10 May 2016

नैतिक मूल्य और आज का युवा

भारत वर्ष विश्व में एक मात्र ऐसा देश है, जिसने जीवन मूल्यों की स्थापना की ये वो देश है जिसने समूचे विश्व को नैतिकता और आदर्शों का पाठ पढ़ाया, नैतिकता और उच्च आदर्श एक तरह से भारतीय संस्कृति की पहचान व पुरखों से विरासत में मिली अनमोल धरोहर हैं।
लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये बातें बे-मानी सी ही गयी है यह समय आदर्शों और नैतिक मूल्यों के पतन का समय है। ये वो समय है जब व्यक्तिव्यक्ति से कटता जा रहा है व्यक्ति अपने किंचित लाभ को प्राप्त करने के लिए दूसरे को हानि पहुँचाने पर आमादा है । मानवीय संवेदनाएं लगभग समाप्त होने को है । परिवार है पर पारिवारिक नहीं है ,समाज है पर सामाजिकता नहीं बची है, और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित  है “युवा “ वो युवा जो आने वाले समय में इस गौरव शाली राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करेगा वर्तमान “युवा” पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ में लगा हुआ है  युवाओं का रुष्ट और रूखा व्यवहार,बड़ों के प्रति अनादर, कुतर्क, मनमानी यह सब दर्शाता है कि युवाओं में नैतिक मूल्यों का स्तर किस हद तक गिर चुका है।
वो युवा जो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य है । आज से कुछ दशक पूर्व, अपने बड़ों का आदर करना, उन्हें उचित प्रेम देना कर्तव्य माना जाता था, लोग मिलनसार थे, रिश्तों में गरमाहट थी, लेकिन यह कहते हुए भी लज्जा आती है के जिन बूढ़े माँ- बाप ने पाल पोस कर बड़ा किया  वही माँ- बाप आज बच्चों पर बोझ हैं मोबाइल फ़ोन में युवा इतने मग्न हैं की मेल मिलाप के लिए वक़्त ही कहाँ आज युवाओं के पास 2 घंटे बैठकर अपना स्टेटस अपडेट करने का समय है लेकिन वो थोड़ी देर अपने माता पिता के साथ बैठकर अपना समय ख़राब करने को तैयार नहीं है , और रिश्ते तो आजकल फेसबुक पर बनते हैं तो गर्मजोशी  का कोई सवाल ही नहीं उठता।
संवेदनहीनता की हद तो इस बात से आंकी जा सकती है की सड़क पर तड़पते हुए घायल की जान बचाने के बजाय हमारे युवा उसकी दर्दनाक तस्वीर अपने स्मार्ट फ़ोन के कैमरों में कैद करने को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं, ताकि उसे व्हाट्सअप  पर अपलोड कर सकें और बाकी  के युवक संवेदनशीलता का स्वांग रचाते हुए बड़ी फुर्ती से उस पर लाइक और कमेंट्स करते हैं। छोटी सी उम्र में ही युवा वह सब कुछ करना चाहते हैं, वह सब कुछ पाना चाहते हैं जो ना ही उनके लिए उचित हैं और ना ही उसका अभी वक़्त आया है। इन्टरनेट ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी मासूमियत को छीन लिया ।धूम्रपान , शराब , पैसा, अय्याशी सब कुछ और वह भी शॉर्टकट से. ऐशो- आराम की महत्वकांषा ऐसी की थोड़े से पैसों के लिए “युवा ”कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार है। युवाओं की मानसिकता ये हो गयी है की जीवन में सब कुछ पैसा ही है , इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने की ललक उनके चेहरों पर साफ़ झलकती है। न जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं जो रोज़ अख़बारों में छपते हैं और हमारे आस-पास घटित होते हैं, जो दर्शाते हैं के युवा किस हद तक खुद को भुला चुके हैं गिर चुके हैं, और सबसे ज़्यादा तकलीफ तो इस बात की होती है के न तो उन्हें इसकी भनक है और न ही अफ़सोस, मदहोश युवा किसी पागल हाथी की तरह अपने रस्ते में आने वाली हर चीज़ को रौंदते कुचलते हुए वे आसमानों में उड़ रहे हैं इस बात से बेखबर के जब ज़मीन पर गिरेंगे तो क्या होगा।
कैसी विडम्बना है यह ? जिस भूमि पर "मर्यादा पुरुषोत्तम" श्री राम और अर्जुन जैसे "महान शिष्य" का जन्म हुआ उस ही धरा पर आज हर दूसरे क्षण मर्यादा लांघी जा रही है, आये दिन गुरुओं को अपमानित किया जाता हैऔर कड़वा सच तो देखिये हमारे आज के युवाओं को तो "आदर्श" ,"उद्देश्य" और "सिद्धांत" का मतलब भी ज्ञात नहीं और उसकी इस ही अनैतिकता के चलते हर रोज़ समाज पतन की नई गहराइयाँ नाप रहा है। बड़े ज़ोर-शोर से चारों तरफ गिरते नैतिक मूल्यों की चर्चा होती है सभाओं में , टेलीविज़न पर, अखबारों में बड़े-बड़े विद्वान ,प्रख्यात, प्रकांड पंडित ज्ञान का बघार लगाते हैं, चिंता जताते हैं और घर चले जाते हैं। आज तक सभी ने विचार ही किया लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाया।
अगर ईमानदारी से सोचें तो पाएंगे की इस महान समस्या को फ़ैलाने वाले कोई और नहीं अपितु हमारे बड़े ही हैं, समाज में गिरती नैतिकता केवल पतन का ही नहीं बल्कि बड़ों की असफलता का भी प्रतीक है, असफलता विश्व की सबसे कीमती धरोहर अपनी नयी पीढ़ी को न दे पाने की अपने बच्चों को अच्छे संस्कार और शिक्षा देने के बजाय उनके हाथों में लैपटॉप और इंटरनेट थमा दिए, ज़रा बड़े हुए नहीं के महंगे मोबाइल और गाड़ियां दिला दी और समझ लिए के हमने हमारा फ़र्ज़ पूरा कर दिया। एक बच्चा कोरे कागज़ की तरह होता है और उस कागज़ पर नैतिक मूल्यों और अच्छी आदतों की तहरीर लिखना मात- पिता का फ़र्ज़ है पर माता-पिता अपनी निजी ज़िन्दगी में ही इतने व्यस्त हो गए कि ये भूल ही गए कि वे किसी के माता-पिता भी हैं, अपनी व्यस्तताओं में इस बात का ध्यान ही नहीं रहा की उनके बच्चों की देश की अगली पीढ़ी को असली ज़रूरत क्या हैं? कल राष्ट्र की कमान युवाओं के हाथों में होगी. क्या संभालेंगे देश को जो खुद ही को नहीं संभल सकते। गहरी नींद से जागने का वक़्त अब आ चूका है. ज़रूरत है युवाओं पर दोष मढ़ने के बजाय बड़े इस और कुछ सार्थक कदम उठाये ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अपने बच्चों के साथ युवाओं के साथ व्यतीत करें. उन्हें  उचित मार्गदर्शन दे देश के सांस्कृतिक गौरव से अवगत कराएं और युवाओं को भी आवश्यकता है समझने की अपने आप को और अपने देश को, पाश्चात्य रंगो में रंगने के  बजाय अपनी पहचान बनाने के प्रयत्न करने होंगे।         सर्वाधिकार सुरक्षित








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