप से एक दूरदर्शी व्यक्ति भी थे उन्होंने बहुत पहले एक बात कही थी की ‘हर व्यक्ति को इतिहास से सबक लेना चाहिए. हमें यह समझना चाहिए कि जहाँ कहीं भी आंतरिक झगड़े और देश में आपसी संघर्ष हुआ हैवह देश कमजोर हो गया है. इस कारणबाहर से खतरा बढ़ता है. देश को ऐसी कमजोरी के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है’ आज जबकि हमारे देश में जातिगत वैमनस्य की प्रदूषित बयार चल रही है हमें उनके इस विचार को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है ।
सिद्ध हो। 
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21 Jun 2017

नज़रे बदलो नज़ारे बदल जायेंगे..........आपकी सोच जीवन बना भी सकती है बिगाढ़ भी सकती है


सकारात्मक सोच व्यक्ति को उस लक्ष्य तक पहुंचा देती है जिसे वो वास्तव में प्राप्त करना चाहता है लेकिन उसके लिए एक दृढ़ सकारात्मक सोच की आवश्यकता होती है। जब जीवन रूपी सागर में समस्या रूपी लहरें हमें डराने का प्रयत्न तो हमें सकारात्मकता का चप्पू दृण निश्चय के साथ उठाना चाहिए । यदि आप ऐसा करते है तो निश्चित रूप से मानकर चलिए आप की नैया किनारे लग ही जाएगी । लेकिन ये निर्भर करता है की उस समय समस्या के प्रति आपका दृष्टिकोण क्या है ,आप उन परिस्थितियों पर हावी होते है या परिस्थितियाँ आप पर  दो पंक्तियाँ याद आती है….
नज़रें बदली तो नज़ारे बदले,कश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदले।
सोच का बदलना जीवन का बदलना है जी हाँ आप जब चाहे अपने जीवन को बदल सकते है। समाज में कई बार देखने को मिलता है की एक व्यक्ति जो पूरी मेहनत से काम करता है वो उस व्यक्ति से पीछे रह जाता है जो कम समय में मेहनत करता है और अधिक सफल दिखता है। यह प्रायः विद्यार्थियों के साथ भी देखा जाता है कम मेहनत करने वाला  छात्र ज्यादा अंक अर्जित करने में सफल होता है। जबकि पूरे वर्ष लगन से पढ़ने वाला छात्र कई बार  पिछड़ जाता है इसका कारण क्या है जी हाँ इसका कारण है हमारी सोच ,विचार और उसके अनुरूप किये गये हमारे कर्म हम जैसा सोचते है वैसे ही बनते चले जाते है । इसका एक सशक्त उदाहरण में आपको देना चाहूँगा । भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, गरीब मछुआरे के बेटे थे। बचपन में अखबार बेचा करते थे। आर्थिक कठिनाईंयों के बावजूद वे पढ़ाई करते रहे। सकारात्मक विचारों के कारण ही उन्होंने भारत की प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनेक सफलताएं हासिल कीं। अपने आशावादी विचारों से वे आज भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में वंदनीय हैं। उन्हें मिसाइल मैन के नाम से जाना जाता है। हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थिति में भी अपनी सकारात्मक वैचारिक शक्ति से इतिहास रचा है। 
दूसरा उदाहरण आता है महानतम राजनेताओं में से एक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल का जो बचपन में हकलाते थे, जिसके कारण उनके सहपाठी उन्हे बहुत चिढ़ाया करते थे। अपनी हकलाहट के बावजूद चर्चिल ने बचपन में ही सकारात्मक विचारों को अपनाया और मन में प्रण किया कि, मैं एक दिन अच्छा वक्ता बनुंगा। उनके आशावादी विचारों ने विपरीत परिस्थिति में भी उन्हें कामयाबी की ओर अग्रसर किया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन को एक साहसी अनुभवी और सैन्य पृष्ठभूमि वाले प्रधानमंत्री की जरूरत थी। विस्टन चर्चिल को उस समय इस पद के लिये योग्य माना गया। राजनीति के अलावा उनका साहित्य में भी योगदान रहा। इतिहास, राजनीति और सैन्य अभियानों पर लिखी उनकी किताबों की वजह से उन्हे 1953 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये सब उपलब्धियाँ उनके सकारात्मक विचारों का ही परिणाम है। 
सकारात्मक सोच का तीसरा उदाहरण आता है जो क्रिकेट प्रेमी है उन्होंने कई बार क्रिकेटरों को कहते सुना होगा कि एक दो चौका पङ जाने से दूसरी टीम का मनोबल टूट गया जिससे वे गलत बॉलिंग करने लगे और मैच हार गये। वहीं कुछ खिलाङियों के साथ ये भी देखने को मिलता है कि वे पुरे सकारात्मक विचारों से खेलते हैं परिस्थिती भले ही विपरीत हो तब भी, जिसका परिणाम ये होता है कि वे हारी बाजी भी जीत जाते हैं।
हमारी सकारात्मक सोच, सकारात्मक संवाद और सकारात्मक कार्यों का असर हमें सफलता की ओर अग्रसर करते हैं। वहीं निराशा तथा नकारात्मक संवाद व्यक्ति को अवसाद में ले जाते हैं क्योंकि विचारों में बहुत शक्ति होती है। हम क्या सोचते हैं, इस बात का हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर होता है। इसीलिए अक्सर निराशा के क्षणों में मनोवैज्ञानिक भी सकारात्मक संवाद एवं सकारात्मक कहानियों को पढने की सलाह देते हैं। हमारे सकारात्मक विचार ही मन में उपजे निराशा के अंधकार को दूर करके आशाओं के द्वार खोलते हैं।
सकारात्मक विचार की शक्ति से तो बिस्तर पर पड़े रोगी में भी ऊर्जा का संचार होता है और वे पुनः अपना जीवन सामान्य तौर से शुरु कर पाता है। हमें अपने मस्तिष्क को महान विचारों से भर लेना चाहिए तभी हम महान कार्य संपादित कर सकते हैं। जैसे कि हम सोचे, मै ऊर्जा से भरपूर हूँ, आज का दिन अच्छा है, मैं ये कार्य कर सकता हूँ क्योंकि विचार शैली विषम या प्रतिकूल परिस्थिति में भी मनोबल को ऊँचा रखती है। सकारात्मक व्यक्ति सदैव दूसरे में भी सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
अक्सर देखा जाता है कि, हममें से कई लोग चाहे वो विद्यार्थी हों या नौकरीपेशा या अन्य क्षेत्र से हों काम या पढ़ाई की अधिकता को देखकर कहने लगते हैं कि ये हमसे नहीं होगा या मैं ये नहीं कर सकता। यही नकारात्मक विचार उन्हें आगे बड़ने से रोकते हैं। यदि हम ना की जगह ये कहें कि हम कोशिश करते हैं हम ये कर सकते हैं तो परिस्थिति सकारात्मक संदेश का वातावरण निर्मित करती है। जिस तरह हम जब रास्ते में चलते हैं तो पत्थर या काटों पर पैर नहीं रखते उससे बचकर निकल जाते हैं उसी प्रकार हमें अपने नकारात्मक विचारों से भी बचना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार एक पेड़ से माचिस की लाख से भी ज्यादा तीलियाँ बनती है किन्तु लाख पेड़ को जलाने के लिए सिर्फ एक तीली ही काफी होती है। उसी प्रकार एक नकारात्मक विचार हमारे हजारों सपनो को जला सकता है।
हमारे विचार तो, उस रंगीन चश्मे की तरह हैं जिसे पहन कर हर चीज उसी रंग में दिखाई देती है। यदि हम सकारात्मक विचारों का चश्मा पहनेंगे तो सब कुछ संभव होता नजर आयेगा। भारत की आजादी, विज्ञान की नित नई खोज सकारात्मक विचारों का ही परिणाम है। आज हमारा देश भारत विकासशील से बड़कर विकसित राष्ट्र की श्रेणी में जा रहा है। ये सब सकारात्मक विचारों से ही संभव हो रहा है। अतः हम अपने सपनो और लक्ष्यों को सकारात्मक विचारों से सींचेंगे तो सफलता की फसल अवश्य लहलहायेगी। बस, केवल हमें सकारात्मक विचारों को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा।
स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि, “मन में अच्छे विचार लायें। उसी विचार को अपने जीवन का लक्ष्य बनायें। हमेशा उसी के बारे मे सोचें।
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9 Jun 2017

हिन्दू मुस्लिम समन्वय के प्रतीक कबीर बाबा


आज धर्म के नाम पर एक दूसरे पर छींटाकसी करने वाले तथाकथित हिन्दू और मुसलमान जो शायद ही धर्म के वास्तविक स्वरूप की परिभाषा जानते हो ऐसे समय में उन्हें कबीर जैसे महान व्यक्तित्व के विचारों को पुन: पढ़ना चाहिए । कबीर किसी विशेष पंथ सम्प्रदाय के नहीं अपितु पूरी मानव जाति के लिए प्रेरणा स्रोत थे। उन्होंने अपने समय में फैली सामाजिक बुराइयों चाहे वो मुसलमानों से सम्बन्धित हो या हिन्दुओं से सम्बन्धित उनका पुरजोर विरोध किया ।
उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए कहा कि……………
‘कंकड़ पत्थर जोड़कर मस्जिद लायी बनाये, ता चढ़ मुल्ला बांक दे क्या बहरा हुआ खुदाय ।
वहीं उन्होंने दूसरी और हिन्दू धर्मावलम्बियों को कहा कि……….
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
धर्म के नाम पर होने वाले उपद्रवों के लिए उन्होंने कहा इस संसार में तुम्हारा कोई शत्रु नहीं हो सकता यदि तुम्हारा हृदय पवित्र एवं शीतल है। यदि तुम अपने घमंड और अहंकार को छोड़ दो तो सभी तुम्हारे ऊपर दयावान रहेंगे।
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होये
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोये।
अपने प्रभावशील धारदार विचारों से दूध का दूध और पानी का पानी करने वाला ये महापुरुष न हिन्दू था न मुसलमान था। कबीर जीवन भर कहते रहे ‘राम’ ‘रहीम’ एक है, नाम धराया दोय। कबीर का मजहब केवल मानवता था। जिसे भूलकर आज का मानव धर्म के नाम पर बंटता चला जा रहा है। जीवन भर अपनी वाणी से लोगों में समन्वय करने वाले कबीर की जब मृत्यु हुई तो हिन्दू और मुस्लिमों ने उनके शरीर को पाने के लिये अपना-अपना दावा पेश किया। दोनों धर्मों के लोग अपने रीति-रिवाज और परंपरा के अनुसार कबीर का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। हिन्दुओं ने कहा कि वो हिन्दू थे इसलिये वे उनके शरीर को जलाना चाहते है जबकि मुस्लिमों ने कहा कि कबीर मुस्लिम थे इसलिये वो उनको दफनाना चाहते है। लेकिन जब उन लोगों ने कबीर के शरीर पर से चादर हटायी तो उन्होंने पाया कि कुछ फूल वहाँ पर पड़े है। उन्होंने फूलों को आपस में बाँट लिया और अपने-अपने रीति-रिवाजों से महान कबीर का अंतिम संस्कार संपन्न किया। ऐसा भी माना जाता है कि जब दोनों समुदाय आपस में लड़ रहे थे तो कबीर दास की आत्मा आयी और कहा कि “ना ही मैं हिन्दू हूँ और ना ही मैं मुसलमान हूँ। यहाँ कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है। मैं दोनों हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ, और सब हूँ। मैं दोनों में भगवान देखता हूँ। उनके लिये हिन्दू और मुसलमान एक है जो इसके गलत अर्थ से मुक्त है। परदे को हटाओ और जादू देखो”।
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में प्रचलित कथन है कि कबीर को उपयुक्त गुरु की तलाश थी। वह वैष्णव संत आचार्य रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहते थे लेकिन उन्होंने कबीर को शिष्य बनाने से मना कर दिया लेकिन कबीर ने अपने मन में ठान लिया कि स्वामी रामानंद को ही हर कीमत पर अपना गुरु बनाऊंगा ,इसके लिए कबीर के मन में एक विचार आया कि स्वामी रामानंद जी सुबह चार बजे गंगा स्नान करने जाते हैं उसके पहले ही उनके जाने के मार्ग में सीढ़ियों  पर लेट जाऊँगा और उन्होंने ऐसा ही किया। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये एक किंवदन्ती के अनुसार शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरू कहा जाता है, कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।  वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे।
उन्होंने कहा “सूरज चन्द्र का एक ही उजियारा, सब यही पसरा ब्रह्म पसारा।” अवतार, मूर्त्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। अपनी इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए ; क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है। मगहर में उन्होंने अंतिम साँस ली। आज भी वहां स्थित मजार व समाधी स्थित है।
भारत वर्ष के इतिहास में इन दो महान (हिन्दू मुसलमान) धर्मों की विचारधारा को समान रूप से समन्वित करने वाला ऐसा महामानव कदाचित ही मिले आइये आज कबीर जयंती के पर्व पर हम अपने भीतर भी इनकी कुछ शिक्षाओं को अपनाकर अपने भावना रुपीपुष्प अर्पित करें कि आज के परिप्रेक्ष में कबीर बाबा को सच्ची श्रधांजलि होगी ।

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29 May 2017

भारत का महान सम्राट अकबर नही महाराणा प्रताप थे


राजस्थान की भूमि वीर प्रसूता रही है इस भूमि पर ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है जिन्होंने अपने देश की रक्षा में न केवल अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया बल्कि शत्रु दल को भी अपनी वीरता का लोहा मानने पर विवश कर दिया ।
लेकिन दुर्भाग्य ये रहा की हमारे देश का इतिहास ऐसे मुर्ख पक्षपातियों द्वारा लिखा गया जिन्होंने इन महान योद्धाओं के गौरव को निम्न आंकते हुए उन विदेशी लुटेरों को हमारा आदर्श बना दिया जो इस राष्ट्र के थे ही नहीं । आज अकबर को द ग्रेट अकबर(महान अकबर) कहा जाता है जबकि महान अकबर नहीं बल्कि महाराणा थे इस वीर योद्धा ने ये शपथ ली थी की अपनी मेवाड़ की भूमि को कभी गुलाम नहीं होने दूंगा अपने देश की रक्षा के लिए वो निरंतर अकबर से लोहा लेते रहे  ।
हम महाराणा के बारे में जानेंगे तो हमें मालूम होगा की अकबर द ग्रेट नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि महाराना प्रताप द ग्रेट कहा जाना चाहिए था। सात फिट दो इंच की हाईट इतना ही ऊँचा उनका भला जिसका वजन बहत्तर किलो और दो सौ किलो का कवच जिसे उठाकर  पहनने वाले महाराणा जब युद्ध क्षेत्र में चेतक पर बैठ कर युद्ध का उद्घोष  करते थे तो शत्रुओं के पैरो के नीचे की ज़मीन खिसक जाती थी और उनका नाम सुनते ही शत्रु दल की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे इतना बलशाली योद्धा इस भूमि पर हुआ है ।
कल्पना कीजिये प्रताप कितने शक्तिशाली रहे होंगे।  उन्होंने राज्य का लोभ त्यागा और वन में चले गये राज्य तो उनके पिता उदयसिंह सम्हाल ही रहे थे ।उन्होंने अपने आप को इस प्रकार सम्भाला कि कितनी ही प्रतिकूलताएं आई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी उदयपुर में अकबर ने सेना भेजी विधर्मी बनाने के लिए उस समय महाराणा के पास केवल 40 हजार सैनिक थे और अकबर की सेना में  सवा लाख योद्धा लेकिन जब युद्ध हुआ तो महाराणा के 40 हजार सैनिकों में से कुछ ही मरे होंगे और अकबर की सवा लाख सेना को इतनी बुरी तरीके से खदेड़ा गया की उन्हें जान बचाकर भागना पड़ा प्रताप अपने पूरे जीवन स्वतंत्र ही जिये और स्वतंत्र ही उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये । अकबर के साथ उनका पैंतीस साल तक संघर्ष चलता रहा । महाराणा को पराजित करने के लिए अकबर मोर्चे पर मोर्चे बनाता रहा बढ़ी बढ़ी सेनाएं और सेनानी  भेजता रहा लेकिन हर बार वो असफल रहा  यहाँ तक की अकबर खुद भी युद्ध में आया लेकिन उसे भी महाराणा के सामने मुंह की खानी पढ़ी महाराणा के पास कोई विशेष सेना नहीं थी बल्कि जंगल में रहने वाले भील और गरीब लोग थे  लेकिन उनमें देश भक्ति और देश प्रेम की भावना कूट–कूट कर भरी हुई थी ।
महाराणा के समय में कई राजपूत राजा थे जिन्होंने अकबर को शासन सौंप दिया था या तो फिर अधीनता स्वीकार कर ली थी लेकिन महाराणा ने ऐसा नहीं किया इतिहास कहता है की अकबर जब मरा तो उसे इसी बात का दुःख रहा  की वो महाराणा को परास्त नहीं कर सका इसे कहते है देश के लिए जीना देश के लिए मरना । ऐसे वीर सपूत को जनने वाली राजस्थानी भूमि तुम धन्य हो।

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25 May 2017

स्त्री और नदी का स्वच्छन्द विचरण घातक और विनाशकारी


स्त्री और नदी दोनों ही समाज में वन्दनीय है तब तक जब तक कि वो अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन नहीं करती । स्त्री का व्यक्तित्व स्वच्छ निर्मल नदी की तरह है जिस प्रकार नदी का प्रवाह पवित्र और आनन्द कारक होता है उसी प्रकार सीमा रेखा में बंधी नारी आदरणीय और वन्दनीय शक्ति के रूप में परिवार और समाज में  रहती है।  लेकिन इतिहास साक्षी है की जब –जब भी नदियों ने अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन किया है समाज बड़े-बड़े संकटों से जूझता नजर आया है। तथाकथित कुछ महिलाओं ने आधुनिकता और स्वतंत्रता के नाम पर जब से  स्वच्छंद विचरण करते हुए  सीमाओं का उल्लंघन करना शुरू किया है तब से महिलाओं की  स्थिति दयनीय और हेय होती चली गयी है । इसका खामियाज़ा उन महिलाओं को भी उठाना पढ़ा है जो समाज के अनुरूप मर्यादित जीवन जीती है इसका बहुत बढ़ा उदाहरण हमारा सिनेमा है जिसने समाज को दूषित कलुषित मनोरंजन देकर युवतियों को भटकाव की ओर धकेला है । समाज में आये दिन घटने वाली शर्मनाक घटनाएं जिनसे समाचार पत्र भरे पढ़े है सीमाओं के उल्लंघन के साक्षी है  रामायण कि एक घटना याद आती है कि जब लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा एक बार खींच दी गयी तो वह केवल एक रेखा मात्र नहीं बल्कि सामाजिक मर्यादा का प्रतिनिधित्व करने वाली मर्यादा की रेखा बन गयी थी। लक्ष्मण ने बाण से रेखा खींचकर उसे विश्वास रूपी मन्त्रों से अभिमंत्रित किया और राम की सहायता के लिए जंगल की ओर दौड़ पड़े सीता को हिदायत दी गयी कि वह रेखा पार न करे लेकिन विधि का विधान कुछ अलग ही था। रावण जैसा सिद्ध भी उस रेखा के भीतर नहीं जा सका था । लेकिन सीता ने जैसे ही लक्ष्मण रेखा पार की रघुकुल संकट में पड़ गया फिर जो हुआ वो सभी को विदित है। नारी जब तक सीमाओं में रहे कुल की रक्षा भगवान करते है एक बार मर्यादा की सीमा लांघी तो स्त्री पर पुरुष के विश्वास और स्त्री की अस्मिता और गरिमा का हरण तय है जब सीता जैसी सती को मर्यादा उल्लंघन का कठोर  कष्ट उठाना पड़ा यहाँ तक की दो बार वनवास भोगना पढ़ा । न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बताती है कि सीमाएँ रोज लांघी जा रही है क्योंकि कलियुग में लक्ष्मण रेखा धूमिल हो चुकी है।


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युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...