29 Dec 2023

कौन कहता है ..भगवान् आते नहीं

 मित्रों! प्रार्थना का बढ़ा महत्व है, किसी भी समस्या के निदान के लिए मन से की गई प्रार्थना भगवान् सारंगपाणि के सारंग से निकले अचूक बाण की तरह है जो सीधा अपने लक्ष्य अर्थात भगवान् के श्री चरणों तक पहुँचती है, फिर भगवान् भी प्रार्थी की समस्या का निदान किये बिना नहीं रह सकते। 

 लेकिन यह आवश्यकहै कि प्रार्थना केवल शब्दों का समूह न हो बल्कि उसमें हृदय की निश्छल और प्रेमाप्लावित भक्ति भी विद्यमान हो । जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प अपने प्रभाव को खो देता  हैं उसी प्रकार केवल शब्द-गुच्छ ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते उनमें प्रार्थी की पवित्र एवं परोकार ,दया व करुणा युक्त सुगंध होना अतिआवश्यक है तभी बात बनती है।

 प्रहलाद के हरि-संकीर्तन में हृदय का भाव क्या मिला कि ईश्वर नरसिंह के रूप में प्रकट हो गये। कृष्ण के लिए गोपियों का ऐसा ही भाव रहा होगा, क्योंकि गोपी गीत केवल शब्दों तक बंधा होता तो बात नहीं बनती लेकिन जब गोपियों की विरह-वेदना गोपी गीत के साथ जुड़ी तो गोविन्द प्रकट हो गये ।प्रार्थना ज्ञान का प्रतीक है और भाव निश्चलत प्रेम का प्रतीक है । जब ये दोनों मिलते हैं तो भगवान् को आना ही पड़ता है । 

 ईश्वर को केवल सच्ची भावयुक्त प्रार्थना के द्वारा ही रिझाया जा सकता है। जब हृदय से भाव उमड़ता है तो प्रार्थना के शब्द अश्रु बनकर नेत्रों को सजल कर देते हैं इसी स्थिति में परमात्मा प्रार्थना को स्वीकार करते हैं ।  प्रकृति के कण-कण में ईश्वर विद्यमान है । उसी की सत्ता से सूर्य,चन्द्र प्रकाशवान हैं । शीतल मंद पवन प्राणवायु के रूप में जीव मात्र को पोषित कर रही है, जल शरीर में नवीन चेतना का संचार कर रहा है ।

 प्रकृति का कण-कण उसी की सत्ता से जीवंत दिखाई देता है । प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है, पक्षियों के कलरव में, पहाड़ों के सन्नाटो में, वृक्षों की  शीतल छांव में, सागरों की शांत गहराईयों में, नदियों की कल-कल में ,निर्झर की झर-झर में परमात्मा मौजूद है । यदि हम ये नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, उत्सवी प्रार्थना परमात्मा से मिलाती है, शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं  है।

 जब प्रार्थी भावविभोर होकर ईश्वर को पुकारता है तभी भगवान प्रकट होते हैं । प्रार्थना में अद्भुत शक्ति होती है, सच्चे मन से की जाने वाली प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनते हैं जो उसे साफ मन से याद करते हैं, सच्चे प्रार्थी बन गये तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं ।

 जब तक हृदय की वीणा परमात्मा के विरह में झंकृत नहीं होती, जब तक प्रार्थी के प्रेमाश्रु अपने प्रेमी परमात्मा के लिए नही बहते तब तक प्रार्थना मात्र एक शब्दों का समूह  भर है लेकिन जब प्रार्थी विरह-वेदना से विभूषित हो आर्तभाव से अपने प्रेमी प्रभु को पुकारता है तो ईश्वर नंगे पैर दौढ़े चले आते हैं इस परिप्रेक्ष्य में गज और ग्राह्य की कथा सर्वविदित है।

 जब तक हमारे मन में ईश्वर प्राप्ति की प्यास नहीं जागेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा, धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं, अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है, परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जायें, उद्धव के प्रसंग में ठाकुर जी ने उस ऐश्वर्यज्ञानी को गोपांगनाओं के पास प्रेमाभाव की दीक्षा लेने के लिए भेजा है भगवान् कहते हैं “गच्छो उधौ ब्रजं सौम्य” इसलिये परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है।

 प्राणों से प्रेम के गीत उठते ही भगवान् प्रार्थी के पास दौड़े चले आते है, हम तो उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं, बिना पता-ठिकाने के जायें भी तो कहाँ जाएं? परन्तु जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं।

 इसी प्रकार जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी, छोटा शिशु जब पालने में रोता है तो माँ सहज ही दौड़ी चली आती है, इसी तरह सच्चे प्रार्थी के भजन में ऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते, क्योंकि सारि प्रार्थनाएँ तो तड़पते प्रार्थी के आंसुओं की ही छलकन हैं, इसलिए ‘हारिये न हिम्मत बिसारिये न प्रभु’। केवल प्रार्थना कीजिये । (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पंकज ‘प्रखर’

लेखक एवं विचारक

सुन्दर नगर,कोटा

विद्यार्थियों पर हावी ‘प्रतियोगी परिवेश की समस्याएँ और समाधान’

 आज प्रतियोगी परिवेश विद्यार्थियों के ऊपर जिस प्रकार हावी हो गया है उससे हम सभी परिचित है । सभी विद्यार्थी अपनी अच्छी रेंक लाने के लिए दिन-रात जी तोड़ मेहनत में लगे रहते हैं । लेकिन जब उन्हें मन मुताबिक़ सफलता नहीं मिलती तो उनका मन खिन्न हो जाता है और उन्हें बरबस ही मनोरोगों (साइकोलोजिकल डिसीज़) की ओर धकेल देता है ।

ज्यादातर विद्यार्थी अधिक परिश्रम व थकावट के कारण तनाव और चिंता के शिकार हो जाते हैं, जो पढ़ाई और परीक्षाओं पर असर डालता है। इससे बचने के लिए आवश्यक है स्वस्थ जीवन शैली अपनायें व स्वस्थ मनोरंजन के लिए भी समय निकालें । इसके अलावा अध्ययन का निश्चित समय प्रबंधन भी हमारी पढाई संबंधी चिंता को दूर कर सकता है।

कई बार विद्यार्थियों का पढ़ने में मन नहीं लगता बार-बार मन यहाँ-वहाँ जाता है। जिससे पढ़ाई में एकाग्रता नहीं आती । इसके लिए हमें पर्याप्त मात्रा में हल्का भोजन तथा अच्छे पर्यावरण में बैठकर बिना किसी चिंता के पढ़ना चाहिए । हमें अपने मन को मारना या दबाना नहीं है बल्कि इसे समझाना है साथ ही मन को एकाग्र करने के लिए हो सके तो थोड़े समय उस विषय को बोल-बोलकर पढ़ना चाहिए । इस प्रकार अपनी ही आवाज़ सुनकर अपना मन कहीं और जाने की जगह अपनी ही ओर लौटने लगता है ।

 ईश्वर का सबसे महत्वपूर्ण प्रसाद है आत्मविश्वास। भगवान के इस प्रसाद को आप जितना स्वीकार करते हैं ये उतनी ही मात्रा में बड़ने लगता है । आत्मविश्वास बड़ाने का सबसे अच्छा तरीका है अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों का बार-बार चिंतन करें और आगे भी अच्छा करते रहने के लिए स्वयं को बार-बार बोले । जब आपके द्वारा आपकी सफलता के लिए बोले गये शब्द आपके कान में जाते हैं तो आपका आत्मविश्वास पुष्ट होता है और एक नई ऊर्जा का अनुभव होता है ऊर्जा आपको आगे बड़ाने में सहायक होती है ।

इस प्रकार छोटी-छोटी युक्तियाँ अपनाकर मन को स्वस्थ रखा जा सकता है । यहाँ हमने उन सामान्य समस्याओं  पर चिंतन किया है जो सामान्यत: हर विद्यार्थी के जीवन में कम या ज्यादा मात्रा में देखने को मिलती हैं, फिर भी यदि आपके जीवन में समस्याएं बड़ रही हैं, तो तुरंत अपने माता-पिता, शिक्षकों, मार्गदर्शकों या मनोवैज्ञानिक सलाहकारों से मदद लें क्योंकि आपका जीवन अमूल्य है और उससे बड़कर कुछ भी नहीं है ।

परीक्षाओं में सफलता के सूत्र……

 परीक्षा एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही बड़े से बड़े व्यक्ति के मन मैं एक अनजाना भय व्याप जाता है ।अत: आज के लेख का उद्देश्य आपको परीक्षा संबंधी ऐसे चमत्कारिक सूत्र बताना है जिनसे आप कम मेहनत और बिना किसी रटन विद्या के अच्छे अंकों के साथ पास हो सकेंगे। कुछ ही दिनों में बोर्ड की वार्षिक परीक्षाएं शुरू होने जा रही हैं मित्रों अपने इतने वर्षों के शिक्षण काल में मैंने अनुभव किया है कि छात्र अथवा छात्रा वर्ष भर कढ़ी मेहनत करते हैं और अच्छे परिणाम प्राप्त करते हैं। लेकिन जैसे ही उनकी  वार्षिक परीक्षाएं आने को होती हैं वे घबराहट और तनाव में आ जाते हैं। जिसके कारण वो विद्यार्थी जो वर्ष भर अच्छा प्रदर्शन कर रहे थे। उनका वार्षिक परीक्षाओं में अध्ययन का स्तर गिरने लगता है अपनी योग्यतानुकूल परिणाम न प्राप्त कर पाने के कारण वो स्वयं को ठगा सा अनुभव करते हैं ,ये भावना उन्हें नकारात्मकता की ओर ले जाती है । किसी भी परीक्षा में सफल होने का सबसे प्रारम्भिक सूत्र है ..

आत्मविश्वास :आपका आत्म विश्वास ही एक मात्र ऐसा साधन है जिससे आप अपने नकारात्मक विचारों को समाप्त कर सकते है. मित्रों यदि आपने वर्ष भर पढ़ाई नहीं भी की है तब भी आपको घबराने की जरूरत नहीं है आप केवल अपने मनोबल को न गिरने दें और अभी  से पढ़ना शुरू कर दें । मैंने कुछ ऐसे छात्र भी देखे हैं जो वर्ष भर नहीं पढ़ते लेकिन परीक्षा के दिनों में उनकी सकारात्मक सोच और एकाग्रता पूर्वक कम समय में की गई पढाई उन्हें अच्छे परिणाम प्राप्त करवा देती है तो आप पूरे मनोबल के साथ आज से ही पढाई शुरू कर दें | जीवन में कुछ भी असम्भव नहीं है ये अपने मन में ठीक प्रकार से बिठा लें।

 तीक्ष्ण स्मरण शक्ति :-प्रत्येक मनुष्य की स्मरण शक्ति असीमित होती है मानव मस्तिष्क में इतनी योग्यता है की उसने सुपर कंप्यूटर तक का निर्माण कर दिया ऐसे में स्वयं की योग्यताओं को कम नहीं आंकना चाहिए । छात्रों को अपने पढ़े पाठों का रिवीजन पूरी एकाग्रता तथा मनोयोगपूर्वक करके अपनी स्मरण शक्ति को बढ़ाना चाहिए। छात्रों को अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पाठ्यक्रम को 3 से 4 बार पढ़ना कुछ भारी हो सकता है लेकिन जो लक्ष्य आपने निर्धारित किया है उसके नजदीक यह प्रयास आपको पहुँचा देगा अत: पूरे मनोयोग से पढ़े बोझ मानकर नहीं बल्कि मन से पढ़े, तो कम पढ़ने पर भी ज्यादा याद रहेगा ।

 पाठ्यक्रम को रटना नहीं समझना ज़रूरी है :आप जिस भी विषय को पढ़ रहे है उक्त विषय से सम्बन्धित बिन्दुओं को रटने की अपेक्षा समझने का प्रयास करें क्योंकि रटने से जो भी रटा है यदि उसमे से एक भी शब्द भूल गये तो आगे का उत्तर आप नहीं लिख पायेंगे जबकि आप यदि बिंदु को समझकर लिखते है तो आप अपनी भाषा में अपने शब्दों में भी प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम होंगे। महत्वपूर्ण विषयों या प्रश्नों की तैयारी करने की प्रवृत्ति आजकल छात्र वर्ग में देखने को मिल रही है। अगर आपका लक्ष्य 100 प्रतिशत अंक अर्जित करना है तो परीक्षा में आने वाले सम्भावित प्रश्नों के उत्तरों की तैयारी तक ही अपना अध्ययन सीमित न रखे।

 पेपर के पहले थोडा शांत रहें :- प्राय: देखा गया है की परीक्षा से लगभग 20 से 30 मिनट पहले सभी विद्यार्थी एक दुसरे से प्रश्नों या महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चाकरते नज़र आते हैं। इससे कुछ का तो आत्मविश्वास बढ़ जाता है और कुछ नकारात्मकता की ओर चले जाते हैं। उन्हें लगता है किवो अच्छे से तैयारी नहीं कर पाए हैं अत: पेपर से कुछ समय पूर्व किसी से भी कोई भी टॉपिकडिस्कस न करें अपनी तैयारी पर पूरा भरोसा करें और मन को शांत रखें ज्यादा बातें न करें और न ही ज्यादा रिविसिन करें। परीक्षा के 10 मिनट पहले पूर्ण रूप से शांत हो जाएँ।इससे आप अपने अंदर आत्मविश्वास अनुभव करेंगे फिर परीक्षा भवन में जाकर ईश्वर का नाम लें और लिखना शुरू करें।

 प्रश्न पत्र को भलीभांति समझ लें :कुछ छात्र घबराहट के कारण प्रश्न पत्र पर दिए गये निर्देश  एवं शब्द सीमा को ध्यान से नहीं पढ़ते है जिसके फलस्वरूप वो कई प्रकार की त्रुटियाँ कर बैठते हैं छात्रों को प्रश्न पत्र हल करने के पहले उसमें दिये गये निर्देशों को भली भाँति पढ़ लेना चाहिए। ऐसी वृत्ति हमें गलतियों की संभावनाओं को कम करके परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने की सम्भावना को बढ़ा देती है. इसलिए हमें प्रश्न पत्र के हल करने के निर्देशों को एक बार ही नहीं वरन् जब तक भली प्रकार निर्देश समझ न आये तब तक बारबार पढ़ना चाहिए।

प्रश्न-पत्र हल करने के लिए समय प्रबन्धन जरूरी :परीक्षा में उत्तर लिखना हमेशा उन प्रश्नों से प्रारम्भ करें जिनका जवाब आप को ठीक प्रकार से आता हो इन सरल प्रश्नों को हल करने में पूरी एकाग्रता के साथ अपनी ऊर्जा को लगाना चाहिए इससे आपका मनोबल बढ़ेगा जिन प्रश्नों का जवाब कठिन लगता है या नहीं आता है उनके लिए भी नकारात्मकतानहीं आने दें अपने मन में ये भाव रखें की इन प्रश्नों का उत्तर भी आएगा क्योंकि  एकाग्रता की स्थिति में कठिन प्रश्नों के उत्तरों का आंशिक अनुमान लग जाने की सम्भावना रहती है उन्हें छोडने की भूल न करें आपकी सकारात्मक सोच से कोई न कोई रास्ता निकलेगा आप परफेक्ट उत्तर नहीं लिख पायें तो न सही लेकिन कुछ  लिखने पर कुछ अंक को मिलेंगे जब की प्रश्न छोड़ देना मूर्खतापूर्ण कार्य होगा 

 सभी प्रश्नों को बराबर का समय दें :- प्राय: देखा जाता है कि अधिकांश छात्र अपना सारा समय उन प्रश्नों में लगा देते हैं जिनके उत्तर उन्हें अच्छी तरह से आते हैं. तथापि बाद में वे शेष प्रश्नों के लिए समय नहीं दे पाते। समय के अभाव में वे जल्दबाजी करते देखे जाते हैं और अपने अंकों को गॅवा बैठते हैं. छात्रों में कॉपी भरने की पृवृत्ति भी व्यापक रूप में देखी जाती है. विशेषकर हिंदी विषय में जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है कि कॉपी भर आने से आप पास हो जायेंगे आपको प्रश्नों का उत्तर देते समय शब्द सीमा का भी ध्यान रखना आवश्यक है अन्यथा शब्द सीमा से ज्यादा लिखना आपके लिए समय की बर्बादी हो सकता है परीक्षाओं में इस तरह की गलती करना छात्र वर्ग की सामान्य प्रवृत्ति बन गयी है जिससे बचना चाहिए एवं शब्द सीमा के अंदर ही अपने उत्तर देने चाहिए।

 सुन्दर लिखावट एवं मात्राओं का ज्ञान अनिवार्य :अंग्रेजी में एक वाक्य आता है फर्स्टइम्प्रैशन इस लास्टइम्प्रैशनयदि आप परीक्षक को प्रभावित करना चाहते है तो ये आवश्यक हो जाता है की आपको लिखावट और मात्राओं का व्यवस्थित ज्ञान हो क्योंकि आपकी लिखावट परीक्षक के ऊपर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का प्रभाव डालती है यदि आपने प्रश्नों का उत्तर सुंदर लिखावट एवं स्वच्छता के साथ लिखा गया है हालांकि  आपका उत्तर इतना सटीक नहीं है तब भी परीक्षक आपको आपकी लिखावट के आधार पर कुछ अंक दे सकते है लेकिन आपकी लिखावट सही नहीं है तो आपका उत्तर सही होते हुए भी आपको पूरे अंक मिलेंगे इसमें संदेह है. क्योंकि परीक्षक के पास अस्पष्ट लिखावट को पढ़ने का समय नहीं होता है। अत: परीक्षा में उच्च कोटि की सफलता के लिए अच्छी लिखावट एक अनिवार्य शर्त है।

 उत्तर पुस्तिका जमा करने के पूर्व :छात्रों को उत्तर पुस्तिका जमा करने के पूर्व 10 या 15 मिनट अपने उत्तरों को भलीभांति पढ़ने के लिए बचाकर रखना चाहिए। अगर आपने प्रश्न पत्र के निर्देशों का ठीक प्रकार से पालन किया है तथा सभी खण्डों के प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दिया  हैं तो यह अच्छे अंक लाने में आपकी मदद करेगा।

प्यारे विद्यार्थियों परीक्षाएं आपके व्यक्तित्व एवं आपकी मानसिक योग्यताओं को तराशती है इससे घबराकर तनाव में नहीं आना चाहिए बल्कि एक सशक्त योद्धा की तरह तैयारी करके इसका कुशलता पुर्वक सामना करना चाहिए। परीक्षाएं जितनी कठिन होंगी आपकी मेहनत के आधार पर आपको उतने ही मीठे फल देकर जायेंगी  परीक्षा के दिनों में सकारात्मक सोच रखना बहुत ही आवश्यक होता है. अगर हम अच्छा सोचते है तो अच्छा होता है और वही बुरा सोचते है तो बुरा होता है। इसलिए पॉजिटिव सोच रखना बहुत जरुरी है। यह आपको नकारात्मक विचारों से तो बचाएगा ही साथ ही साथ आपको पढाई के तनाव से भी दूर रखेगा।

पंकज प्रखर

कोटा

विद्यार्थी जीवन में संकल्प शक्ति की उपयोगिता एवं महत्व

 संकल्प एक ऐसी अद्भुत शक्ति का नाम है, जिसके माध्यम से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव नहीं है।जब विद्यार्थी पूरे मनोयोग से किसी कार्य को करने का संकल्प लेता है तो उसके मार्ग में आने वाले कंटक उसकी संकल्प शक्ति के आगे तृणवत् बह जाते हैं ।संकल्प का शाब्दिक अर्थ है दृढ़ता अर्थात पक्का इरादा। विद्यार्थी  को जीवन के सभी क्षेत्रों में संकल्प शक्ति कि आवश्यकता पड़ती है ।संकल्प की पूर्ति का प्रयास पूरे मन से किया जाए स्वयं पर और ईश्वर की कृपा पर विश्वास किया जाए तो असंभव कार्य भी सिद्ध होते देर नहीं लगती ।दृढ़-इच्छा शक्ति वाले विद्यार्थी  के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं या यूं भी कह सकते हैं कि दृढ़-इच्छा शक्ति से लबरेज़ विद्यार्थी के समक्ष समूची सृष्टि नतमस्तक रहती है ।

 मन को नियंत्रित करने और इच्छाओं को वश में करने से ही संकल्प शक्ति बढ़ती है, परंतु यदि मन मैं किसी के अहित की भावना, स्वार्थ या वासना प्रवेश कर जाए तो संकल्प शक्ति निर्बल होते देर नहीं लगती।इच्छाएँ जितनी कम शुद्ध, सात्विक और लोक-कल्याणकारी होंगी उतनी ही संकल्प शक्ति बलवान होगी

 यदि संकल्प शक्ति दृढ़ हो जाए तो दो अन्य शक्तियों का प्राग्ट्यस्वतः ही हो जाता है।इसमें पहली शक्ति है अनुमान शक्तिदूसरी है स्मरण शक्ति।संकल्प शक्ति का विकास करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने अंदर सहनशीलता, प्रसन्नता, सत्यता, दृढ़ता, धैर्य, और नियमित ध्यान जैसे गुणों को विकसित करें साथ ही असहनशीलता, अप्रसन्नता व चिड़चिड़ाहट, दुर्बलता और अधीरता जैसे दुर्गुणों से सतर्क रहें ।ऐसे प्रयास करते रहने से संकल्प में बल आता है तथा हमारे आस-पास के लोग भी हमसे प्रसन्न रहते हैं

 यदि कभी परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं भी हैं तो कोई बात नहीं आप परिस्थितियों को नहीं बल्कि अपनी मन:स्थिति को बदलने का प्रयास करें।किसी भी परिस्थिति से भागें नहीं बल्कि उसका सदुपयोग करते हुए प्रत्येक परिस्थिति में अपने आप को प्रसन्न रखने का स्वभाव बनाएँ।इससे हमारे व्यक्तित्व में तेजस्विता और प्रखरता का विकास होताहै।

 संकल्पों का चुनाव बड़ी सावधानी पूर्वक करें और सबसे पहले वे संकल्प लें जो थोड़े से प्रयत्न और आसानी से पूर्ण हो जाएँ क्योंकि यदि शुरुवात में ही बड़े संकल्प ले लेंगे तो उन्हें निभाने में परेशानियाँ आएंगी और यदि वे पूरे नहीं हुए तो हम हतोत्सा हो जाएँगे इसलिए पहले छोटे-छोटे संकल्पों का व्रत लें और पूरी तत्परता से उनको पूर्ण करें इस प्रकार धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाएँ

जो भी विद्यार्थी  किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना चाहता है उसके लिए ये भी आवश्यक है कि वह अपने मन -मस्तिष्क को शांत रखे अत्यधिक विचारों के प्रवाह से बचे अन्यथा संशय उत्पन्न होते हैं कि मेरा काम होगा या नहीं, मुझे सफलता मिलेगी या नहीं ऐसे विचारों से संकल्प बल कमजोर होने लगता है।

अत: सफलता के लिए मन को अनुशासित रखना आवश्यक होता है जितना अनुशासन होगा संकल्प में उतनी तेजस्विता आएगी और आशानुरूप सफलता प्राप्त होगी।

 किसी भी कार्य को करते हुए मन को शांत रखना और कर्म करते हुए ईश्वर में विश्वास रखना चाहिए। उन सफल लोगों का चिंतन करना चाहिए, जिन्होंने विकट परिस्थितियों पर जीत हासिल की और सरलता एवं सहजता को अपनी सफलता का माध्यम बनाया। जबकि ऐसे धूर्त और दुष्ट लोगों से दूरी बनानी चाहिए जिन्होंने दूसरों का हक मारकर सफलता प्राप्त कर समाज में अपना स्थान बनाया है ।

लोग हमेशा आपके लिए अच्छा सोचें सदैव आपका सम्मान हो ऐसी भावनाओं को मन में न आने दें क्योंकि जो विद्यार्थी  सात्विक आचरण करते हैं सही मार्ग पर चलते हैं प्राय: उनको ही समस्याएँ ज्यादा होती है इसलिए समस्याओं का स्वागत करें उनसे डरें नहीं । समस्याएँहमारे व्यक्तित्व में और सुधार लाती हैं साथ ही ये हमारे लिए सफलता का मार्ग भी खोल देतीं हैं ।

 अत: दृढ़ संकल्प के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें और दूसरों के लिए प्रेम, दया, करुणा एवं उदारता को अपने जीवन में उतारें तो निश्चित रूप से आप अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मैं सक्षम होंगे ।

 पंकज प्रखर  

कोटा 

विद्यार्थी जीवन का ‘अमृत काल’

विद्यार्थी जीवन एक महत्वपूर्ण और साथ ही संवेदनशील अवधि होती है जब आप नये ज्ञान और कौशल का अभ्यास करते हैं, संगठित रहते हैं औरआपके अभिभावक, शिक्षक, और साथी छात्रों का समर्थन होता है। यह ऐसा समय है जब आप अपनी क्षमताओं को विकसित कर सकते हैं, स्वयं का निर्माण कर सकते हैं और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए मेहनत कर सकते हैं।

इस प्रक्रिया के दौरान, यह महत्वपूर्ण है कि आप अपने जीवन को शानदार और सत्यापित करने के लिए कुछ निम्नलिखित सुझावों का पालन करें:

1.उच्चतम मानकों की प्राथमिकता दें: शिक्षा आपके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है, इसलिए अच्छी शिक्षा उच्चतम मानकों की प्राथमिकता देनी चाहिए। अपने विद्यालय/कॉलेज में नियमित रूप से पाठयक्रम का पालन करें, बाहरी साधनों का सही उपयोग करें और अपने शिक्षार्थी संगठनों और गतिविधियों में सक्रिय भाग लें।

2.संतुलित जीवनशैली बनाएं: स्वास्थ्य और तनाव का प्रबंधन अपने जीवन में महत्वपूर्ण होता है। नियमित रूप से व्यायाम करें, पौष्टिक आहार लें, पर्याप्त आराम करें और मनोरंजन का समय निकालें। एक संतुलित जीवनशैली आपके मन और शरीर को स्थिर और सक्रिय रखने में मदद करेगी।

3.नए अनुभव प्राप्त करें: अपने विद्यार्थी जीवन में, नए अनुभव प्राप्त करने का प्रयास करें। कक्षा के बाहर के कार्यक्रमों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों, सामाजिक कार्यों, और स्वयंसेवा के अवसरों में शामिल हों। नए लोगों से मिलें, नई बातें सीखें और नई परिस्थितियों का सामना करें। यह आपके अनुभवों को सामृद्ध करेगा और आपकी व्यक्तित्विक विकास में मदद करेगा।

4.निश्चित लक्ष्यों का निर्धारण करें: जीवन में सफलता के लिए लक्ष्यों को निर्धारित करना महत्वपूर्ण है। अपने शैक्षणिक और व्यक्तिगत लक्ष्यों को स्पष्ट करें और उन्हें पूरा करने के लिए संघर्ष करें। यह आपको मोटिवेट करेगा और आपके विद्यार्थी जीवन को संगठित बनाए रखेगा।

5.समय का उचित उपयोग करें: अपने विद्यार्थी जीवन में समय का महत्वपूर्ण रोल होता है। अपने समय को समझें और उसे उचित ढंग से प्रबंधित करें। नियमित अध्ययन करें, अपनी शक्तियों का सही उपयोग करें और अनावश्यक विलम्ब को कम करें। यह आपको प्रगति करने में मदद करेगा और समय प्रबंधन कौशल को स्थायी रूप से विकसित करेगा।

6.सक्रिय रहें और सही मार्गदर्शन प्राप्त करें: अपने विद्यार्थी जीवन में सक्रिय रहने का प्रयास करें। शिक्षकों, परिवार के सदस्यों, और मार्गदर्शकों की सलाह को सुनें और उनसे सही मार्गदर्शन प्राप्त करें। अपनी समस्याओं और संकटों को साझा करें और आपके चारों ओर के लोगों से सहायता लें।

इन सुझावों का पालन करके, आप विद्यार्थी जीवन को शानदार और सार्थक बना सकते हैं। याद रखें कि शिक्षा का महत्व आपके अग्रगामी जीवन में भी निरंतर रहेगा, इसलिए आपको इस मान्यता के साथ अपने लक्ष्यों की ओर प्रगति करना चाहिए। बेहतर शिक्षा आपको सामरिकता, सफलता, और सामूहिक उद्धार के लिए बेहतर तैयार करेगी।

आत्महीनता एक अभिशाप

किसी मनुष्य के सामान्य गुणों कि प्रशंसा कर उसे सम्मान देना तथा उसे और श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रेरित करना हम सभी मनुष्यों के मनुष्यत्व के विशेष गुणों को दर्शाता है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपने से पद या उम्र में छोटे व्यक्ति से दुर्व्यवहार करता है उसकी छोटी-छोटी गलतियों के लिए उसे भला बुरा कहता है या दूसरों का अपमान करने के अवसरों की तलाश में रहता है  तो वह व्यक्ति जाने अनजाने अपने ही ओछेपन का परिचय देता है। इस प्रकार का अमानवोचित व्यवहार दूसरे व्यक्ति के मन में आत्महीनता के रूप में सदा के लिए बैठ जाता है जिससे उबरने में कठिन परिश्रम और लंबा समय लगता है ।

मनुष्य के जीवन में सम्मान का बढ़ा महत्व है यदि व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए किसी कार्य हेतु सम्मान मिलता है तो उस व्यक्ति का मनोबल आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगता है तथा वह और सजगता से अपने कर्तव्यों के प्रति जागृत हो जाता है ।वहीं यदि किसी व्यक्ति को हर बात में रोका टोका जाये बात-बात में उसकी गलती बताई जाये तो चाहे कितना भी बुद्धिमान व्यक्ति क्यों न हो उसे अपने अंदर हीनता का भाव अनुभव होने लगता है और जब यह भाव धीर-धीरे उसके व्यक्तित्व में घर बना लेता है तो वह व्यक्ति के सभी गुणों को दीमक की भांति चट कर जाता है ।विद्यार्थियों के परिप्रेक्ष्य में भी यही बात आती है ।

आत्महीनताअर्थात अपनी योग्यता अपने ज्ञान के प्रति अविश्वास रखना और स्वयं को दूसरों की तुलना में गिरा हुआ मानना है यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो विद्यार्थियों के जीवन की भावी संभावनाओं को ध्वस्त कर देता है ।कहते हैं कि हाथी को अन्य प्राणी डील-डौल में उनके वास्तविक आकार-प्रकार से कहीं बड़े दिखाई देते हैं। उसकी आंख की बनावट ऐसी होती है कि वह अन्य प्राणियों का आकार कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर देखती है, इसी कारण हाथी दूसरे प्राणियों से भयभीत रहता है और सामान्यतः एकाएक किसी पर आक्रमण नहीं करता । इसी प्रकार आत्महीनता के कारण विद्यार्थियों अपने अंदर छुपी हुई संभावनाओं को भूल कर परिस्थितियों को उस प्रकार नहीं देखता जिस प्रकार की वह होती हैं बल्कि अपनी छोटी से छोटी समस्या को भी विकराल समझता है और एक प्रकार के अज्ञात भय से आतंकित रहता है ।

 इस प्रकार की मनोविकृति के कारण अधिकतर विद्यार्थियों मन ही मन स्वयं को तिरस्कृत करते रहते हैं और यह विकृति कब उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है उन्हें पता भी नहीं चलता और वे सही व उचित बात भी नहीं कह पाते इस प्रकार की मनःस्थिति का सबसे ज्यादा प्रभाव उनकी शिक्षा पर पड़ता है उन्हें एक डर लगा रहता है कि पता नहीं मैं परीक्षा में पास हो पाऊँगा या नहीं और ये डर ही उनकी योग्यता को निगल जाता है ।

विचारणीय है कि बच्चों में आत्महीनता की यह भावना कहाँ से क्यों उत्पन्न होती है? मनोविज्ञान इसके कई कारण बताता हैं। बच्चों को बचपन में आवश्यक स्नेह-सम्मान न मिल पाना, माता-पिता या अभिभावकों की और से उपेक्षा, उपहास का कारण बनते रहना या अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहना आदि ऐसे कारण हैं जो बचपन से ही ऐसी मानसिक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण बच्चे बड़े होकर भी आत्महीनता की महाव्याधि के शिकार बनते हैं। यहाँ तक ही नहीं कई बच्चे तो नशे की लत में पढ़कर अपना जीवन का नाश कर बैठते हैं ऐसे बच्चे जिन्हें माता-पिता का स्नेह नहीं मिला तथा जो अकेलेपन के शिकार हैं और बचपन से ही अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं उनमें चिंताजनक रूप में आत्महीनता की भावना पाई जाती है और प्रायः यही लोग पथभ्रष्ट होते हैं।

अतः उससे छुटकारा पाना अत्यंत आवश्यक है। परिस्थितियों को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की आदत और अपने आप को दूसरों के सामने छोटा, हेय, हीन समझने का स्वभाव आत्महीनता की भावना का प्रमुख लक्षण है। इस व्याधि को जड़-मूल से मिटाने हेतु आवश्यक है कि हम उचित और अनुचित की पहचान कर सकें और अपने मनोबल को इतना दृढ़ करें कि समय आने पर हम उचित को ही अपनाएँ और अनुचित का दृढ़ता से बहिष्कार और विरोध कर सकें सहमत होना और हां कहना अच्छी बात है, पर वह इतनी अच्छी बात नहीं है कि यदि कोई बात अनुचित लग रही है और अनुचित लगने के पर्याप्त कारण हैं, तो भी हां किया ही जाए और सहमत हुआ ही जाए। स्पष्ट रूप से, निःसंकोच भाव से अस्वीकार करने की हिम्मत भी रखनी चाहिए। सोच-विचार करने में यह बात भी सम्मिलित रखनी चाहिए कि हर सही-गलत बात में हां-हां करते रहने से दूसरों की दृष्टि में अपने व्यक्तित्व का वजन घट जाता है और आत्मगौरव को ठेस पहुंचती है।

एक मानसिक रूप से परिपक्व व्यक्तित्व वही है जो अपने विचारों को स्पष्ट किंतु नम्र और संतुलित शब्दों में व्यक्त कर सके ।मनुष्य ईश्वर का पुत्र है और वेदों, पुराणोंमें ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न कहा गया है तो जब हमारे पिता परमात्मा हैं तो हम हीन कैसे हो सकते है हमारे अंदर भी अनेकानेक महत्वपूर्ण योग्यताएं विद्यमान है जैसे ही ये भाव हम अपने मन में लाते है हमारे क्षुद्र विचार तिरोहित होने लगते है कुंठाओं की गांठ खुलने लगती है ,आवश्यकता बस यह है कि हम इस चिंतन को निरंतर बनाए रखें ।


माता-पिता बच्चों में नैतिकता और अपनापन विकसित करें

 संसार के प्रत्येक माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान सभ्य एवं सुसंस्कृत बने और परिवार व समाज में उनके सम्मान का कारण बने लेकिन बहुत से माता-पिताकी ये इच्छा केवल एक स्वप्न बनकर रह जाती है, मनोनुकूल संतान न बन पाने के कारण माता-पिता की वृद्धावस्था दुखपूर्ण और अतृप्त व्यतीत होती है इस समस्या के निराकरण के लिए क्या होना चाहिए ?  ऐसा क्या किया जाये की बच्चों में नैतिकता और अपनापन विकसित हो सके साथ ही साथ वह हमारे विचारों से भी जुड़ें ?

 

देखा जाए तो इस समस्या का समाधान स्वयं माता-पिता के बच्चे के प्रति व्यवहार में ही छुपा हुआ है। यदि माता-पिता बच्चे के प्रति  कठोर अथवा असंतुलित व्यवहार रखेंगे और बच्चों के मनोभावों को न समझते हुए केवल अपने आदेशों का पालन करायेंगे तो बात बनने वाली नहीं है, अपितु कुछ समय तक आपकी आज्ञा मानने वाला बच्चा किशोरावस्था तक आते-आते बाग़ियों जैसा व्यवहार करने लगेगा उसकी कुंठा उसे घोर निराशा की ओर ले जाएगी।

ख़ासकर माता-पिता के ऊपर बच्चों में अच्छी आदतें डालने उन्हें सुयोग्य बनाने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है आप उसे जिस ढांचे में ढालना चाहते हैं ढाल सकते हैं क्योंकि उसके मनोभावों को आप जितना जानते हैं उतना उसका शिक्षक नहीं जानता शिक्षक बच्चे में नए विचार रूपी बीज आरोपित कर सकता है लेकिन उन विचारों का संवर्धन  करने उन्हें एक विशाल वृक्ष के रूप में स्थापित करने का कार्य माता-पिता का ही होता है और सभी माँ-बाप यह चाहते भी हैं कि उनके बच्चे योग्य बनें ।

किंतु बच्चों का निर्माण कैसे हो हम उनमें संस्कारों और मानवोचित व्यवहार के गुण किस प्रकार विकसित करें यह एक पेचीदा प्रश्न है।

इसके लिए माता-पिता में परिपक्व विचारशीलता, विवेक, संजीदगी एवं थोड़ी बहुत बाल-मनोविज्ञान की समझ होना आवश्यक है। बहुत से माता-पिता तो बच्चों को पैदा करने, खिलाने-पिलाने, स्कूल आदि में पढ़ने की व्यवस्था तक ही अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री समझते हैं| इससे बच्चों के निर्माण की संपूर्ण समस्या का हल नहीं होता। बच्चों में अच्छी आदतें डालना उनमें सद्गुणों की वृद्धि करके सुयोग्य बनाना एक महत्वपूर्ण कार्य है।

 

यह असुरता से देवत्व उत्पन्न करने पशुत्व को मनुष्यता में बदलने की प्रक्रिया है। बच्चों को प्यार करना खिलाना, पिलाना, उसका संरक्षण करना तो पशुओं में भी पाया जाता है। बच्चों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता, चिड़चिड़ाहट, स्वेच्छाचार एवं अन्य बुराइयों की जिम्मेदारी बहुत कुछ माता-पिता के ऊपर ही होती है क्योंकि बच्चा दिनभर का एक लंबा समय माता-पिता के साथ उनके द्वारा घर-परिवार में बनाए गए वातावरण में ही बिताता है तो जो कुछ भी बच्चे की आदतें और विचार होते हैं उनमें से बच्चे में 80 प्रतिशत क्रियाकलाप,आचार-विचार,व्यवहारमाता-पिता और परिवार के द्वारा बनाए गए माहौल से ही आए होते हैं।

 

विद्यालय में जो कुछ बच्चा सीखता है वो किसी गमले में बीज बोने तक की क्रिया मात्र है उस बीज का संरक्षण करना उसे उसके अनुकूल वातावरण प्रदान करना गमले के मालिक का काम है। यदि उस बीज की देखभाल व्यवस्थित रूप और सावधानीपूर्वक न हो तो वह स्वतः ही नष्ट हो जाएगा।

परिवार या माता-पिता की सामान्य-सी गलतियों, व्यवहार की छोटी-सी भूलों के कारण बच्चों में बड़ी-बड़ी बुराइयां पैदा हो जाती हैं और अनेक बुरी आदतें बच्चों में पड़ जाती हैं। स्वयं मां-बाप जो कुछ भी कह सुन रहे होते हैं तथा वह जिसे सुधार समझते हैं वही बात बच्चों के बिगड़ने का कारण बन जाती है। अतः बच्चों के प्रति संतुलित व्यवहार होना आवश्यक है जिसमें कुछ आप बच्चों की सुनें और कुछ बच्चे आप की सुनें, कुछ आप बच्चों की मानें  और कुछ बच्चे आपकी मानें यदि यह संतुलित क्रम चलता रहे तो निश्चित ही अच्छे परिणाम आ सकते हैं।

अपने बच्चों को भावनात्मक रूप से जोड़ें उन्हें अपने जीवन में उनकी अहमियत अनुभव कराएं और केवल उनके माता-पिता ही न बने रहें बल्कि धीरे-धीरे उनके मित्र बनते जाए।

 

बच्चे के व्यक्तित्व की सर्वांगीण उन्नति के लिए उचित वातावरण और आवश्यक परिस्थितियाँ पैदा करना माता-पिता का सर्वोच्च कर्तव्य है क्योंकि बच्चों में जन्म से ही कुछ गुण-अवगुण विद्यमान होते हैं उसी के अनुसार उनका व्यक्तित्व ढलता जाता है । बालक सबसे पहले घर के वातावरण से प्रभावित होता है ।

घर एक प्राथमिक पाठशाला होती है जिसमें माता-पिता बच्चों के गुरु होते हैं । अपने माता-पिता  के जीवन का बालक पर बहुत गहरा असर पड़ता है । यदि माता-पिता का गृहस्थ जीवन सुखी नहीं है तो बच्चा कभी भी सुखी नहीं रह सकता है । यदि घर में हमेशा कलह-क्लेश मची रहती है, माता-पिता की आपस में अनबन रहती है तो बालक पर इसका गलत प्रभाव पड़ता है और वह अपने भावी सामाजिक जीवन में असफल रहता है । आपस में लड़ने-झगड़ने वाले माता-पिता बालक को एक अच्छा नागरिक नहीं बना सकते । अतः बच्चों को समाज का उत्तम नागरिक बनाने के लिए माता-पिता को उत्तम माता-पिता बनना चाहिए । क्योंकि जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पैदा होगा ।

पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’

लेखक एवं विचारक

कोटा, राज.

 

28 Dec 2023

जब तुझसे मिलने आते थे ( कविता)

 

कितने ख्वाब सजाते थे

जब तुझसे मिलने आते थे ।


तेरी एक हँसी के आगे


अपने गम भूल जाते थे,


कितने ख्वाब सजाते थे


जब तुझसे मिलने आते थे ।


                

                चाँद को दावत देते थे

                

                 ये तारे मुँह फुलाते थे,

                

                कितने ख्वाब सजाते थे

                

                जब तुझसे मिलने आते थे ।

                

                

                रात की रानी महकती थी छूकर तुझको


 जुगनू चमकना भूल जाते थे,


 कितने ख्वाब सजाते थे


 जब तुझसे मिलने आते थे ।



एक शोखी हम पर आती थी

                

                जब तेरा झूठा खाते थे,

                

                कितने ख्वाब सजाते थे

                

                जब तुझसे मिलने आते थे ।

 

   बाहर जाना भूल चुके थे

तेरे सपनों में आते थे, 

कितने ख्वाब सजाते थे

        जब तुझसे मिलने आते थे ।


पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’
कोटा, राज.

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