29 Dec 2023

कौन कहता है ..भगवान् आते नहीं

 मित्रों! प्रार्थना का बढ़ा महत्व है, किसी भी समस्या के निदान के लिए मन से की गई प्रार्थना भगवान् सारंगपाणि के सारंग से निकले अचूक बाण की तरह है जो सीधा अपने लक्ष्य अर्थात भगवान् के श्री चरणों तक पहुँचती है, फिर भगवान् भी प्रार्थी की समस्या का निदान किये बिना नहीं रह सकते। 

 लेकिन यह आवश्यकहै कि प्रार्थना केवल शब्दों का समूह न हो बल्कि उसमें हृदय की निश्छल और प्रेमाप्लावित भक्ति भी विद्यमान हो । जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प अपने प्रभाव को खो देता  हैं उसी प्रकार केवल शब्द-गुच्छ ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते उनमें प्रार्थी की पवित्र एवं परोकार ,दया व करुणा युक्त सुगंध होना अतिआवश्यक है तभी बात बनती है।

 प्रहलाद के हरि-संकीर्तन में हृदय का भाव क्या मिला कि ईश्वर नरसिंह के रूप में प्रकट हो गये। कृष्ण के लिए गोपियों का ऐसा ही भाव रहा होगा, क्योंकि गोपी गीत केवल शब्दों तक बंधा होता तो बात नहीं बनती लेकिन जब गोपियों की विरह-वेदना गोपी गीत के साथ जुड़ी तो गोविन्द प्रकट हो गये ।प्रार्थना ज्ञान का प्रतीक है और भाव निश्चलत प्रेम का प्रतीक है । जब ये दोनों मिलते हैं तो भगवान् को आना ही पड़ता है । 

 ईश्वर को केवल सच्ची भावयुक्त प्रार्थना के द्वारा ही रिझाया जा सकता है। जब हृदय से भाव उमड़ता है तो प्रार्थना के शब्द अश्रु बनकर नेत्रों को सजल कर देते हैं इसी स्थिति में परमात्मा प्रार्थना को स्वीकार करते हैं ।  प्रकृति के कण-कण में ईश्वर विद्यमान है । उसी की सत्ता से सूर्य,चन्द्र प्रकाशवान हैं । शीतल मंद पवन प्राणवायु के रूप में जीव मात्र को पोषित कर रही है, जल शरीर में नवीन चेतना का संचार कर रहा है ।

 प्रकृति का कण-कण उसी की सत्ता से जीवंत दिखाई देता है । प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है, पक्षियों के कलरव में, पहाड़ों के सन्नाटो में, वृक्षों की  शीतल छांव में, सागरों की शांत गहराईयों में, नदियों की कल-कल में ,निर्झर की झर-झर में परमात्मा मौजूद है । यदि हम ये नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, उत्सवी प्रार्थना परमात्मा से मिलाती है, शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं  है।

 जब प्रार्थी भावविभोर होकर ईश्वर को पुकारता है तभी भगवान प्रकट होते हैं । प्रार्थना में अद्भुत शक्ति होती है, सच्चे मन से की जाने वाली प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनते हैं जो उसे साफ मन से याद करते हैं, सच्चे प्रार्थी बन गये तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं ।

 जब तक हृदय की वीणा परमात्मा के विरह में झंकृत नहीं होती, जब तक प्रार्थी के प्रेमाश्रु अपने प्रेमी परमात्मा के लिए नही बहते तब तक प्रार्थना मात्र एक शब्दों का समूह  भर है लेकिन जब प्रार्थी विरह-वेदना से विभूषित हो आर्तभाव से अपने प्रेमी प्रभु को पुकारता है तो ईश्वर नंगे पैर दौढ़े चले आते हैं इस परिप्रेक्ष्य में गज और ग्राह्य की कथा सर्वविदित है।

 जब तक हमारे मन में ईश्वर प्राप्ति की प्यास नहीं जागेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा, धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं, अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है, परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जायें, उद्धव के प्रसंग में ठाकुर जी ने उस ऐश्वर्यज्ञानी को गोपांगनाओं के पास प्रेमाभाव की दीक्षा लेने के लिए भेजा है भगवान् कहते हैं “गच्छो उधौ ब्रजं सौम्य” इसलिये परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है।

 प्राणों से प्रेम के गीत उठते ही भगवान् प्रार्थी के पास दौड़े चले आते है, हम तो उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं, बिना पता-ठिकाने के जायें भी तो कहाँ जाएं? परन्तु जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं।

 इसी प्रकार जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी, छोटा शिशु जब पालने में रोता है तो माँ सहज ही दौड़ी चली आती है, इसी तरह सच्चे प्रार्थी के भजन में ऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते, क्योंकि सारि प्रार्थनाएँ तो तड़पते प्रार्थी के आंसुओं की ही छलकन हैं, इसलिए ‘हारिये न हिम्मत बिसारिये न प्रभु’। केवल प्रार्थना कीजिये । (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पंकज ‘प्रखर’

लेखक एवं विचारक

सुन्दर नगर,कोटा

No comments:

Post a Comment

युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...