7 May 2020

यशोधरा का विरह और सिद्धार्थ का बुद्धत्व


सिद्धार्थ ने बोध (ज्ञान) प्राप्त कर लिया और बुद्ध हो गए। संसार में ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर लोगों को सुख-शांति का मार्ग दिखाया। संसार उन्हें पूजने लगा और उनके हजारों अनुयायी हो गए । लेकिन इतने ऊंचे ज्ञान और सम्मान को प्राप्त करने वाले बुद्ध यशोधरा के सदैव ऋणी रहेंगे जी हाँ यशोधरा जिनके हृदय सम्राट होने का सौभाग्य सिद्धार्थ अर्थात बुद्ध को मिला ।
सखी वे मुझसे कहकर जाते।“ कवि मैथिलीशरण गुप्त
एक स्त्री जिसने अपने जीवन कि बागडोर एक पुरुष के हाथ में दे दी हो यदि वह पुरुष उसे बिना कुछ कहे रात्रि के अंधकार में ईश्वर प्राप्ति हेतु गृहत्याग कर निकल जाए तो उस स्त्री का जीवन किस प्रकार बीतता है, वह अपने शील और संयम की रक्षा कैसे करती है, कैसे समाज का सामना करते हुए अपनी संतान को योग्य बनाती है और न जाने कितने समस्याओं के सागर पार करती है। यदि ये जानना हो तो यशोधरा के जीवन को देखें।

यशोधरा राजा सुप्पबुद्ध और उनकी पत्नी पमिता की पुत्री थीं।१६ वर्ष की आयु में यशोधरा का विवाह राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ के साथ हुआ। यशोधरा एक सुंदर राजकुमारी थी जिसका विवाह एक बड़े राजघराने में हुआ । राजमहल में सुख-सुविधाओं के अंबार लगे हुए थे यशोधरा का विवाह 16 वर्ष की आयु में हो गया था और उन्होने   ने २९ वर्ष की आयु में एक पुत्र को जन्म दिया । लेकिन अपने पति सिद्धार्थ के संन्यासी हो जाने के बाद यशोधरा ने अपने बेटे राहुल का पालन पोषण करते हुए अपने जीवन की सारी सुख सुविधाओं को त्यागकर एक संन्यासिनी का जीवन अपना लिया। उन्होंने मूल्यवान वस्त्राभूषण  त्यागकर एक सामान्य सा पीला वस्त्र धारण किया और दिन में एक बार भोजन किया।
सिद्धि हेतु स्वामी गए ये गौरव की बात,
                     लेकिन बिना कहे गए यही बड़ा आघात कवि मैथिलीशरण गुप्त
यशोधरा को जीवन-भर यही दुख रहा कि स्वामी यदि बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए घर छोड़ कर गए तो मुझसे कहकर क्यों नहीं गए क्या वो मुझे पहचान नहीं पाये थे? हालांकि विद्वानों को बुद्ध की बोध पिपासा,जन-कल्याण के कार्य और शिक्षाएँ तो याद रहीं लेकिन वह यशोधरा के त्याग और विरह को इतना प्रकाश में नहीं ला पाए।

सिद्धार्थ के गृह त्याग का वर्णन बौद्ध ग्रंथों में बड़े विस्तार से और प्रभावशाली ढंग से किया हैं। कहते हैं कि जब राहुल सात दिन का हो गया तो उसी दिन सिद्धार्थ का हृदय अत्यंत चंचल हो उठा। संसार का सारा सुख उन्हें काटने को दौड़ता था। चारों ओर आधि- व्याधि की प्रचुरता दिखाई पड़ती थी। उसी दिन अर्धरात्रि को वे उठ खड़े हुए। उस समय उनकी सेविकाएँ अर्ध नग्न अवस्था में सो रही थीं, जिसे देखकर उनको और भी विरक्ति हो गई। उन्होंने चुपके से अपने सारथी चंडज (छन्नक) को जगाया और अपने प्यारे घोड़े 'केतक' को लाने की आज्ञा दी। सारथी यह सुनकर आश्चर्य में आ गया। उसने सिद्धार्थ को इस समय घूमने को मना किया, पर वे नहीं माने।

राजमहल छोड़ने से पहले एक बार सिद्धार्थ अपनी स्त्री के शयनागार में गए, किंतु उस समय उनकी स्त्री पुत्र के मुख पर हाथ रखकर सो रही थी। जाग जाने के डर से उन्होंने उसका हाथ न हटाया। उस समय यशोधरा भी अपार रूपवती जान पड़ रही थी पर सिद्धार्थ अपने हृदय को पक्का करके स्त्री और पुत्र की ममता को त्यागकर बाहर निकल आए और जंगल की तरफ रवाना हो गए।

प्रातःकाल होने पर उन्होंने अपने वस्त्र एक भिखारी से बदल लिए और तलवार से अपने घुँघराले लंबे केशों को काट डाला। एक स्थान पर उन्होंने यज्ञ होते देखा, जिसमें वेदी के निकट बहुसंख्यक पशुओं को बलिदान दिया जा रहा था और चारों ओर रक्त ही रक्त दिखाई पड़ रहा था। यह दृश्य देखकर उनको बड़ी वेदना हुई और वे अपने मन में विचार करने लगे कि ये लोग कितनी नीचता का काम कर रहे है ऐसे घृणित कार्यों से मन कि शांति कदापि नहीं मिल सकती ।

 सिद्धार्थ फिर जंगल में पहुँच गए और दो तपस्वी ब्राह्मणों के पास रहकर वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, पर जब एक वर्ष तक वेदाध्ययन से भी उनको शांति प्राप्ति के कुछ लक्षण दिखाई न पड़े तो वे अन्य पाँच व्यक्तियों के साथ घोर तपश्चर्या करने के निमित्त दूसरे घने जंगल में चले गए।

इस प्रकार वे विभिन्न सिद्धांतों के अनुयायी साधुओं के पास रहकर कई वर्ष तक तप करते रहे, जिससे उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया और कार्य शक्ति भी बहुत घट गई, पर इससे न तो उनके मन की समस्याओं का समाधान हुआ और न उनको आत्मिक शांति ही मिल सकी। अंत में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल गृह त्यागकर वन में निवास करने और स्वेच्छा से शारीरिक कष्ट सहन करने से ही ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इसके लिए आवश्यक है कि पूर्वाग्रहों की चिंता न करके संसार की स्थिति और समस्याओं पर उदार भाव से विचार किया जाए और बुद्धिसंगत था तर्कयुक्त निर्णय को स्वीकार किया जाए। इस मार्ग पर चलने से उनके हृदय में सत्य ज्ञान का उदय हुआ। कहा जाता है कि यह ज्ञान उनको वर्तमान गया नगर के समीप एक बरगद के वृक्ष के नीचे निवास करते हुए प्राप्त हुआ, जिससे उसका नाम 'बोधि वृक्ष' पड़ गया। आगे चलकर वह स्थान बुद्ध मत वालों का प्रधान तीर्थ स्थान बन गया।                                                             सर्वाधिकार सुरक्षित



कविकुल शिरोमणि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (विशेष लेख)


भारत भूमि पर हर युग, हर काल में महापुरुषों का अवतरण होता रहा है । इन महापुरुषों ने  केवल भारत को अपितु समूचे विश्व को अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से अभिसिंचित कर इस विश्व धरा का मान बढ़ाया है और लोगों की सुषुप्त मानसिकता को जागृत किया है ।
ऐसे महापुरुष जब तक शरीर में होते हैं सतत राष्ट्र हित के, समाज हित के कार्य करते हैं लेकिन जब ये अपने शरीर को छोड़ देते हैं तो इनका यश रूपी शरीर इनका कार्य करता है । ऐसे इतिहास में अनेकानेक विद्वानों का परिचय मिलता है जिन्होंने जीवनभर जीवन देवता की साधना आराधना की ।
आज हम भारत के एक ऐसे मनीषी के कृतित्व और व्यक्तित्व की चर्चा कर रहे हैं जिनका नाम पूरा विश्व बड़े सम्मान के साथ लेता है ,जी हाँ हम बात कर रहे हैं कविकुल शिरोमणि श्री रवींद्रनाथ टैगोर (ठाकुर) की जिन्हें लोग श्रद्धा से गुरुदेव कहकर पुकारते थे ।
ये वो महान विभूति थे जिनसे भारतीयों के साथ-साथ अंग्रेजी सत्ता भी प्रभावित थी । इनका चिंतन,मनन,लेखन व्यक्ति और समाज को झकझोर देने वाला था । इनकी साहित्यिक रचनाएँ जितनी उस समय प्रासंगिक तथा लोकप्रिय थी उतनी है आज भी है जिन्हें समय-समय पर सिनेमा भी अपने पर्दे पर उतारता रहता है ।
हमारे देश के इस महान कवि का जन्म कोलकाता की जोड़ासांको की हवेली में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेंद्र नाथ टैगोर था और इनकी माता का नाम शारदा देवी था। रवीन्द्रनाथ टैगोर के कुल 12 भाई बहन थे और वे अपने माता पिता की 13 वीं संतान थे। रवींद्रनाथ टैगोर जी के बचपन में ही इनकी माता का निधन हो गया था और इनके पिता ने अकेले ही इनका और इनके भाई बहनों का पालन पोषण किया था।
रवींद्र नाथ टैगोर ने सेंट जेवियर नामक स्कूल से अपनी शुरूआत शिक्षा हासिल कर रखी है। रवींद्रनाथ टैगोर के पिता उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे इसलिए उन्होंने टैगोर का दाखिला  1878 में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में करवा दिया था। कुछ समय तक यहां पर कानूनी पढ़ाई करने के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पढ़ाई को बीच में छोड़ने का फैसला किया और वे बंगाल वापस आ गए। दरअसल रवींद्रनाथ टैगोर की रुचि साहित्य में काफी थी और वे साहित्य के क्षेत्र में ही अपना करियर बनाना चाहते थे। साल 1880 में बंगाल आने के बाद इन्होंने कई सारी कविताएं, कहानियां और उपन्यास प्रकाशित किए और वे बंगाल में प्रसिद्ध हो गए।
साल 1883 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मृणालिनी देवी से विवाह किया था। जिस वक्त इन्होंने मृणालिनी देवी से विवाह किया था उस समय मृणालिनी देवी की आयु महज 10 साल थी। इस विवाह से इन्हें पांच बच्चे हुए थे, जिनमें से दो बच्चों की मौत बचपन में ही हो गई थी। वहीं साल 1902 में रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का भी निधन हो गया था।
रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन काल में कई सारी किताबें, नाटक, निबंध, लघु कथाएं और कविताएं लिख रखी हैं। अपने नाटक, किताबें और लघु कथाओं के माध्यम से ये गलत रीति-रिवाजों के नकारात्मक असर के बारे में लोगों को बताया करते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई लघु कथा ‘काबुलिवाला’, ‘क्षुदिता पश्न’, ‘अटोत्जू’, ‘हैमांति’ काफी प्रसिद्ध हैं । जबकि इनके द्वारा लिखे गए उपन्यासों में ‘नौकादुबी’, ‘गोरा’, ‘चतुरंगा’, ‘घारे बायर’ और ‘जोगजोग’ विश्न भर में प्रसिद्ध हैं। कविताएं, उपन्यास और लघु कथाओं को लिखने के अलावा रवींद्रनाथ टैगोर को गीत लिखने में भी काफी रुचि थी  और इन्होंने अपने जीवन काल में कुल 2230 गीत भी लिखे थे।
रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिख गई गीतांजलि नामक कविता के लिए इन्हें साल 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला था। जिसके साथ ही वे भारतीय मूल के और एशिया के पहले ऐसे व्यक्ति बन गए थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वहीं साल 1915 में इन्हें अंग्रेजों द्वारा ‘सर’ की उपाधि भी दी गई थी।
रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन की अंतिम सांस कोलकत्ता में 7 अगस्त 1941 में ली थी। जिस वक्त इनका निधन हुआ था इनकी आयु 80 साल की थी और इनके निधन के साथ ही हम लोगों ने एक महान कवि को खो दिया था।
इस महाकवि का कलेवर तो हमारे बीच नहीं है लेकिन अपनी रचनाओं के माध्यम से सदैव ये हमारे हृदयों में निवास करते रहेंगे और हमें समाज के लिए कुछ श्रेष्ठ करने के लिए प्रेरित भी करते रहेंगे | ऐसे महापुरुष के चरणों में हमारा श्रद्धासिक्त नमन ।                                    सर्वाधिकार सुरक्षित


3 May 2020

देवर्षि नारद जयंती (विशेष लेख)

देवर्षि नारद भगवान के जितने प्रेमी भक्त हैं, भगवान भी नारद जी के उतने ही बड़े भक्त हैं ।लेकिन आज की पीढ़ी नारद जी का जिस तरह से चरित्र-चित्रण करती है, उससे उनकी छवि उपहास के पात्र और चुगलखोर की बन गई है जो अतिनिंदनीय है । आज आवश्यकता है कि देवर्षि नारद का वास्तवित चरित्र समाज के सामने आए। प्राणिमात्र के कल्याण की भावना रखने वाले नारदजी ईश्वरीय मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा रखने वाले प्राणियों को सहयोग देते रहते हैं । उन्होंने कितने प्राणियों को किस प्रकार भगवान के पावन चरणों में पहुँचा दिया, इसकी गणना संभव नहीं है । वे सदा भक्तों, जिज्ञासुओं के मार्गदर्शन में लगे रहते हैं ।

वे तीनों लोकों में घटने वाली प्रिय-अप्रिय घटनाओं की जानकारी भगवान तक पहुँचाते हैं । वे देवताओं के साथ-साथ दानवों का मार्गदर्शन भी करते हैं ।नारद जी के विषय में शोध करते हुए उनके जन्म से संबन्धित dवैसे तो अनेक प्रकार की कथाएँ पढ़ने को मिली लेकिन उनमें से एक कथा जो मुझे सबसे अधिक प्रिय और प्रामाणिक मिली वह ये है कि नारद जी का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के यहाँ हुआ । माँ बहुत गरीब थी और जहां जो काम मिल उसे करके अपना व अपने पुत्र का जीवन यापन करती एक दिन नगर सेठ ने कुछ साधु-संतों को नगर में चातुर्मास के लिए बुलाया और उस विधवा माँ को उनकी सेवा में रख दिया। वह नित्य उन साधु संतों की सेवा में लगी रहती । इसके बदले में उसे और उसके पुत्र को भोजन आदि मिल जाता था। जब भी साधु सत्संग करने बैठते तो माँ बेटे दोनों उनके सत्संग को ध्यान से सुना करते इतने छोटे बालक को शांत चित्त सत्संग सुनते देख साधु संत उसे स्नेह करने लगे ।

भगवत कथा के प्रभाव से उस बालक का मन शुद्ध हो गया और उसके पिछले जन्मो के समस्त पाप धुल गए। नगर से जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर बालक को भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया और बालक नित्य ईश्वर का ध्यान और जप करने लगा ।

एक दिन साँप के काटने से उसकी माता की मृत्यु हो गई बालक अकेला रह गया । अतः वह गिरि, कन्दराओं में जाकर भगवान नाम का जप करने लगा। बालक के शुद्ध हृदय की पुकार भगवान तक पहुंची और भगवान उसके हृदय में प्रकट हो गए और उसे कहा कि समय आने पर तुम्हारा ये भौतिक शरीर छूट जाएगा और तुम मेरे प्रिय पार्षद के रूप में मुझे प्राप्त करोगे। समय आने पर नारद जी का पंच भौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इन्होंने नारद-भक्ति सूत्र की रचना की जिसमें भक्ति की बड़ी ही सुंदर व्याख्या है।

यह ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनंद के सागर और विश्व के हितकारी हैं। वह श्रीमन्नारायन के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं । सर्वोत्तम भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है।

जिस प्रकार भक्त अपने भगवान का चिंतन करते है उनका ध्यान और स्तुति करते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी अपने भक्तों का ध्यान, चिंतन और यहाँ तक की उनकी स्तुति भी करते हैं इसका एक प्रमाण मुझे इस प्रकार मिला।

एक समय महीसागर संगम तीर्थ में भगवान श्री कृष्ण ने देवर्षि नारदजी की पूजा अर्चना की । वहाँ महाराज उग्रसेन ने पूछा : "जगदीश्वर श्री कृष्ण ! आपके प्रति देवर्षि नारदजी का अत्यंत प्रेम कैसे है?"
भगवान श्री कृष्ण ने कहा: "राजन! मैं देवराज इन्द्र द्वारा किये गए स्तोत्र पाठ से दिव्य-दृष्टि संपन्न श्री नारदजी की सदा स्तुति करता हूँ । आप भी वह स्तुति सुनिये :

'जो ब्रह्माजी की गोद से प्रकट हुए हैं, जिनके मन में अहंकार नहीं है, जिनका विश्व-विख्यात चरित्र किसी से छिपा नहीं है जो कामना या लोभ वश झूठी बात मुँह से नहीं निकालते, जो जितेन्द्रिय हैं, जिन में सरलता भरी है और जो यथार्थ बात कहने वाले हैं, जो तेज, यश, बुद्धि, विनय, जन्म तथा तपस्या इन सभी दृष्टियों से बड़े हैं, जिनका स्वभाव सुखमय, वेश सुन्दर तथा भोजन उत्तम है, जो प्रकाशमान, शुभदृष्टि-संपन्न तथा सुन्दर वचन बोलने वाले हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ ।
इस स्तुति के कारण वे मुनि-श्रेष्ठ मुझ पर अधिक प्रेम रखते हैं । देवर्षि नारदजी की इस स्तुति के द्वारा भगवान भक्तों के आदर्श गुणों को प्रकट करते हैं । भक्त की इतनी महिमा है कि स्वयं भगवान भी उनकी स्तुति करते हैं ।
अतः जो लोग नारद जी का उपहास करते हैं उन्हें चुगलखोर आदि शब्दों से अपमानित करते हैं उन्हें देवर्षि नारद के इन विशेष गुणों का चिंतन करना चाहिए क्योंकि वे इतने महान हैं कि भगवान भी उनकी स्तुति करते हैं। जीवन-मुक्ति की इच्छा रखने वाले साधु पुरुषों के हित के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहते हैं ।
अतः उनके चरणों में मुझ अकिंचन का कोटि-कोटि प्रणाम हैं ! सर्वाधिकार सुरक्षित
  

अतिविचित्र है जिह्वा हमारी....

हमारी एक अति महत्वपूर्ण इंद्रिय है, ‘जीभ’ जिसे ‘रसना’ तथा ‘वाणी’ भी कहा गया है। इसकी विशेषता हैं कि ये भोजन के टुकड़े कर उन्हें शरीर के भीतरी भागों में पहुंचाने के साथ-साथ भोजन के रस अर्थात् उसके स्वाद का हमें अनुभव कराती है । इसके ये दोनों प्रकार के कर्म इस इंद्रिय को शरीर के सभी अंग अवयवों में विशेष महत्व का बना देते हैं । रसना और वाणी इन दोनों ही शब्दों का अलग-अलग अर्थ और महत्व है दोनों का व्यवस्थित रूप से उपयोग अति आवश्यक है। यदि जीभ हमारे विवेक रूपी अंकुश में रहे तो हमें उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करती है वहीं अगर इस पर अंकुश न रखा जाये तो ये हमारे स्वास्थ्य का नाश करती हुई हमारी जीवन शक्ति का ह्रास करती है साथ ही विभिन्न प्रकार के रोग हमारे शरीर में भर देती है।
जिह्वा रसना के रूप में…
ऐसा भी कहा जाता है कि जो व्यक्ति जिह्वा पर नियंत्रण नहीं रख सकता वह अपनी इंद्रियों को भी साध नहीं सकता और जब तक इंद्रियों को न साधा जाये तब तक कोई लक्ष्य भी हांसिल नहीं किया जा सकता । लेकिन हम मनुष्यों ने ज़ायके की वजह से,अनावश्यक चीजों की वजह से और न खाने वाली चीजों को खाने की वजह से अपने पेट का सत्यानाश कर लिया। अपनी सेहत को खराब कर लिया। अगर आपको सेहत ठीक रखनी है, मानसिक स्तर ठीक रखना है, तो आप संयम कीजिए।

कई मनुष्यों के द्वारा किया जाने वाला मांस भक्षण केवल अपनी स्वाद रूपी इच्छा को तृप्त करने के लिए ही किया जाता है।  हम हैं तो मनुष्य लेकिन अपनी स्वाद लोलुपता के कारण हमने अपने पेट को कब्रिस्तान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी , जबकि प्रकृति ने पोषक तत्वों से भरपूर फल और सब्जियाँ दी हुई हैं अनेकों प्रकार के अनाज हैं ऐसे में उन सात्विक खाद्यों को छोड़कर तामसिक और विदेशी भोजन पीज़ा, पास्ता, मेगी, बरगर, हॉटडॉग जैसे विदेशी खान-पान का प्रयोग सर्वथा स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुचित ही कहा जाएगा। 

जो व्यक्ति अपनी जिह्वा पर नियंत्रण रख सकता है वही अपनी कामेन्द्रियों को नियंत्रित कर सकता है ऐसे मनुष्य के लिए ब्रह्मचर्य रख पाना आसान होता है।
जिह्वा ‘वाक् शक्ति’ अर्थात वाणी के रूप में
वाणी अर्थात ‘वाक् शक्ति’ जिस सरस्वती भी कहते हैं। वाणी के द्वारा आप संसार को अपना मित्र भी बना सकते हैं और शत्रु भी, मीठी और संयत वाणी के महत्व को समझने वाला व्यक्ति बिना किसी अन्य साधन के संसार को मोहित कर सकता है । ये ही भाव प्रस्तुत दोहे में दृष्टिगोचर होता है...
''कौआ काको धन हरे, कोयल काको देत,
मीठे वचन सुनायके जग अपनो कर लेत ।।''
मैं तो हमेशा सच बोलता हूँ और सच्ची बात हमेशा कड़वी होती है इसलिए लोग बुरा मान जाते हैं जबकि वास्तविकता ये है कि सत्य का कड़वेपन से कोई ताल्लुक नहीं है । कड़वेपन का जो ताल्लुक है, वह आदमी के अहंकार से है।
 यदि आपकी वाणी सच्चाई का प्रदर्शन करने के लिए कड़वे लहज़े और शब्दों का प्रयोग करेगी तो निश्चित रूप से जिससे कड़वे शब्द कहे जाएंगे वो आपकी बात मानने से रहा इसका उलटा असर ये होगा कि उसकी दृष्टि में आपका सम्मान कम हो जाएगा और दूरियाँ बड़ने लगेंगी जैसा कि आज हमारे परिवारों में देखने को मिलता है ।
 जिद व्यक्ति की वाणी हर वक्त बिच्छू के डंक की तरह दूसरों को कष्ट पहुंचाती रहती है और दूसरों का अपमान करती रहती है ऐसे व्यक्तियों से लोग किनारा करने लगते हैं । यहाँ तक कि उनके द्वारा कही गई सही बात भी नहीं सुनी जाती और सुन भी ली जाए तो उसके पीठ पीछे लोग उसे भला बुरा ही कहते हैं। जो आदमी दूसरों को छोटा समझता है, वही कड़वे वचन बोल सकता है। जो आदमी घमंड से भरा हुआ है, वही कड़वे वचन बोल सकता है। 

आप सामने वाले की इज्जत कीजिए। अगर सामने वाले से शिकायत है तो उसे प्यार से समझाइए। जिनकी शिकायत आप दूर करना चाहते हैं, उनको समझाने की कोशिश कीजिए। अपने दिमाग को  संतुलित रखकर प्रेम और संतुलित शब्दों के साथ उन्हें बुरी से बुरी बात समझाई जा सकती है।
गलत सलाह देना, कड़वे वचन बोलना, असत्य बोलना, न खाने योग्य चीज़ें जैसे- मांस,मछली,शराब बुरी चीजें खाना ये सब वाणी के असंयम हैं जिनसे वाणी का प्रभाव समाप्त होने लगता है। अगर आप जीभ पर संयम रख सकें तो आपको आध्यात्मिकता के वे लाभ मिल सकते हैं, जिनसे लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते लोग आपको सुनना पसंद करेंगे 

कई साधु महात्मा जब कथा सत्संग करते हैं तो हजारों की संख्या में लोग एक चित्त होकर उन्हें सुनते हैं इसका कारण ये है कि उन संतों ने वाणी के संयम के द्वारा  अपनी वाणी को प्रभावशाली बनाया है यदि सावधानी पूर्वक वाणी का संयम रखा जाये तो व्यक्ति के द्वारा कहे गये वाक्य फलने लगते हैं उसके द्वारा दिये जा रहे आशीर्वाद या श्राप फलीभूत होने लगते हैं आपको शाप देने और वरदान देने की शक्ति मिल सकती है।

अतः वाणी के अपव्यय से बचें और दूसरों के लिए हितकर वचन कहें तो पूरा संसार आपका मित्र बन जाएगा और आपका सम्मान भी करेगा। सर्वाधिकार सुरक्षित

विद्यार्थी जीवन में संकल्प शक्ति की उपयोगिता एवं महत्व

संकल्प एक ऐसी अद्भुत शक्ति का नाम है, जिसके माध्यम से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव नहीं है। जब विद्यार्थी पूरे मनोयोग से किसी कार्य को करने का संकल्प लेता है तो उसके मार्ग में आने वाले कंटक उसकी संकल्प शक्ति के आगे तृणवत् बह जाते हैं । संकल्प का शाब्दिक अर्थ है दृढ़ता अर्थात पक्का इरादा। विद्यार्थी  को जीवन के सभी क्षेत्रों में संकल्प शक्ति कि आवश्यकता पड़ती है ।संकल्प की पूर्ति का प्रयास पूरे मन से किया जाए स्वयं पर और ईश्वर की कृपा पर विश्वास किया जाए तो असंभव कार्य भी सिद्ध होते देर नहीं लगती । दृढ़-इच्छा शक्ति वाले विद्यार्थी  के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं या यूं भी कह सकते हैं कि दृढ़-इच्छा शक्ति से लबरेज़ विद्यार्थी के समक्ष समूची सृष्टि नतमस्तक रहती है ।

मन को नियंत्रित करने और इच्छाओं को वश में करने से ही संकल्प शक्ति बढ़ती है, परंतु यदि मन मैं किसी के अहित की भावना, स्वार्थ या वासना प्रवेश कर जाए तो संकल्प शक्ति निर्बल होते देर नहीं लगती। इच्छाएँ जितनी कम शुद्ध, सात्विक और लोक-कल्याणकारी होंगी उतनी ही संकल्प शक्ति बलवान होगी। 

यदि संकल्प शक्ति दृढ़ हो जाए तो दो अन्य शक्तियों का प्राग्ट्य स्वतः ही हो जाता है। इसमें पहली शक्ति है ‘अनुमान शक्ति’ दूसरी है ‘स्मरण शक्ति’ ।संकल्प शक्ति का विकास करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने अंदर सहनशीलता, प्रसन्नता, सत्यता, दृढ़ता, धैर्य, और नियमित ध्यान जैसे गुणों को विकसित करें साथ ही असहनशीलता, अप्रसन्नता व चिड़चिड़ाहट, दुर्बलता और अधीरता जैसे दुर्गुणों से सतर्क रहें । ऐसे प्रयास करते रहने से संकल्प में बल आता है तथा हमारे आस-पास के लोग भी हमसे प्रसन्न रहते हैं।

यदि कभी परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं भी हैं तो कोई बात नहीं आप परिस्थितियों को नहीं बल्कि अपनी मन:स्थिति को बदलने का प्रयास करें। किसी भी परिस्थिति से भागें नहीं बल्कि उसका सदुपयोग करते हुए प्रत्येक परिस्थिति में अपने आप को प्रसन्न रखने का स्वभाव बनाएँ। इससे हमारे व्यक्तित्व में तेजस्विता और प्रखरता का विकास होता है।

संकल्पों का चुनाव बड़ी सावधानी पूर्वक करें और सबसे पहले वे संकल्प लें जो थोड़े से प्रयत्न और आसानी से पूर्ण हो जाएँ क्योंकि यदि शुरुवात में ही बड़े संकल्प ले लेंगे तो उन्हे निभाने में परेशानियाँ आएंगी और यदि वे पूरे नहीं हुए तो हम हतोत्साहित हो जाएँगे इसलिए पहले छोटे-छोटे संकल्पों का व्रत लें और पूरी तत्परता से उनको पूर्ण करें इस प्रकार धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाएँ । 
जो भी विद्यार्थी  किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना चाहता है उसके लिए ये भी आवश्यक है कि वह अपने मन -मस्तिष्क को शांत रखे अत्यधिक विचारों के प्रवाह से बचे अन्यथा संशय उत्पन्न होते हैं कि मेरा काम होगा या नहीं, मुझे सफलता मिलेगी या नहीं ऐसे विचारों से संकल्प बल कमजोर होने लगता है।
अत: सफलता के लिए मन को अनुशासित रखना आवश्यक होता है जितना अनुशासन होगा संकल्प में उतनी तेजस्विता आएगी और आशानुरूप सफलता प्राप्त होगी।

किसी भी कार्य को करते हुए मन को शांत रखना और कर्म करते हुए ईश्वर में विश्वास रखना चाहिए। उन सफल लोगों का चिंतन करना चाहिए, जिन्होंने विकट परिस्थितियों पर जीत हासिल की और सरलता एवं सहजता को अपनी सफलता का माध्यम बनाया। जबकि ऐसे धूर्त और दुष्ट लोगों से दूरी बनानी चाहिए जिन्होंने दूसरों का हक मारकर सफलता प्राप्त कर समाज में अपना स्थान बनाया है ।
लोग हमेशा आपके लिए अच्छा सोचें सदैव आपका सम्मान हो ऐसी भावनाओं को मन में न आने दें क्योंकि जो विद्यार्थी  सात्विक आचरण करते हैं सही मार्ग पर चलते हैं प्राय: उनको ही समस्याएँ ज्यादा होती है इसलिए समस्याओं का स्वागत करें उनसे डरें नहीं । समस्याएँ हमारे व्यक्तित्व में और सुधार लाती हैं साथ ही ये हमारे लिए सफलता का मार्ग भी खोल देतीं हैं ।

अत: दृढ़ संकल्प के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें और दूसरों के लिए प्रेम, दया, करुणा एवं उदारता को अपने जीवन में उतारें तो निश्चित रूप से आप अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मैं सक्षम होंगे ।
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आत्महीनता एक अभिशाप

किसी मनुष्य के सामान्य गुणों कि प्रशंसा कर उसे सम्मान देना तथा उसे और श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रेरित करना हम सभी मनुष्यों के मनुष्यत्व के विशेष गुणों को दर्शाता है ।इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपने से पद या उम्र में छोटे व्यक्ति से दुर्व्यवहार करता है उसकी छोटी-छोटी गलतियों के लिए उसे भला बुरा कहता है या दूसरों का अपमान करने के अवसरों की तलाश में रहता है  तो वह व्यक्ति जाने अनजाने अपने ही ओछेपन का परिचय देता है ।इस प्रकार का अमानवोचित व्यवहार दूसरे व्यक्ति के मन में आत्महीनता के रूप में सदा के लिए बैठ जाता है जिससे उबरने में कठिन परिश्रम और लंबा समय लगता है ।

मनुष्य के जीवन में सम्मान का बढ़ा महत्व है यदि व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए किसी कार्य हेतु सम्मान मिलता है तो उस व्यक्ति का मनोबल आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगता है तथा वह और सजगता से अपने कर्तव्यों के प्रति जागृत हो जाता है ।वहीं यदि किसी व्यक्ति को हर बात में रोका टोका जाये बात-बात में उसकी गलती बताई जाये तो चाहे कितना भी बुद्धिमान व्यक्ति क्यों न हो उसे अपने अंदर हीनता का भाव अनुभव होने लगता है और जब यह भाव धीर-धीरे उसके व्यक्तित्व में घर बना लेता है तो वह व्यक्ति के सभी गुणों को दीमक की भांति चट कर जाता है । विद्यार्थियों के परिप्रेक्ष्य में भी यही बात आती है |

‘आत्महीनता’ अर्थात अपनी योग्यता अपने ज्ञान के प्रति अविश्वास रखना और स्वयं को दूसरों की तुलना में गिरा हुआ मानना है यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो विद्यार्थियों के जीवन की भावी संभावनाओं को ध्वस्त कर देता है ।कहते हैं कि हाथी को अन्य प्राणी डील-डौल में उनके वास्तविक आकार-प्रकार से कहीं बड़े दिखाई देते हैं। उसकी आंख की बनावट ऐसी होती है कि वह अन्य प्राणियों का आकार कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर देखती है, इसी कारण हाथी दूसरे प्राणियों से भयभीत रहता है और सामान्यतः एकाएक किसी पर आक्रमण नहीं करता । इसी प्रकार आत्महीनता के कारण विद्यार्थियों अपने अंदर छुपी हुई संभावनाओं को भूल कर परिस्थितियों को उस प्रकार नहीं देखता जिस प्रकार की वह होती हैं बल्कि अपनी छोटी से छोटी समस्या को भी विकराल समझता है और एक प्रकार के अज्ञात भय से आतंकित रहता है ।

 इस प्रकार की मनोविकृति के कारण अधिकतर विद्यार्थियों मन ही मन स्वयं को तिरस्कृत करते रहते हैं और यह विकृति कब उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है उन्हें पता भी नहीं चलता और वे सही व उचित बात भी नहीं कह पाते इस प्रकार की मनःस्थिति का सबसे ज्यादा प्रभाव उनकी शिक्षा पर पड़ता है उन्हें एक डर लगा रहता है कि पता नहीं मैं परीक्षा में पास हो पाऊँगा या नहीं और ये डर ही उनकी योग्यता को निगल जाता है |
विचारणीय है कि बच्चों में आत्महीनता की यह भावना कहाँ से क्यों उत्पन्न होती है? मनोविज्ञान इसके कई कारण बताता हैं। बच्चों को बचपन में आवश्यक स्नेह-सम्मान न मिल पाना, माता-पिता या अभिभावकों की और से उपेक्षा, उपहास का कारण बनते रहना या अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहना आदि ऐसे कारण हैं जो बचपन से ही ऐसी मानसिक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण बच्चे बड़े होकर भी आत्महीनता की महाव्याधि के शिकार बनते हैं।  यहाँ तक ही नहीं कई बच्चे तो नशे की लत में पढ़कर अपना जीवन का नाश कर बैठते हैं ऐसे बच्चे जिन्हें माता-पिता का स्नेह नहीं मिला तथा जो अकेलेपन के शिकार हैं और बचपन से ही अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं उनमें चिंताजनक रूप में आत्महीनता की भावना पाई जाती है और प्रायः यही लोग पथभ्रष्ट होते हैं।

अतः उससे छुटकारा पाना अत्यंत आवश्यक है। परिस्थितियों को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की आदत और अपने आप को दूसरों के सामने छोटा, हेय, हीन समझने का स्वभाव आत्महीनता की भावना का प्रमुख लक्षण है। इस व्याधि को जड़-मूल से मिटाने हेतु आवश्यक है कि हम उचित और अनुचित की पहचान कर सकें और अपने मनोबल को इतना दृढ़ करें कि समय आने पर हम उचित को ही अपनाएँ और अनुचित का दृढ़ता से बहिष्कार और विरोध कर सकें सहमत होना और हां कहना अच्छी बात है, पर वह इतनी अच्छी बात नहीं है कि यदि कोई बात अनुचित लग रही है और अनुचित लगने के पर्याप्त कारण हैं, तो भी हां किया ही जाए और सहमत हुआ ही जाए। स्पष्ट रूप से, निःसंकोच भाव से अस्वीकार करने की हिम्मत भी रखनी चाहिए। सोच-विचार करने में यह बात भी सम्मिलित रखनी चाहिए कि हर सही-गलत बात में हां-हां करते रहने से दूसरों की दृष्टि में अपने व्यक्तित्व का वजन घट जाता है और आत्मगौरव को ठेस पहुंचती है।

एक मानसिक रूप से परिपक्व व्यक्तित्व वही है जो अपने विचारों को स्पष्ट किंतु नम्र और संतुलित शब्दों में व्यक्त कर सके ।मनुष्य ईश्वर का पुत्र है और वेदों, पुराणों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न कहा गया है तो जब हमारे पिता परमात्मा हैं तो हम हीन कैसे हो सकते है हमारे अंदर भी अनेकानेक महत्वपूर्ण योग्यताएं विद्यमान है जैसे ही ये भाव हम अपने मन में लाते है हमारे क्षुद्र विचार तिरोहित होने लगते है कुंठाओं की गांठ खुलने लगती है ,आवश्यकता बस यह है कि हम इस चिंतन को निरंतर बनाए रखें ।  सर्वाधिकार सुरक्षित



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