11 Jan 2024

युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

 जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद विवेकानंदबनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक संपन्न परिवार में हुआ । नरेंद्र पूर्व के संस्कारों और पश्चिम की सभ्यता का समन्वय थे, क्योंकि  इनके पिता पाश्चात्य संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे, जबकि इनकी माता भारतीय सनातन संस्कृति के संस्कारों और आध्यात्मिक ज्ञान से अविभूत एक भारतीय नारी थी । जिनका ज्यादातर समय आध्यत्मिक वार्तालाप आदि में बीतता था ।

 नरेंद्र पर अपनी माँ के द्वारा दिए गये संस्कारों का अत्यधिक प्रभाव था । अपने गुरु ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के ज्ञान और माँ के संस्कारों का ही प्रभाव था कि अपने सिर्फ़ 40 वर्षों के जीवन काल में उन्होंने ऐसे कार्य किये जिसने समाज और समूचे देश को नई दिशा दी, नई चेतना दी, और आज इतने  वर्षों बाद भी उनके विचारों और आदर्शों की प्रासंगिकता बनी हुई है ।

 नरेंद्र के जीवन में दुःख और संकट के बदल तब उमड़ आये जब उनके पिता का देहावसान हो गया। घर चलाने के पर्याप्त साधन उनके पास नहीं थे। ऐसी परिस्थितियों में भी नरेंद्र ने बड़ी शांति और हिम्मत से काम लिया मुझे वो घटना याद आती है जिसमे नरेंद्र नौकरी मांगने के लिए अपने एक रिश्तेदार के पास जाते हैं । वह रिश्तेदार उनको बोलता है कि तुम रामकृष्ण परमहंस के पास चले जाओ, वह तुम्हे किसी मंदिर की सेवा दिला देंगे, और तुम्हारा गुजरा चल जाएगा।

 नरेंद्र तब तक विवेकानंद नहीं हुए थे।  नरेंद्र एक नौकरी की अभिलाषा लेकर परमहंस के पास गये, और उन्होंने परमहंस से कहा कि मुझे एक नौकरी दे दो, मैं बहुत गरीब हूँ, परमहंस ने नरेंद्र को देखा और मुस्कुरा दिए, आँखों से इशारा करते हुए बोले- वह सामने काली माता खड़ी है, उनसे बोल दे वो दे देगी।विवेकानन्द ने जाकर जैसे ही काली माता की प्रतिमा को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गये और जो  माँगने आये थे उसे भूल कर अपने लिए सद्बुद्धि और देश सेवा माँगने लगे। ऐसा उनके साथ एक बार नहीं कई बार हुआ। जैसे ही वह नौकरी बोलने का प्रयत्न करते उनके मुँह से देश सेवा और सद्बुद्धि प्राप्त करने की बात ही निकलती ।

 अंत में वे परमहंस के पास आये सारी घटना उनको बताई । तब परमहंस बोले तुम्हारा जन्म एक ऊँचे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुआ है। परमहंस ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और उनके सानिध्य में रहकर नरेंद्र ने अध्यात्म के कई सोपान पार किये। उनकी सूक्ष्म उपस्थिति आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है।

 स्वामी विवेकानंद हम युवाओं के लिए एक कुछ महत्वपूर्ण काम छोड़कर गये हैं । उन्हें गये हुए एक शताब्दी से ज्यादा समय हो गया लेकिन उनका काम अभी भी अधुरा है, जिसे हमें पूरा करना है और वह कार्य क्या है की हम जहाँ हैं, जैसे हैं, वहीँ कुछ श्रेष्ट कार्य करें, जिससे समाज और राष्ट्र का उत्थान हो ऐसा कार्य करें ।

 स्वामी जी ने अपने जीवन काल में जब की देश गुलाम था और समाज में  अस्प्रश्यता, जातिवाद, अन्धविश्वासजैसी कुरीतियाँ व्याप्त थी और राजे रजवाड़े मार काट में लगे हुए थे उस समय विवेकानंद ने कहा था कि, मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ के भारत वर्ष फिर से विश्वगुरु के पद पर आसीन होने जा रहा है उनकी अंतर दृष्टी कितनी सूक्षम रही होगी।

 हम परम सौभाग्यशाली है कि वर्तमान समय में हम विश्व के सबसे युवा देश है भारत की 65 % से अधिक जनसंख्या युवा है और आने वाले समय में 24 करोड़ नये युवा देश में होने वाले है । ऐसे में देश के युवाओं को सकारात्मकता का अवलंबन लेते हुए स्वयं को कठिन से कठिन परिस्थितियों से लड़ने के लिए सशक्त बनने की आवश्यकता है।

 एक प्रसंग मुझे याद आता है जिसे स्वामी जी कई बार सुनाते थे कि बनारस में स्वामी विवेकनन्द जी मां दुर्गा के मंदिर से निकल रहे थे कि तभी वहाँ मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया। वे उनसे प्रसाद छिनने लगे वे उनके नज़दीक आने लगे और डराने भी लगे। स्वामी जी बहुत भयभीत हो गए और खुद को बचाने के लिए दौड़ कर भागने लगे। वह बन्दर तो मानो पीछे ही पड़ गए और वे भी उन्हें पीछे-पीछे दौड़ाने लगे। पास खड़े एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहे थे, उन्होनें स्वामी जी को रोका और कहा रुको! डरो मत, उनका सामना करो और देखो क्या होता है।

 वृद्ध सन्यासी की ये बात सुनकर स्वामी जी तुरंत पलटे और बंदरों के तरफ बढऩे लगे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उनके ऐसा करते ही सभी बन्दर तुरंत भाग गए। उन्होनें वृद्ध सन्यासी को इस सलाह के लिए बहुत धन्यवाद किया।

इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बार कार्यक्रमों में इसका जिक्र भी किया और कहा यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो, तो उससे भागो मत, पलटो और सामना करो।

 वाकई, यदि हम भी अपने जीवन में आयी समस्याओं का सामना करें और उससे भागें नहीं तो बहुत-सी समस्याओं का समाधान हो जायेगा! वह कहते थे- मुसीबतों से भागना बंद कर दो ।

 आज हम चाहे तो स्वामी जी के स्वप्न को सच कर सकते है भारत को विश्व गुरु के पद पर आसीन कर के बस आवश्यकता है तो संकल्प शक्ति की। स्वामी जी कहते थे कि मनुष्य के मस्तिष्क में अनेकों संभावनाएं छुपी हुई हैं लेकिन हम अपने वास्तविक योग्यताओं को समझ ही नहीं पाते और भीरुता,नकारात्मक विचारों में खोये रहते हैं।

 मुझे एक कहानी याद आ रही है एक शेरनी थी, वो गर्भवती थी, एक शिकारी उसके पीछे शिकार के लिए दौड़ा और उसने उस पर बाण चलाया शेरनी गिर पड़ी और उसके गर्भ से बालक बाहर निकल आया जिसका पालन  पोषण हिरनों ने अपने झुण्ड में रखकर किया वो शेरनी का बच्चा हिरनों के झुण्ड में रहता और उन्हीं के जैसा आचरण करता एक दिन एक शेर ने हिरनों के झुण्ड को देखा और वो शिकार की इच्छा से उन पर कूद पड़ा तब उसने देखा की हिरनों के झुण्ड के साथ एक शेरनी का बच्चा भी जान बचाकर भाग रहा है।

 उसने हिरनों को तो छोड़ दिया और शेरनी के बच्चे को पकड़ कर उससे पूछा कि भाई तुम क्यों डरकर भाग रहे हो । उस बच्चे ने बोला- मैं भी तो हिरन हूँ ।ये सुनकर शेर को आश्चर्य हुआ उसने नदी के किनारे ले जाकर उस बच्चे को उसकी सूरत दिखाई और कहा कि तू भी मेरे जैसा ही ताकतवर शेर है तू हिरन नहीं है बच्चे को भी अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपने स्वरुप का ज्ञान हुआ और उसने दहाड़ना शुरू कर दिया प्रस्तुत कहानी आज के युवाओं की स्थिति दर्शाती है ।आज का युवा भी अपनी योग्यताओं और अपने वास्तविक स्वरुप को छोड़ कर पश्चिम की बयार में बहता जा रहा है ना उसे अपनी संस्कृति पर गर्व है न इस भरत भूमि पर।

 आज का युवा एक प्रकार के उन्माद में जीवन व्यतीत कर  रहा है आज का युवा अपने राष्ट्र और परिवार के कर्तव्यो के प्रति उदासीन हो गया है उसके चारों और एक ऐसा शोर है जो उसे कुछ और सुनने ही नहीं देता युवा अपने लक्ष्य को तभी पा सकेगा, जब वह केवल लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जाए।

 एक बार स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे। अचानक, एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगाते देखा। किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था। तब उन्होंने ने एक लड़के से बन्दूक ली और खुद निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना लगाया और वह बिलकुल सही लगा, फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाए। सभी बिलकुल सटीक लगे। ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पुछा स्वामी जी, भला आप ये कैसे कर लेते हैं ? आपने सारे निशाने बिलकुल सटीक कैसे लगा लिए?

 स्वामी विवेकनन्द जी बोले असंभव कुछ नहीं है, तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ। अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ़ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए। तब तुम कभी चूकोगे नहीं। यदि तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो तो केवल पाठ के बारे में सोचो। वर्तमान समय में आवश्यकता है कि आज का युवा अपनी योग्यताओं को पहचाने और लक्ष्य के प्रति समर्पण भाव से संकल्प ले कि वह समाज और देश हित के लिए अपने जीवन का परिष्कार करेगा तभी ये युवा दिवस मनाना सार्थक होगा । 

 पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’ 

कोटा, राजस्थान

           

29 Dec 2023

कौन कहता है ..भगवान् आते नहीं

 मित्रों! प्रार्थना का बढ़ा महत्व है, किसी भी समस्या के निदान के लिए मन से की गई प्रार्थना भगवान् सारंगपाणि के सारंग से निकले अचूक बाण की तरह है जो सीधा अपने लक्ष्य अर्थात भगवान् के श्री चरणों तक पहुँचती है, फिर भगवान् भी प्रार्थी की समस्या का निदान किये बिना नहीं रह सकते। 

 लेकिन यह आवश्यकहै कि प्रार्थना केवल शब्दों का समूह न हो बल्कि उसमें हृदय की निश्छल और प्रेमाप्लावित भक्ति भी विद्यमान हो । जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प अपने प्रभाव को खो देता  हैं उसी प्रकार केवल शब्द-गुच्छ ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते उनमें प्रार्थी की पवित्र एवं परोकार ,दया व करुणा युक्त सुगंध होना अतिआवश्यक है तभी बात बनती है।

 प्रहलाद के हरि-संकीर्तन में हृदय का भाव क्या मिला कि ईश्वर नरसिंह के रूप में प्रकट हो गये। कृष्ण के लिए गोपियों का ऐसा ही भाव रहा होगा, क्योंकि गोपी गीत केवल शब्दों तक बंधा होता तो बात नहीं बनती लेकिन जब गोपियों की विरह-वेदना गोपी गीत के साथ जुड़ी तो गोविन्द प्रकट हो गये ।प्रार्थना ज्ञान का प्रतीक है और भाव निश्चलत प्रेम का प्रतीक है । जब ये दोनों मिलते हैं तो भगवान् को आना ही पड़ता है । 

 ईश्वर को केवल सच्ची भावयुक्त प्रार्थना के द्वारा ही रिझाया जा सकता है। जब हृदय से भाव उमड़ता है तो प्रार्थना के शब्द अश्रु बनकर नेत्रों को सजल कर देते हैं इसी स्थिति में परमात्मा प्रार्थना को स्वीकार करते हैं ।  प्रकृति के कण-कण में ईश्वर विद्यमान है । उसी की सत्ता से सूर्य,चन्द्र प्रकाशवान हैं । शीतल मंद पवन प्राणवायु के रूप में जीव मात्र को पोषित कर रही है, जल शरीर में नवीन चेतना का संचार कर रहा है ।

 प्रकृति का कण-कण उसी की सत्ता से जीवंत दिखाई देता है । प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है, पक्षियों के कलरव में, पहाड़ों के सन्नाटो में, वृक्षों की  शीतल छांव में, सागरों की शांत गहराईयों में, नदियों की कल-कल में ,निर्झर की झर-झर में परमात्मा मौजूद है । यदि हम ये नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, उत्सवी प्रार्थना परमात्मा से मिलाती है, शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं  है।

 जब प्रार्थी भावविभोर होकर ईश्वर को पुकारता है तभी भगवान प्रकट होते हैं । प्रार्थना में अद्भुत शक्ति होती है, सच्चे मन से की जाने वाली प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनते हैं जो उसे साफ मन से याद करते हैं, सच्चे प्रार्थी बन गये तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं ।

 जब तक हृदय की वीणा परमात्मा के विरह में झंकृत नहीं होती, जब तक प्रार्थी के प्रेमाश्रु अपने प्रेमी परमात्मा के लिए नही बहते तब तक प्रार्थना मात्र एक शब्दों का समूह  भर है लेकिन जब प्रार्थी विरह-वेदना से विभूषित हो आर्तभाव से अपने प्रेमी प्रभु को पुकारता है तो ईश्वर नंगे पैर दौढ़े चले आते हैं इस परिप्रेक्ष्य में गज और ग्राह्य की कथा सर्वविदित है।

 जब तक हमारे मन में ईश्वर प्राप्ति की प्यास नहीं जागेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा, धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं, अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है, परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जायें, उद्धव के प्रसंग में ठाकुर जी ने उस ऐश्वर्यज्ञानी को गोपांगनाओं के पास प्रेमाभाव की दीक्षा लेने के लिए भेजा है भगवान् कहते हैं “गच्छो उधौ ब्रजं सौम्य” इसलिये परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है।

 प्राणों से प्रेम के गीत उठते ही भगवान् प्रार्थी के पास दौड़े चले आते है, हम तो उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं, बिना पता-ठिकाने के जायें भी तो कहाँ जाएं? परन्तु जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं।

 इसी प्रकार जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी, छोटा शिशु जब पालने में रोता है तो माँ सहज ही दौड़ी चली आती है, इसी तरह सच्चे प्रार्थी के भजन में ऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते, क्योंकि सारि प्रार्थनाएँ तो तड़पते प्रार्थी के आंसुओं की ही छलकन हैं, इसलिए ‘हारिये न हिम्मत बिसारिये न प्रभु’। केवल प्रार्थना कीजिये । (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पंकज ‘प्रखर’

लेखक एवं विचारक

सुन्दर नगर,कोटा

युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

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