7 May 2020

यशोधरा का विरह और सिद्धार्थ का बुद्धत्व


सिद्धार्थ ने बोध (ज्ञान) प्राप्त कर लिया और बुद्ध हो गए। संसार में ज्ञान का प्रचार-प्रसार कर लोगों को सुख-शांति का मार्ग दिखाया। संसार उन्हें पूजने लगा और उनके हजारों अनुयायी हो गए । लेकिन इतने ऊंचे ज्ञान और सम्मान को प्राप्त करने वाले बुद्ध यशोधरा के सदैव ऋणी रहेंगे जी हाँ यशोधरा जिनके हृदय सम्राट होने का सौभाग्य सिद्धार्थ अर्थात बुद्ध को मिला ।
सखी वे मुझसे कहकर जाते।“ कवि मैथिलीशरण गुप्त
एक स्त्री जिसने अपने जीवन कि बागडोर एक पुरुष के हाथ में दे दी हो यदि वह पुरुष उसे बिना कुछ कहे रात्रि के अंधकार में ईश्वर प्राप्ति हेतु गृहत्याग कर निकल जाए तो उस स्त्री का जीवन किस प्रकार बीतता है, वह अपने शील और संयम की रक्षा कैसे करती है, कैसे समाज का सामना करते हुए अपनी संतान को योग्य बनाती है और न जाने कितने समस्याओं के सागर पार करती है। यदि ये जानना हो तो यशोधरा के जीवन को देखें।

यशोधरा राजा सुप्पबुद्ध और उनकी पत्नी पमिता की पुत्री थीं।१६ वर्ष की आयु में यशोधरा का विवाह राजा शुद्धोधन के पुत्र सिद्धार्थ के साथ हुआ। यशोधरा एक सुंदर राजकुमारी थी जिसका विवाह एक बड़े राजघराने में हुआ । राजमहल में सुख-सुविधाओं के अंबार लगे हुए थे यशोधरा का विवाह 16 वर्ष की आयु में हो गया था और उन्होने   ने २९ वर्ष की आयु में एक पुत्र को जन्म दिया । लेकिन अपने पति सिद्धार्थ के संन्यासी हो जाने के बाद यशोधरा ने अपने बेटे राहुल का पालन पोषण करते हुए अपने जीवन की सारी सुख सुविधाओं को त्यागकर एक संन्यासिनी का जीवन अपना लिया। उन्होंने मूल्यवान वस्त्राभूषण  त्यागकर एक सामान्य सा पीला वस्त्र धारण किया और दिन में एक बार भोजन किया।
सिद्धि हेतु स्वामी गए ये गौरव की बात,
                     लेकिन बिना कहे गए यही बड़ा आघात कवि मैथिलीशरण गुप्त
यशोधरा को जीवन-भर यही दुख रहा कि स्वामी यदि बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए घर छोड़ कर गए तो मुझसे कहकर क्यों नहीं गए क्या वो मुझे पहचान नहीं पाये थे? हालांकि विद्वानों को बुद्ध की बोध पिपासा,जन-कल्याण के कार्य और शिक्षाएँ तो याद रहीं लेकिन वह यशोधरा के त्याग और विरह को इतना प्रकाश में नहीं ला पाए।

सिद्धार्थ के गृह त्याग का वर्णन बौद्ध ग्रंथों में बड़े विस्तार से और प्रभावशाली ढंग से किया हैं। कहते हैं कि जब राहुल सात दिन का हो गया तो उसी दिन सिद्धार्थ का हृदय अत्यंत चंचल हो उठा। संसार का सारा सुख उन्हें काटने को दौड़ता था। चारों ओर आधि- व्याधि की प्रचुरता दिखाई पड़ती थी। उसी दिन अर्धरात्रि को वे उठ खड़े हुए। उस समय उनकी सेविकाएँ अर्ध नग्न अवस्था में सो रही थीं, जिसे देखकर उनको और भी विरक्ति हो गई। उन्होंने चुपके से अपने सारथी चंडज (छन्नक) को जगाया और अपने प्यारे घोड़े 'केतक' को लाने की आज्ञा दी। सारथी यह सुनकर आश्चर्य में आ गया। उसने सिद्धार्थ को इस समय घूमने को मना किया, पर वे नहीं माने।

राजमहल छोड़ने से पहले एक बार सिद्धार्थ अपनी स्त्री के शयनागार में गए, किंतु उस समय उनकी स्त्री पुत्र के मुख पर हाथ रखकर सो रही थी। जाग जाने के डर से उन्होंने उसका हाथ न हटाया। उस समय यशोधरा भी अपार रूपवती जान पड़ रही थी पर सिद्धार्थ अपने हृदय को पक्का करके स्त्री और पुत्र की ममता को त्यागकर बाहर निकल आए और जंगल की तरफ रवाना हो गए।

प्रातःकाल होने पर उन्होंने अपने वस्त्र एक भिखारी से बदल लिए और तलवार से अपने घुँघराले लंबे केशों को काट डाला। एक स्थान पर उन्होंने यज्ञ होते देखा, जिसमें वेदी के निकट बहुसंख्यक पशुओं को बलिदान दिया जा रहा था और चारों ओर रक्त ही रक्त दिखाई पड़ रहा था। यह दृश्य देखकर उनको बड़ी वेदना हुई और वे अपने मन में विचार करने लगे कि ये लोग कितनी नीचता का काम कर रहे है ऐसे घृणित कार्यों से मन कि शांति कदापि नहीं मिल सकती ।

 सिद्धार्थ फिर जंगल में पहुँच गए और दो तपस्वी ब्राह्मणों के पास रहकर वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, पर जब एक वर्ष तक वेदाध्ययन से भी उनको शांति प्राप्ति के कुछ लक्षण दिखाई न पड़े तो वे अन्य पाँच व्यक्तियों के साथ घोर तपश्चर्या करने के निमित्त दूसरे घने जंगल में चले गए।

इस प्रकार वे विभिन्न सिद्धांतों के अनुयायी साधुओं के पास रहकर कई वर्ष तक तप करते रहे, जिससे उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया और कार्य शक्ति भी बहुत घट गई, पर इससे न तो उनके मन की समस्याओं का समाधान हुआ और न उनको आत्मिक शांति ही मिल सकी। अंत में वे इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल गृह त्यागकर वन में निवास करने और स्वेच्छा से शारीरिक कष्ट सहन करने से ही ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

इसके लिए आवश्यक है कि पूर्वाग्रहों की चिंता न करके संसार की स्थिति और समस्याओं पर उदार भाव से विचार किया जाए और बुद्धिसंगत था तर्कयुक्त निर्णय को स्वीकार किया जाए। इस मार्ग पर चलने से उनके हृदय में सत्य ज्ञान का उदय हुआ। कहा जाता है कि यह ज्ञान उनको वर्तमान गया नगर के समीप एक बरगद के वृक्ष के नीचे निवास करते हुए प्राप्त हुआ, जिससे उसका नाम 'बोधि वृक्ष' पड़ गया। आगे चलकर वह स्थान बुद्ध मत वालों का प्रधान तीर्थ स्थान बन गया।                                                             सर्वाधिकार सुरक्षित



कविकुल शिरोमणि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (विशेष लेख)


भारत भूमि पर हर युग, हर काल में महापुरुषों का अवतरण होता रहा है । इन महापुरुषों ने  केवल भारत को अपितु समूचे विश्व को अपने कृतित्व और व्यक्तित्व से अभिसिंचित कर इस विश्व धरा का मान बढ़ाया है और लोगों की सुषुप्त मानसिकता को जागृत किया है ।
ऐसे महापुरुष जब तक शरीर में होते हैं सतत राष्ट्र हित के, समाज हित के कार्य करते हैं लेकिन जब ये अपने शरीर को छोड़ देते हैं तो इनका यश रूपी शरीर इनका कार्य करता है । ऐसे इतिहास में अनेकानेक विद्वानों का परिचय मिलता है जिन्होंने जीवनभर जीवन देवता की साधना आराधना की ।
आज हम भारत के एक ऐसे मनीषी के कृतित्व और व्यक्तित्व की चर्चा कर रहे हैं जिनका नाम पूरा विश्व बड़े सम्मान के साथ लेता है ,जी हाँ हम बात कर रहे हैं कविकुल शिरोमणि श्री रवींद्रनाथ टैगोर (ठाकुर) की जिन्हें लोग श्रद्धा से गुरुदेव कहकर पुकारते थे ।
ये वो महान विभूति थे जिनसे भारतीयों के साथ-साथ अंग्रेजी सत्ता भी प्रभावित थी । इनका चिंतन,मनन,लेखन व्यक्ति और समाज को झकझोर देने वाला था । इनकी साहित्यिक रचनाएँ जितनी उस समय प्रासंगिक तथा लोकप्रिय थी उतनी है आज भी है जिन्हें समय-समय पर सिनेमा भी अपने पर्दे पर उतारता रहता है ।
हमारे देश के इस महान कवि का जन्म कोलकाता की जोड़ासांको की हवेली में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेंद्र नाथ टैगोर था और इनकी माता का नाम शारदा देवी था। रवीन्द्रनाथ टैगोर के कुल 12 भाई बहन थे और वे अपने माता पिता की 13 वीं संतान थे। रवींद्रनाथ टैगोर जी के बचपन में ही इनकी माता का निधन हो गया था और इनके पिता ने अकेले ही इनका और इनके भाई बहनों का पालन पोषण किया था।
रवींद्र नाथ टैगोर ने सेंट जेवियर नामक स्कूल से अपनी शुरूआत शिक्षा हासिल कर रखी है। रवींद्रनाथ टैगोर के पिता उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे इसलिए उन्होंने टैगोर का दाखिला  1878 में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में करवा दिया था। कुछ समय तक यहां पर कानूनी पढ़ाई करने के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पढ़ाई को बीच में छोड़ने का फैसला किया और वे बंगाल वापस आ गए। दरअसल रवींद्रनाथ टैगोर की रुचि साहित्य में काफी थी और वे साहित्य के क्षेत्र में ही अपना करियर बनाना चाहते थे। साल 1880 में बंगाल आने के बाद इन्होंने कई सारी कविताएं, कहानियां और उपन्यास प्रकाशित किए और वे बंगाल में प्रसिद्ध हो गए।
साल 1883 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मृणालिनी देवी से विवाह किया था। जिस वक्त इन्होंने मृणालिनी देवी से विवाह किया था उस समय मृणालिनी देवी की आयु महज 10 साल थी। इस विवाह से इन्हें पांच बच्चे हुए थे, जिनमें से दो बच्चों की मौत बचपन में ही हो गई थी। वहीं साल 1902 में रवीन्द्रनाथ टैगोर की पत्नी मृणालिनी देवी का भी निधन हो गया था।
रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन काल में कई सारी किताबें, नाटक, निबंध, लघु कथाएं और कविताएं लिख रखी हैं। अपने नाटक, किताबें और लघु कथाओं के माध्यम से ये गलत रीति-रिवाजों के नकारात्मक असर के बारे में लोगों को बताया करते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई लघु कथा ‘काबुलिवाला’, ‘क्षुदिता पश्न’, ‘अटोत्जू’, ‘हैमांति’ काफी प्रसिद्ध हैं । जबकि इनके द्वारा लिखे गए उपन्यासों में ‘नौकादुबी’, ‘गोरा’, ‘चतुरंगा’, ‘घारे बायर’ और ‘जोगजोग’ विश्न भर में प्रसिद्ध हैं। कविताएं, उपन्यास और लघु कथाओं को लिखने के अलावा रवींद्रनाथ टैगोर को गीत लिखने में भी काफी रुचि थी  और इन्होंने अपने जीवन काल में कुल 2230 गीत भी लिखे थे।
रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिख गई गीतांजलि नामक कविता के लिए इन्हें साल 1913 में नोबेल पुरस्कार मिला था। जिसके साथ ही वे भारतीय मूल के और एशिया के पहले ऐसे व्यक्ति बन गए थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। वहीं साल 1915 में इन्हें अंग्रेजों द्वारा ‘सर’ की उपाधि भी दी गई थी।
रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने जीवन की अंतिम सांस कोलकत्ता में 7 अगस्त 1941 में ली थी। जिस वक्त इनका निधन हुआ था इनकी आयु 80 साल की थी और इनके निधन के साथ ही हम लोगों ने एक महान कवि को खो दिया था।
इस महाकवि का कलेवर तो हमारे बीच नहीं है लेकिन अपनी रचनाओं के माध्यम से सदैव ये हमारे हृदयों में निवास करते रहेंगे और हमें समाज के लिए कुछ श्रेष्ठ करने के लिए प्रेरित भी करते रहेंगे | ऐसे महापुरुष के चरणों में हमारा श्रद्धासिक्त नमन ।                                    सर्वाधिकार सुरक्षित


3 May 2020

देवर्षि नारद जयंती (विशेष लेख)

देवर्षि नारद भगवान के जितने प्रेमी भक्त हैं, भगवान भी नारद जी के उतने ही बड़े भक्त हैं ।लेकिन आज की पीढ़ी नारद जी का जिस तरह से चरित्र-चित्रण करती है, उससे उनकी छवि उपहास के पात्र और चुगलखोर की बन गई है जो अतिनिंदनीय है । आज आवश्यकता है कि देवर्षि नारद का वास्तवित चरित्र समाज के सामने आए। प्राणिमात्र के कल्याण की भावना रखने वाले नारदजी ईश्वरीय मार्ग पर अग्रसर होने की इच्छा रखने वाले प्राणियों को सहयोग देते रहते हैं । उन्होंने कितने प्राणियों को किस प्रकार भगवान के पावन चरणों में पहुँचा दिया, इसकी गणना संभव नहीं है । वे सदा भक्तों, जिज्ञासुओं के मार्गदर्शन में लगे रहते हैं ।

वे तीनों लोकों में घटने वाली प्रिय-अप्रिय घटनाओं की जानकारी भगवान तक पहुँचाते हैं । वे देवताओं के साथ-साथ दानवों का मार्गदर्शन भी करते हैं ।नारद जी के विषय में शोध करते हुए उनके जन्म से संबन्धित dवैसे तो अनेक प्रकार की कथाएँ पढ़ने को मिली लेकिन उनमें से एक कथा जो मुझे सबसे अधिक प्रिय और प्रामाणिक मिली वह ये है कि नारद जी का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के यहाँ हुआ । माँ बहुत गरीब थी और जहां जो काम मिल उसे करके अपना व अपने पुत्र का जीवन यापन करती एक दिन नगर सेठ ने कुछ साधु-संतों को नगर में चातुर्मास के लिए बुलाया और उस विधवा माँ को उनकी सेवा में रख दिया। वह नित्य उन साधु संतों की सेवा में लगी रहती । इसके बदले में उसे और उसके पुत्र को भोजन आदि मिल जाता था। जब भी साधु सत्संग करने बैठते तो माँ बेटे दोनों उनके सत्संग को ध्यान से सुना करते इतने छोटे बालक को शांत चित्त सत्संग सुनते देख साधु संत उसे स्नेह करने लगे ।

भगवत कथा के प्रभाव से उस बालक का मन शुद्ध हो गया और उसके पिछले जन्मो के समस्त पाप धुल गए। नगर से जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर बालक को भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया और बालक नित्य ईश्वर का ध्यान और जप करने लगा ।

एक दिन साँप के काटने से उसकी माता की मृत्यु हो गई बालक अकेला रह गया । अतः वह गिरि, कन्दराओं में जाकर भगवान नाम का जप करने लगा। बालक के शुद्ध हृदय की पुकार भगवान तक पहुंची और भगवान उसके हृदय में प्रकट हो गए और उसे कहा कि समय आने पर तुम्हारा ये भौतिक शरीर छूट जाएगा और तुम मेरे प्रिय पार्षद के रूप में मुझे प्राप्त करोगे। समय आने पर नारद जी का पंच भौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इन्होंने नारद-भक्ति सूत्र की रचना की जिसमें भक्ति की बड़ी ही सुंदर व्याख्या है।

यह ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनंद के सागर और विश्व के हितकारी हैं। वह श्रीमन्नारायन के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं । सर्वोत्तम भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है।

जिस प्रकार भक्त अपने भगवान का चिंतन करते है उनका ध्यान और स्तुति करते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी अपने भक्तों का ध्यान, चिंतन और यहाँ तक की उनकी स्तुति भी करते हैं इसका एक प्रमाण मुझे इस प्रकार मिला।

एक समय महीसागर संगम तीर्थ में भगवान श्री कृष्ण ने देवर्षि नारदजी की पूजा अर्चना की । वहाँ महाराज उग्रसेन ने पूछा : "जगदीश्वर श्री कृष्ण ! आपके प्रति देवर्षि नारदजी का अत्यंत प्रेम कैसे है?"
भगवान श्री कृष्ण ने कहा: "राजन! मैं देवराज इन्द्र द्वारा किये गए स्तोत्र पाठ से दिव्य-दृष्टि संपन्न श्री नारदजी की सदा स्तुति करता हूँ । आप भी वह स्तुति सुनिये :

'जो ब्रह्माजी की गोद से प्रकट हुए हैं, जिनके मन में अहंकार नहीं है, जिनका विश्व-विख्यात चरित्र किसी से छिपा नहीं है जो कामना या लोभ वश झूठी बात मुँह से नहीं निकालते, जो जितेन्द्रिय हैं, जिन में सरलता भरी है और जो यथार्थ बात कहने वाले हैं, जो तेज, यश, बुद्धि, विनय, जन्म तथा तपस्या इन सभी दृष्टियों से बड़े हैं, जिनका स्वभाव सुखमय, वेश सुन्दर तथा भोजन उत्तम है, जो प्रकाशमान, शुभदृष्टि-संपन्न तथा सुन्दर वचन बोलने वाले हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ ।
इस स्तुति के कारण वे मुनि-श्रेष्ठ मुझ पर अधिक प्रेम रखते हैं । देवर्षि नारदजी की इस स्तुति के द्वारा भगवान भक्तों के आदर्श गुणों को प्रकट करते हैं । भक्त की इतनी महिमा है कि स्वयं भगवान भी उनकी स्तुति करते हैं ।
अतः जो लोग नारद जी का उपहास करते हैं उन्हें चुगलखोर आदि शब्दों से अपमानित करते हैं उन्हें देवर्षि नारद के इन विशेष गुणों का चिंतन करना चाहिए क्योंकि वे इतने महान हैं कि भगवान भी उनकी स्तुति करते हैं। जीवन-मुक्ति की इच्छा रखने वाले साधु पुरुषों के हित के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहते हैं ।
अतः उनके चरणों में मुझ अकिंचन का कोटि-कोटि प्रणाम हैं ! सर्वाधिकार सुरक्षित
  

अतिविचित्र है जिह्वा हमारी....

हमारी एक अति महत्वपूर्ण इंद्रिय है, ‘जीभ’ जिसे ‘रसना’ तथा ‘वाणी’ भी कहा गया है। इसकी विशेषता हैं कि ये भोजन के टुकड़े कर उन्हें शरीर के भीतरी भागों में पहुंचाने के साथ-साथ भोजन के रस अर्थात् उसके स्वाद का हमें अनुभव कराती है । इसके ये दोनों प्रकार के कर्म इस इंद्रिय को शरीर के सभी अंग अवयवों में विशेष महत्व का बना देते हैं । रसना और वाणी इन दोनों ही शब्दों का अलग-अलग अर्थ और महत्व है दोनों का व्यवस्थित रूप से उपयोग अति आवश्यक है। यदि जीभ हमारे विवेक रूपी अंकुश में रहे तो हमें उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करती है वहीं अगर इस पर अंकुश न रखा जाये तो ये हमारे स्वास्थ्य का नाश करती हुई हमारी जीवन शक्ति का ह्रास करती है साथ ही विभिन्न प्रकार के रोग हमारे शरीर में भर देती है।
जिह्वा रसना के रूप में…
ऐसा भी कहा जाता है कि जो व्यक्ति जिह्वा पर नियंत्रण नहीं रख सकता वह अपनी इंद्रियों को भी साध नहीं सकता और जब तक इंद्रियों को न साधा जाये तब तक कोई लक्ष्य भी हांसिल नहीं किया जा सकता । लेकिन हम मनुष्यों ने ज़ायके की वजह से,अनावश्यक चीजों की वजह से और न खाने वाली चीजों को खाने की वजह से अपने पेट का सत्यानाश कर लिया। अपनी सेहत को खराब कर लिया। अगर आपको सेहत ठीक रखनी है, मानसिक स्तर ठीक रखना है, तो आप संयम कीजिए।

कई मनुष्यों के द्वारा किया जाने वाला मांस भक्षण केवल अपनी स्वाद रूपी इच्छा को तृप्त करने के लिए ही किया जाता है।  हम हैं तो मनुष्य लेकिन अपनी स्वाद लोलुपता के कारण हमने अपने पेट को कब्रिस्तान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी , जबकि प्रकृति ने पोषक तत्वों से भरपूर फल और सब्जियाँ दी हुई हैं अनेकों प्रकार के अनाज हैं ऐसे में उन सात्विक खाद्यों को छोड़कर तामसिक और विदेशी भोजन पीज़ा, पास्ता, मेगी, बरगर, हॉटडॉग जैसे विदेशी खान-पान का प्रयोग सर्वथा स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुचित ही कहा जाएगा। 

जो व्यक्ति अपनी जिह्वा पर नियंत्रण रख सकता है वही अपनी कामेन्द्रियों को नियंत्रित कर सकता है ऐसे मनुष्य के लिए ब्रह्मचर्य रख पाना आसान होता है।
जिह्वा ‘वाक् शक्ति’ अर्थात वाणी के रूप में
वाणी अर्थात ‘वाक् शक्ति’ जिस सरस्वती भी कहते हैं। वाणी के द्वारा आप संसार को अपना मित्र भी बना सकते हैं और शत्रु भी, मीठी और संयत वाणी के महत्व को समझने वाला व्यक्ति बिना किसी अन्य साधन के संसार को मोहित कर सकता है । ये ही भाव प्रस्तुत दोहे में दृष्टिगोचर होता है...
''कौआ काको धन हरे, कोयल काको देत,
मीठे वचन सुनायके जग अपनो कर लेत ।।''
मैं तो हमेशा सच बोलता हूँ और सच्ची बात हमेशा कड़वी होती है इसलिए लोग बुरा मान जाते हैं जबकि वास्तविकता ये है कि सत्य का कड़वेपन से कोई ताल्लुक नहीं है । कड़वेपन का जो ताल्लुक है, वह आदमी के अहंकार से है।
 यदि आपकी वाणी सच्चाई का प्रदर्शन करने के लिए कड़वे लहज़े और शब्दों का प्रयोग करेगी तो निश्चित रूप से जिससे कड़वे शब्द कहे जाएंगे वो आपकी बात मानने से रहा इसका उलटा असर ये होगा कि उसकी दृष्टि में आपका सम्मान कम हो जाएगा और दूरियाँ बड़ने लगेंगी जैसा कि आज हमारे परिवारों में देखने को मिलता है ।
 जिद व्यक्ति की वाणी हर वक्त बिच्छू के डंक की तरह दूसरों को कष्ट पहुंचाती रहती है और दूसरों का अपमान करती रहती है ऐसे व्यक्तियों से लोग किनारा करने लगते हैं । यहाँ तक कि उनके द्वारा कही गई सही बात भी नहीं सुनी जाती और सुन भी ली जाए तो उसके पीठ पीछे लोग उसे भला बुरा ही कहते हैं। जो आदमी दूसरों को छोटा समझता है, वही कड़वे वचन बोल सकता है। जो आदमी घमंड से भरा हुआ है, वही कड़वे वचन बोल सकता है। 

आप सामने वाले की इज्जत कीजिए। अगर सामने वाले से शिकायत है तो उसे प्यार से समझाइए। जिनकी शिकायत आप दूर करना चाहते हैं, उनको समझाने की कोशिश कीजिए। अपने दिमाग को  संतुलित रखकर प्रेम और संतुलित शब्दों के साथ उन्हें बुरी से बुरी बात समझाई जा सकती है।
गलत सलाह देना, कड़वे वचन बोलना, असत्य बोलना, न खाने योग्य चीज़ें जैसे- मांस,मछली,शराब बुरी चीजें खाना ये सब वाणी के असंयम हैं जिनसे वाणी का प्रभाव समाप्त होने लगता है। अगर आप जीभ पर संयम रख सकें तो आपको आध्यात्मिकता के वे लाभ मिल सकते हैं, जिनसे लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते लोग आपको सुनना पसंद करेंगे 

कई साधु महात्मा जब कथा सत्संग करते हैं तो हजारों की संख्या में लोग एक चित्त होकर उन्हें सुनते हैं इसका कारण ये है कि उन संतों ने वाणी के संयम के द्वारा  अपनी वाणी को प्रभावशाली बनाया है यदि सावधानी पूर्वक वाणी का संयम रखा जाये तो व्यक्ति के द्वारा कहे गये वाक्य फलने लगते हैं उसके द्वारा दिये जा रहे आशीर्वाद या श्राप फलीभूत होने लगते हैं आपको शाप देने और वरदान देने की शक्ति मिल सकती है।

अतः वाणी के अपव्यय से बचें और दूसरों के लिए हितकर वचन कहें तो पूरा संसार आपका मित्र बन जाएगा और आपका सम्मान भी करेगा। सर्वाधिकार सुरक्षित

विद्यार्थी जीवन में संकल्प शक्ति की उपयोगिता एवं महत्व

संकल्प एक ऐसी अद्भुत शक्ति का नाम है, जिसके माध्यम से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव नहीं है। जब विद्यार्थी पूरे मनोयोग से किसी कार्य को करने का संकल्प लेता है तो उसके मार्ग में आने वाले कंटक उसकी संकल्प शक्ति के आगे तृणवत् बह जाते हैं । संकल्प का शाब्दिक अर्थ है दृढ़ता अर्थात पक्का इरादा। विद्यार्थी  को जीवन के सभी क्षेत्रों में संकल्प शक्ति कि आवश्यकता पड़ती है ।संकल्प की पूर्ति का प्रयास पूरे मन से किया जाए स्वयं पर और ईश्वर की कृपा पर विश्वास किया जाए तो असंभव कार्य भी सिद्ध होते देर नहीं लगती । दृढ़-इच्छा शक्ति वाले विद्यार्थी  के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं या यूं भी कह सकते हैं कि दृढ़-इच्छा शक्ति से लबरेज़ विद्यार्थी के समक्ष समूची सृष्टि नतमस्तक रहती है ।

मन को नियंत्रित करने और इच्छाओं को वश में करने से ही संकल्प शक्ति बढ़ती है, परंतु यदि मन मैं किसी के अहित की भावना, स्वार्थ या वासना प्रवेश कर जाए तो संकल्प शक्ति निर्बल होते देर नहीं लगती। इच्छाएँ जितनी कम शुद्ध, सात्विक और लोक-कल्याणकारी होंगी उतनी ही संकल्प शक्ति बलवान होगी। 

यदि संकल्प शक्ति दृढ़ हो जाए तो दो अन्य शक्तियों का प्राग्ट्य स्वतः ही हो जाता है। इसमें पहली शक्ति है ‘अनुमान शक्ति’ दूसरी है ‘स्मरण शक्ति’ ।संकल्प शक्ति का विकास करने के लिए आवश्यक है कि हम अपने अंदर सहनशीलता, प्रसन्नता, सत्यता, दृढ़ता, धैर्य, और नियमित ध्यान जैसे गुणों को विकसित करें साथ ही असहनशीलता, अप्रसन्नता व चिड़चिड़ाहट, दुर्बलता और अधीरता जैसे दुर्गुणों से सतर्क रहें । ऐसे प्रयास करते रहने से संकल्प में बल आता है तथा हमारे आस-पास के लोग भी हमसे प्रसन्न रहते हैं।

यदि कभी परिस्थितियाँ हमारे अनुकूल नहीं भी हैं तो कोई बात नहीं आप परिस्थितियों को नहीं बल्कि अपनी मन:स्थिति को बदलने का प्रयास करें। किसी भी परिस्थिति से भागें नहीं बल्कि उसका सदुपयोग करते हुए प्रत्येक परिस्थिति में अपने आप को प्रसन्न रखने का स्वभाव बनाएँ। इससे हमारे व्यक्तित्व में तेजस्विता और प्रखरता का विकास होता है।

संकल्पों का चुनाव बड़ी सावधानी पूर्वक करें और सबसे पहले वे संकल्प लें जो थोड़े से प्रयत्न और आसानी से पूर्ण हो जाएँ क्योंकि यदि शुरुवात में ही बड़े संकल्प ले लेंगे तो उन्हे निभाने में परेशानियाँ आएंगी और यदि वे पूरे नहीं हुए तो हम हतोत्साहित हो जाएँगे इसलिए पहले छोटे-छोटे संकल्पों का व्रत लें और पूरी तत्परता से उनको पूर्ण करें इस प्रकार धीरे-धीरे आगे बढ़ते जाएँ । 
जो भी विद्यार्थी  किसी भी क्षेत्र में सफलता पाना चाहता है उसके लिए ये भी आवश्यक है कि वह अपने मन -मस्तिष्क को शांत रखे अत्यधिक विचारों के प्रवाह से बचे अन्यथा संशय उत्पन्न होते हैं कि मेरा काम होगा या नहीं, मुझे सफलता मिलेगी या नहीं ऐसे विचारों से संकल्प बल कमजोर होने लगता है।
अत: सफलता के लिए मन को अनुशासित रखना आवश्यक होता है जितना अनुशासन होगा संकल्प में उतनी तेजस्विता आएगी और आशानुरूप सफलता प्राप्त होगी।

किसी भी कार्य को करते हुए मन को शांत रखना और कर्म करते हुए ईश्वर में विश्वास रखना चाहिए। उन सफल लोगों का चिंतन करना चाहिए, जिन्होंने विकट परिस्थितियों पर जीत हासिल की और सरलता एवं सहजता को अपनी सफलता का माध्यम बनाया। जबकि ऐसे धूर्त और दुष्ट लोगों से दूरी बनानी चाहिए जिन्होंने दूसरों का हक मारकर सफलता प्राप्त कर समाज में अपना स्थान बनाया है ।
लोग हमेशा आपके लिए अच्छा सोचें सदैव आपका सम्मान हो ऐसी भावनाओं को मन में न आने दें क्योंकि जो विद्यार्थी  सात्विक आचरण करते हैं सही मार्ग पर चलते हैं प्राय: उनको ही समस्याएँ ज्यादा होती है इसलिए समस्याओं का स्वागत करें उनसे डरें नहीं । समस्याएँ हमारे व्यक्तित्व में और सुधार लाती हैं साथ ही ये हमारे लिए सफलता का मार्ग भी खोल देतीं हैं ।

अत: दृढ़ संकल्प के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें और दूसरों के लिए प्रेम, दया, करुणा एवं उदारता को अपने जीवन में उतारें तो निश्चित रूप से आप अपने लक्ष्य को प्राप्त करने मैं सक्षम होंगे ।
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आत्महीनता एक अभिशाप

किसी मनुष्य के सामान्य गुणों कि प्रशंसा कर उसे सम्मान देना तथा उसे और श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रेरित करना हम सभी मनुष्यों के मनुष्यत्व के विशेष गुणों को दर्शाता है ।इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति अपने से पद या उम्र में छोटे व्यक्ति से दुर्व्यवहार करता है उसकी छोटी-छोटी गलतियों के लिए उसे भला बुरा कहता है या दूसरों का अपमान करने के अवसरों की तलाश में रहता है  तो वह व्यक्ति जाने अनजाने अपने ही ओछेपन का परिचय देता है ।इस प्रकार का अमानवोचित व्यवहार दूसरे व्यक्ति के मन में आत्महीनता के रूप में सदा के लिए बैठ जाता है जिससे उबरने में कठिन परिश्रम और लंबा समय लगता है ।

मनुष्य के जीवन में सम्मान का बढ़ा महत्व है यदि व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए किसी कार्य हेतु सम्मान मिलता है तो उस व्यक्ति का मनोबल आकाश की ऊंचाइयों को छूने लगता है तथा वह और सजगता से अपने कर्तव्यों के प्रति जागृत हो जाता है ।वहीं यदि किसी व्यक्ति को हर बात में रोका टोका जाये बात-बात में उसकी गलती बताई जाये तो चाहे कितना भी बुद्धिमान व्यक्ति क्यों न हो उसे अपने अंदर हीनता का भाव अनुभव होने लगता है और जब यह भाव धीर-धीरे उसके व्यक्तित्व में घर बना लेता है तो वह व्यक्ति के सभी गुणों को दीमक की भांति चट कर जाता है । विद्यार्थियों के परिप्रेक्ष्य में भी यही बात आती है |

‘आत्महीनता’ अर्थात अपनी योग्यता अपने ज्ञान के प्रति अविश्वास रखना और स्वयं को दूसरों की तुलना में गिरा हुआ मानना है यह एक ऐसा मानसिक रोग है जो विद्यार्थियों के जीवन की भावी संभावनाओं को ध्वस्त कर देता है ।कहते हैं कि हाथी को अन्य प्राणी डील-डौल में उनके वास्तविक आकार-प्रकार से कहीं बड़े दिखाई देते हैं। उसकी आंख की बनावट ऐसी होती है कि वह अन्य प्राणियों का आकार कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर देखती है, इसी कारण हाथी दूसरे प्राणियों से भयभीत रहता है और सामान्यतः एकाएक किसी पर आक्रमण नहीं करता । इसी प्रकार आत्महीनता के कारण विद्यार्थियों अपने अंदर छुपी हुई संभावनाओं को भूल कर परिस्थितियों को उस प्रकार नहीं देखता जिस प्रकार की वह होती हैं बल्कि अपनी छोटी से छोटी समस्या को भी विकराल समझता है और एक प्रकार के अज्ञात भय से आतंकित रहता है ।

 इस प्रकार की मनोविकृति के कारण अधिकतर विद्यार्थियों मन ही मन स्वयं को तिरस्कृत करते रहते हैं और यह विकृति कब उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति बन जाती है उन्हें पता भी नहीं चलता और वे सही व उचित बात भी नहीं कह पाते इस प्रकार की मनःस्थिति का सबसे ज्यादा प्रभाव उनकी शिक्षा पर पड़ता है उन्हें एक डर लगा रहता है कि पता नहीं मैं परीक्षा में पास हो पाऊँगा या नहीं और ये डर ही उनकी योग्यता को निगल जाता है |
विचारणीय है कि बच्चों में आत्महीनता की यह भावना कहाँ से क्यों उत्पन्न होती है? मनोविज्ञान इसके कई कारण बताता हैं। बच्चों को बचपन में आवश्यक स्नेह-सम्मान न मिल पाना, माता-पिता या अभिभावकों की और से उपेक्षा, उपहास का कारण बनते रहना या अभावग्रस्त स्थिति में समय गुजारते रहना आदि ऐसे कारण हैं जो बचपन से ही ऐसी मानसिक परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण बच्चे बड़े होकर भी आत्महीनता की महाव्याधि के शिकार बनते हैं।  यहाँ तक ही नहीं कई बच्चे तो नशे की लत में पढ़कर अपना जीवन का नाश कर बैठते हैं ऐसे बच्चे जिन्हें माता-पिता का स्नेह नहीं मिला तथा जो अकेलेपन के शिकार हैं और बचपन से ही अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं उनमें चिंताजनक रूप में आत्महीनता की भावना पाई जाती है और प्रायः यही लोग पथभ्रष्ट होते हैं।

अतः उससे छुटकारा पाना अत्यंत आवश्यक है। परिस्थितियों को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की आदत और अपने आप को दूसरों के सामने छोटा, हेय, हीन समझने का स्वभाव आत्महीनता की भावना का प्रमुख लक्षण है। इस व्याधि को जड़-मूल से मिटाने हेतु आवश्यक है कि हम उचित और अनुचित की पहचान कर सकें और अपने मनोबल को इतना दृढ़ करें कि समय आने पर हम उचित को ही अपनाएँ और अनुचित का दृढ़ता से बहिष्कार और विरोध कर सकें सहमत होना और हां कहना अच्छी बात है, पर वह इतनी अच्छी बात नहीं है कि यदि कोई बात अनुचित लग रही है और अनुचित लगने के पर्याप्त कारण हैं, तो भी हां किया ही जाए और सहमत हुआ ही जाए। स्पष्ट रूप से, निःसंकोच भाव से अस्वीकार करने की हिम्मत भी रखनी चाहिए। सोच-विचार करने में यह बात भी सम्मिलित रखनी चाहिए कि हर सही-गलत बात में हां-हां करते रहने से दूसरों की दृष्टि में अपने व्यक्तित्व का वजन घट जाता है और आत्मगौरव को ठेस पहुंचती है।

एक मानसिक रूप से परिपक्व व्यक्तित्व वही है जो अपने विचारों को स्पष्ट किंतु नम्र और संतुलित शब्दों में व्यक्त कर सके ।मनुष्य ईश्वर का पुत्र है और वेदों, पुराणों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न कहा गया है तो जब हमारे पिता परमात्मा हैं तो हम हीन कैसे हो सकते है हमारे अंदर भी अनेकानेक महत्वपूर्ण योग्यताएं विद्यमान है जैसे ही ये भाव हम अपने मन में लाते है हमारे क्षुद्र विचार तिरोहित होने लगते है कुंठाओं की गांठ खुलने लगती है ,आवश्यकता बस यह है कि हम इस चिंतन को निरंतर बनाए रखें ।  सर्वाधिकार सुरक्षित



30 Apr 2020

मजबूर हूँ, मैं मज़दूर हूँ.....


‘मज़दूर’ एक ऐसा शब्द जिसके ज़हन में आते ही दुख, दरिद्रता, भूख, अभाव, अशिक्षा, कष्ट, मजबूरी, शोषण और अभावग्रस्त व्यक्ति का चेहरा हमारे सामने घूमने लगता है। आप जब भी किसी पुल से गुज़रें तो ये ज़रूर सोचें कि ये न जाने किन मज़दूरों के कंधों पर टिका हुआ है, जब आप नदियों के सशक्त और मजबूत बाँधो को देखें तो याद करें कि ये न जाने कितने ही मजदूरों का भुजबल है, जिसने इन वेगवती, अभिमानिनी नदियों को बांध दिया,गगनचुंबी इमारतों की नींव को सींचने वाले मजदूरों को आज याद करना ज़रूरी है। मजदूर दिवस पर हमारा कर्तव्य है कि हम उन सभी मजदूरों को प्रणाम करें जो अपने अथक परिश्रम से इस धरा को सौंदर्य प्रदान करने में लगे हुए हैं, क्योंकि संसार के समस्त निर्माण इन्हीं के हाथों का हुनर है और इन्हीं के कंधों पर ही टिका हुआ है ।
हमारे देश में मजदूरों की कोई निश्चित उम्र नहीं है कहने को कानून तो बने हैं लेकिन उनका सख्ती से पालन करने में हम पिछड़ गए हैं इसलिए आपको कोई छोटू सड़क किनारे पत्थर तोड़ता,चाय बेचता या अखबार बाँटता मिल जाए तो आश्चर्य मत करना ।
मज़दूर वो शख्स है जिसने शहरों का निर्माण किया है लेकिन वो स्वयं शहरों से उपेक्षित है खूबसूरत शहरों का निर्माण करने वाले मजदूरों की बस्ती लगभग शहर से बाहर गंदगी के ढेरों के बीच देखने को मिलती है । जहां उनके अभावग्रस्त जीवन को आसानी से देखा और उनके त्रस्त चेहरों को बड़ी आसानी से पढ़ा जा सकता है हमारे देश के मज़दूर पीड़ित और शोषित जीवन जीने को मजबूर हैं ।
मज़दूर समाज का एक ऐसा अंग है जो विषम परिस्थितियों में भी काम करना बंद नहीं करता क्योंकि भूख किसी भी परिस्थिति को नहीं जानती । इनके घर गंदे और अभावग्रस्त होते हैं जहां ये अपना नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं न जाने समाज इन्हें किस पाप की सज़ा देता है?
इन श्रमिकों के धूप से झुलसे चेहरे,फटे हुए और उभरी नसों वाले हाथ इनके कठोरतम परिश्रम की गवाही देते हैं। काम करते हुए ज़ख्मी हुए हाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं हैं अगर छुट्टी ली तो आधे दिन कि मजदूरी गई समझो इसलिए हाथों के ज़ख़्मों पर कपड़े की चिंदी बांधे ये मजदूरी करते रहने को मजबूर हैं और वहीं कहीं पास ही इनके बच्चे भविष्य के मज़दूर बनने के लिए तैयार हो रहे होते हैं जिनका शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं हैं कहने के लिए देश में सर्व शिक्षा अभियान चल है। मज़दूर कितना भी अभावग्रस्त और दीन-हीन क्यों न हो पर देश कि उन्नति तो हो रही है। उसकी मेहनत और प्रतिभा देश के काम आ रही है और देश का स्वरूप निखरता चला जा रहा है । ये निश्चित रूप से मज़दूर के लिए गर्व कि बात है । इतिहास साक्षी है कि हमारी विरासत का निर्माता भी मज़दूर है वो कहलाता मज़दूर है परंतु वो निर्माता है और न्यूनतम पारिश्रमिक में अपना जीवन चलाता है। 
वास्तव मैं देखा जाए तो वास्तविक सम्मान का अधिकारी मज़दूर ही है क्योंकि यदि वो काम करना बंद कर दे तो बड़ी-बड़ी मशीनें कल-कारखाने बंद पड़ जाएं। हमारे लिए छोटी-बड़ी सभी वस्तुओं का निर्माण मज़दूर ही करता है इसलिए वो निर्माता और हम उपभोक्ता है और उपभोक्ता से कहीं ऊंचा स्थान निर्माता का होता है ।
लेकिन निर्माता होने के बाद भी उसे सामान्य वस्तुएं भी उपभोग के लिए नहीं मिलती, क्योंकि सुविधाएं पैसों से मिलती हैं, जिनका मज़दूर के पास सर्वथा अभाव रहता है। आज की महंगाई देखकर मध्यमवर्गीय लोग परेशान हैं  तो सोचिए इन मजदूरों का क्या हाल होता होगा ।कोई भी जानबूझकर मज़दूर नहीं बनाना चाहता लेकिन परिस्थितियाँ प्रबल होती हैं और फिर पेट की आग सब करवा लेती है और कहीं ये आग बच्चों के पेट की हो तो फिर परिस्थितियाँ और गंभीर हो जाती हैं।
अशिक्षा और अज्ञान मजदूरों के शोषण में बड़ी भूमिका निभाते हैं जिनके कारण ये समाज के कई धूर्त लोगों द्वारा ठगे जाते हैं । हालांकि मजदूरों के उत्थान के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं काम में लगी हुई हैं लेकिन हमारे देश में मज़दूरों की संख्या के आगे उनके कार्य ऊंट के मुंह में जीरा भर हैं और ये सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता । इसके लिए हम सभी को मिलकर आगे आना होगा अपनी मानवीय संवेदनाओं का परिचय देते हुए इनके शोषण को रोकना होगा,इनके परिश्रम का उचित मूल्य देना होगा साथ ही साथ इनके बच्चों को शिक्षित करने के लिए कदम उठाने होने।  इस मज़दूर दिवस पर मेरे इस लेख का उद्देश्य श्रमिक वर्ग के जीवन की कठिनाइयों को उजागर कर अपनी और आपकी मानवीय संवेदनाओं को प्रज्वलित करना है क्योंकि एक दीप हजारों,लाखों दीपकों को प्रज्वलित करने में सक्षम होता है मज़दूरों के प्रति यदि हम संवेदनशील बनें उन्हें दो मीठे बोल और सम्मान भी दे सकें तो हमारा ये मज़दूर दिवस मनाना सफल होगा ।      

27 Apr 2020

स्त्री और नदी का स्वच्छन्द विचरण घातक और विनाशकारी

स्त्री और नदी दोनों ही समाज में वन्दनीय है तब तक जब तक कि वो अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन नहीं करती । स्त्री का व्यक्तित्व स्वच्छ निर्मल नदी की तरह है जिस प्रकार नदी का प्रवाह पवित्र और आनन्द कारक होता है उसी प्रकार सीमा रेखा में बंधी नारी आदरणीय और वन्दनीय शक्ति के रूप में परिवार और समाज में  रहती है।  लेकिन इतिहास साक्षी है की जब –जब भी नदियों ने अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन किया है समाज बड़े -बड़े संकटों से जूझता नजर आया है। तथाकथित कुछ महिलाओं ने आधुनिकता और स्वतंत्रता के नाम पर जब से  स्वच्छंद विचरण करते हुए  सीमाओं का उल्लंघन करना शुरू किया है तब से महिलाओं की  स्थिति दयनीय और हेय होती चली गयी है । इसका खामियाजा उन महिलाओं को भी उठाना पढ़ा है जो समाज के अनुरूप मर्यादित जीवन जीती है इसका बहुत बढ़ा उदाहरण हमारा सिनेमा है जिसने समाज को दूषित कलुषित मनोरंजन देकर युवतियों को भटकाव की ओर धकेला है । समाज में आये दिन घटने वाली शर्मनाक घटनाएं जिनसे समाचार पत्र भरे पढ़े है सीमाओं के उल्लंघन के साक्षी है  रामायण कि एक घटना याद आती है, की जब लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा एक बार खींच दी गयी तो वह केवल एक रेखा मात्र नहीं बल्कि सामाजिक मर्यादा का प्रतिनिधित्व करने वाली मर्यादा की रेखा बन गयी थी। लक्ष्मण ने बाण से रेखा खींचकर उसे विश्वास रुपी मन्त्रों से अभिमंत्रित किया और राम की सहायता के लिए जंगल की ओर दौड़ पढ़े सीता को हिदायत दी गयी कि वह रेखा पार न करे लेकिन विधि का विधान कुछ अलग ही था। रावण जैसा सिद्ध भी उस रेखा के भीतर नहीं जा सका था । लेकिन सीता ने जैसे ही लक्ष्मण रेखा पार की रघुकुल संकट में पड़ गया फिर जो हुआ वो सभी को विदित है। नारी जब तक सीमाओं में रहे कुल की रक्षा भगवान करते है एक बार मर्यादा की सीमा लांघी तो स्त्री पर पुरुष के विश्वास और स्त्री की अस्मिता और गरिमा का हरण तय है जब सीता जैसी सती को मर्यादा उल्लंघन का कठोर  कष्ट उठाना पड़ा यहाँ तक की दो बार वनवास भोगना पढ़ा । न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बताती है कि सीमायें रोज लांघी जा रही है क्योंकि कलयुग में लक्ष्मण रेखा धूमिल हो चुकी है।
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समस्याओं का समाधान आपके अंदर ही छुपा है

आज के इस आपाधापी के युग में हर व्यक्ति अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा हुआ है कोई न कोई ऐसी समस्या हर व्यक्ति के जीवन में है जिससे पीछा छुड़ाने के लिए वो हर सम्भव प्रयास करता है लेकिन विडम्बना ये है कि जैसे ही वो एक समस्या से पीछा छुड़ाता है तो उसी समय दूसरी समस्याएं मुंह फाड़ के उसे निगलने के लिए तैयार खड़ी रहती है। व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार कई समस्याएं आती-जाती रहती है, जिनमें से कुछ ही समस्याओं का हल हो पाता है, अधिकांश तो उलझी ही रह जाती हैं। उस अपूर्णता का कारण यह है कि हम हर समस्या का हल अपने से बाहर ढूँढ़ते हैं जब कि वस्तुत: इनका हल हमारे भीतर ही छिपा रहता है। हर व्यक्ति अपने मन के अनुरूप परिस्थितियाँ प्राप्त करना चाहता है। लेकिन व्यक्ति आकांक्षाएँ करने के पूर्व, अपनी सामर्थ्य और परिस्थितियों का अनुमान लगा लें और इसी के अनुसार चाहना करें तो उनका पूर्ण होना विशेष कठिन नहीं है। एक बार के प्रयत्न में न सही, सोची हुई अवधि में न सही, पूर्ण अंश में न सही, आगे पीछे न्यूनाधिक सफलता इतनी मात्रा में तो मिल ही जाती है कि काम चलाऊ संतोष प्राप्त किया जा सके पर यदि आकांक्षा के साथ-साथ अपनी क्षमता और स्थिति का ठीक अन्दाजा न करके बहुत बड़ा-बड़ा लक्ष्य रखा गया है तो उसकी सिद्धि कठिन ही है पर यदि अपने स्वभाव में आगा पीछा सोचना, परिस्थिति के अनुसार मन चलाने की दूरदर्शिता हो तो उस खिन्नता से बचा जा सकता है और साधारण रीति से जो उपलब्ध हो सकता है उतनी ही आकांक्षा करके शान्तिपूर्वक जीवनयापन किया जा सकता है। यदि हम कोई अपने स्वभाव की कमियों का निरीक्षण करके उनमें आवश्यक सुधार करने के लिए यदि हम तैयार हो जायें तो जीवन को तीन चौथाई से अधिक समस्याओं का हल तुरन्त ही हो जाता है। सफलता के बड़े-बड़े स्वप्न देखने की अपेक्षा हम सोच समझ कर कोई सुनिश्चित मार्ग अपनायें और उस पर पूर्ण दृढ़ता एवं मनोयोग के साथ कर्तव्य समझ कर चलते रहें तो मस्तिष्क शान्त रहेगा उसकी पूरी शक्तियाँ लक्ष को पूरा करने में लगेंगी और मंजिल तेजी से पार होती चली जाएगी।
किसान खेत में बीज बोता है तो वो एक ही दिन में फलों से लदा हुआ वृक्ष नहीं बन जाता बल्कि बीज बोने से लेकर अंकुर पैदा होने, पौधे के बड़े होने, बढ़कर पूरा वृक्ष होने और अंत में फलने- फूलने में समय लगता है, प्रयत्न भी करना पड़ता है पर जो वृक्ष अभी बीज लेकर आज ही उसमें से अंकुर होते ही उसे पेड़ बनने और परसों ही फल-फूल से लदा देखने की आशा करते हैं, उनका उत्साह देर तक नहीं ठहरता। पहले ही दिन वे बीच में दस बार पानी, दस बार खाद लगाते हैं, पर जब अंकुर और वृक्ष सामने ही नहीं आता तो दूसरे ही दिन निराश होकर उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं और अपना मन छोटा कर लेते हैं। उन बालकों की सी ही मनोभूति बहुत से व्यक्तियों की होती है। वे अधीरता पूर्वक बड़े-बड़े सत्परिणामों की आशाएँ बाँधते हैं और उसके लिए जितना श्रम  और समय चाहिए उतना लगाने को तैयार नहीं होते । सब कुछ उन्हें आनन-फानन ही चाहिये। ऐसी बाल बुद्धि रखकर यदि किसी बड़ी सफलता का आनन्द प्राप्त करने की आशा की जाए तो वह दुराशा मात्र ही सिद्ध होगी । इसमें दोष किसी का नहीं अपनी उतावली का ही है। यदि हम अपनी बाल चपलता को हटाकर पुरुषार्थी लोगों द्वारा अपनाये जाने वाले धैर्य और साहस को काम में लावे तो निराश होने का कोई कारण शेष न रह जायेगा। सफलता मिलनी ही चाहिए और ऐसे लोगों को मिलती भी है।
इसके विपरीत यदि हमारा मन बहुत कल्पनाशील है, बड़े-बड़े मंसूबे गाँठता और बड़ी-बड़ी सफलताओं के सुनहरे महल बनाता रहता है, जल्दी से जल्दी बड़ी से बड़ी सफलता के लिए आतुर रहता है तो मंजिल काफी कठिन हो जाएगी। किसी कारखाने जब मशीनें चलती है तो उन सब मशीनों को एक साथ इस प्रकार से जोड़ा जाता है की उनके तालमेल से मन चाही वस्तु का निर्माण कर उसका लाभ प्राप्त किया जा सकता है इसी प्रकार एक ही लक्ष्य पर अपने मन मस्तिष्क को केन्द्रित करके चलने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ उपलब्धियां प्राप्त करने में सफल होता है जबकि जल्द बाजी करने वाला उतावला व्यक्ति हताशा के गर्त में जा पढ़ता है। उतावला व्यक्ति ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं त्यों-त्यों उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और यह स्पष्ट है कि बेचैन आदमी न तो किसी बात को ठीक तरह सोच सकता है और न ठीक तरह कुछ कर ही सकता है। उसकी गतिविधि अधूरी, अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित हो जाती है ऐसी दशा में सफलता की मंजिल अधिक कठिन एवं अधिक संदिग्ध होती जाती है। उतावला आदमी सफलता के अवसरों को बहुधा हाथ से गँवा ही देता है।
किसी भी चीज़ की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को पुरुषार्थ के साथ प्रयत्न करना चाहिए और फल की आकांशा किये बिना ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए की जो कुछ भी प्राप्त होगा वो ईश्वर की कृपा ही होगी अभीष्ट वस्तु न भी मिले, किया हुआ प्रयत्न सफल न भी हो तो भी इसमें दु:ख मानने, लज्जित होने या मन छोटा करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि सफलता मनुष्य के हाथ में नहीं है। अनेकों कर्तव्यपरायण व्यक्तियों परिस्थितियों की विपरीतता के कारण असफल होते हैं, पर इसके लिए उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता। यदि अपने मन की असफलता की चिन्ता किये बिना अपने कर्तव्य पालन में ही जो संतुष्ट रहने लगे तो समझना चाहिए कि अपना दृष्टिकोण सही हो गया, अपनी प्रसन्नता अपनी मुट्ठी में आ गयी।
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विवाह व वैवाहिक जीवन के प्रति वर्तमान युवाओं का भ्रामक दृष्टिकोण

आज के समय में जब किसी विवाह योग्य युवा से विवाह प्रस्ताव अथवा विवाह करने की बात की जाती है तो वो बिदक जाता है और ये कहकर टालने की कोशिश करता है की अभी इतनी जल्दी क्या है ,अभी मेरा जीवनयापन का माध्यम सही नहीं है । इसका कारण जब जानने की कोशिश की गयी तो अपने नजदीकी मित्रों और रिश्तेदारों से युवा वास्तव में ये कहते पाए गये की शादी ब्याह तो झंझट है इसमें जितना देर से फंसो उतना ही अच्छा है। एक बार शादी हो गयी तो बस आदमी फिर जिम्मेदारियों में फंसता चला जाता है शादी का दुसरा नाम ही जिम्मेदारी और परेशानी है।  युवाओं की इस सोच को और भी पुख्ता करता है आज का सिनेमा और इस प्रकार की फ़िल्में और घीसापिटा मनोरंजन ।
आज के युवा की शादी ब्याह के मामले में यही सोच बनती चली जा रही है क्या लड़का और क्या लड़की सभी यही सोचते है। जिसमें ये मानसिकता विशेषरूप से पुरुष वर्ग में अधिक पायी जाती है । कई युवाओं की सोच ये भी होती है की पहले अच्छी मात्रा में पैसा जोड़ ले फिर आराम से शादी करके आराम की जिंदगी जीयेंगे लडकियां भी चाहती है सरकारी नोकरी वाला या कोई बड़ा बिसनेसमेन मिले तो शादी करें । जिससे की झंझट का कोई काम नहीं रहे लेकिन ये आकांक्षाएं हर व्यक्ति की पूरी नहीं हो सकती समाज में ऐसे इक्का दुक्का उदाहरण ही मिलते है । स्वयंकी आजीविका की व्यवस्था करके विवाह करने का विचार तो ठीक है लेकिन पैसे या सुविधाओं के प्रति अधिक महत्वाकांक्षी हो जाना अनुचित ही है ।
अब एक नजर यदि भारत की गौरवशाली परम्परा पर डाली जाए तो हमारी सनातन संस्कृति में सोलह संस्कार बताये गये है। जो प्राणी के जन्म से पूर्व (पुंसवन संस्कार) से शुरू होकर उसकी मृत्यु के बाद (अंतिम संस्कार) तक चलते रहते है। प्राचीन समय में इन सभी संस्कारों का एक निश्चित समय होता था जिसके अनुसार जीव को संस्कारित किया जाता था इसी श्रृंखला में एक संस्कार है विवाह संस्कार जिसकी आयु 25 वर्ष बताई गयी है लेकिन आज अधिक महत्वाकांक्षा और धन संगृह की लोलुप पृवृत्ति ने न केवल इस संस्कार की समय सीमा को लांघा है बल्कि इसकी उपेक्षा भी की है । विवाह एक सामाजिक परम्परा एक संस्कार है जो समाज को राष्ट्र को आगे बढ़ाता है।
युवाओं को ये समझने की ज़रूरत है की यदि आप अपने आस-पास कि दम्पत्तियों के जीवन में खींचतान या तनाव देखते है तो ये तनाव विवाह के कारण नहीं बल्कि विवाह के बाद उनके द्वारा पनाए गयी अव्यवस्थित जीवनशैली के कारण है।
वैवाहिक जीवन एक सुंदर सुगन्धित उद्यानं की तरह है यदि माली उद्यान का ध्यान न रखे तो वहाँ  खिले हुए सुगन्धित पुष्प मुरझा जायेंगे अनचाही घास उग आएगी जो बगीचे के सौन्दर्य को धीरे- धीरे समाप्त कर देगी। इसी प्रकार जो पति-पत्नी अपने दाम्पत्य जीवन रुपी उद्यान की रक्षा नहीं कर पाते उसमें स्नेह और निर्मल प्रेमरूपी जल और विश्वास रुपी खाद नहीं डालते उनका दाम्पत्य जीवन एकाकी ,निर्जन और दुखरूपी कांटेदार झाड़ियों से घिर जाता है । ऐसी स्थिति में जीवन में नीरसता,मानसिक ,शारीरिक रोग ,परस्त्री या पर पुरुष जैसी विकृतियाँ जीवन को नरक बना देती है । इस भयावह परिस्थिति से बचने का उपाय है वह प्रतिज्ञा जो गृहस्थ जीवन का सच्चा सार है अर्थात् यह प्रतिज्ञा कि “हम कभी एक दूसरे का परित्याग नहीं करेंगे,हम हर परिस्थिति में एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलेंगे  हम अपने सुख और संयोग की, अपने प्रेम और स्नेह की रक्षा करेंगे, वर्तमान समय में विवाह के बाद दाम्पत्य जीवन में जो तनाव देखा जाता है उसका कारण दम्पत्ति स्वयं है एक घटना याद आ रही है एक प्रेमी युगल जो एक दुसरे को 4 वर्षों से जानते थे उनका प्रेम विवाह उनके परिवार द्वारा करा दिया गया। पति के पास अच्छी नोकरी थी और पत्नी घर और परिवार सम्भालती थी लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे दोनों के विचारों में परिवर्तन आने लगा पति अपने काम और पैसा कमाने में इतना मशगुल हो गया की वो कब पत्नी की उपेक्षा करनी लगा उसे मालूम ही नहीं पढ़ा इधर स्त्री भी घर परिवार की जिम्मेदारियों और पति के उपेक्षित व्यवहार से उब चुकी थी अंत में इस दम्पत्ति के चार वर्ष के प्रेम और उसके बाद वैवाहिक जीवन के 3 वर्ष का सार ये निकला की दोनों ने एक दुसरे से बिना कुछ कहे सुने तलाक लेने की इच्छा व्यक्त कर दी दोनों अदालत में पहुंचे दोनों से कारण पुछा गया पति ने बोला में पत्नी को बेहतर जीवन देने के लिए अधिक से अधिक पैसा कमाना चाहता था लेकिन ये समझती ही नहीं थी पत्नी से पुछा गया तो बोली मेरे पति मुझे समय नहीं देते में केवल घर परिवार सम्भालने वाली नौकरानी बनकर रह गयी थी । दोनों ने ठंडे दिमाग से जब एक दूसरे की शिकायतें सुनी तो दोनों ही के नेत्रों से आंसू बह निकले क्योंकि दोनों के हृदय में एक दूसरे के लिए प्रेम तो था ।लेकिन दोनों अनजाने में सुख प्राप्ति के लिए एक दुसरे की उपेक्षा कर रहे थे सुख के लिए गलत दिशा की और दौड़ रहे थे ।
विवाह को धन सम्पत्ति या भौतिक सुख सुविधायें सफल नहीं बनाती बल्कि विवाह को सफल बनाता है पति पत्नी का एक दुसरे के प्रति अनन्य भाव ,दृढ़ विश्वास और निष्कपट प्रेम समाज में ऐसे भी कई उदाहरण देखने को मिलते है जहां दम्पत्ति की आयु 60 या 70 पार है लेकिन फिर भी उनमें एक दूसरे के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की भावना बनी हुई है ।
तो युवाओं को अपनी सोच को सही दिशा देने की आवश्यकता है उन्हें समझने की आवश्यकता है की विवाह झंझट या तनाव का नहीं बल्कि प्रेम और सहयोग का नाम है ।
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नारी समाज एवं परिवार निर्माता के रूप में

आज के लेख की शुरुआत दुर्गा सप्तशती के इस श्लोक से करता हूँ इसमें कहा गया है...
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः, स्त्रियाः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः॥ - दुर्गा सप्तशती
 अर्थात्:- हे देवी! समस्त संसार की सब विद्याएँ तुम्हीं से निकली है तथा सब स्त्रियाँ तुम्हारा ही स्वरूप है। समस्त विश्व एक तुमसे ही पूरित है। अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए।
नारी अद्भुत असीमित शक्तियों का भण्डार है अनगढ़ को सुगढ़ बनाने वाली नारी यदि समर्थ हो तो वो समाज और राष्ट्र की रुपरेखा बदल सकती है । नारी परिवार की धुरी होती है ये वो शक्ति है जो अपने  स्नेह, प्रेम, करुणा और भावनाओं से परिवार को जोड़ कर रखती है।  ऐसी शक्ति स्वरूपा स्त्री  अपने परिवार से अपने लिए थोड़े से सम्मान की आकांक्षा रखती है ।पति का स्नेह उसकी शक्ति होता है जिसके बलबूते वो परिवार और अपने जीवन पर आने वाले बड़े से बड़े संकट से लोहा लेनी के लिए तैयार  रहती है इस परिप्रेक्ष्य में सावित्री की कथा सर्व विदित है जो अपने दृढ़ निश्चय एवं  सतीत्व की शक्ति से मृत्यु के देवता से सत्यवान के प्राण वापस ले आई थी । 
व्यक्ति और समाज के बीज की कड़ी है ‘परिवार’, और परिवार की धूरि है- ‘नारी’। परिवार मनुष्य के लिए प्रथम पाठशाला है।  अन्य शिक्षाएं जैसे  शिल्पकला कौशल, भौतिक शिक्षाएँ सरकारी या अन्य व्यावसायिक शिक्षाएं तो  शैक्षणिक संस्थानों में दी जा सकती है, लेकिन  शिशु को जिस संस्कार रूपी अमृत का शैशवावस्था से ही पान कराया जाता है, जहाँ उसे आत्मीयता एवं सहकार तथा सद्भाव के इंजेक्शन तथा  अनुशासन रुपी टेबल से उसकी पाशविकता का उपचार किया जाता है वह परिवार ही है। जिसका मुखिया होता तो पुरुष है लेकिन महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व स्त्री द्वारा ही उठाये जाते है ।
उस परिवार के वातावरण को स्वर्ग के समान या नरक के समान बनाना बहुत हद तक नारी के हाथ में होता है। वह चाहे तो अपने परिवार की फुलवारी में झाँसी की रानी, मदर टेरेसा, दुर्गावती,सिस्टर निवेदिता, गांधी, गौतम बुद्ध और तिलक, सुभाष बना सकती है या चाहे तो आलस्य प्रमाद में पड़ी रहकर भोगवादी संस्कृति और विलासी जीवन की  पक्षधर बनकर, दिन भर टी.वी. देखना, गप्प करना , निरर्थक प्रयोजनों में अपनी क्षमता व समय को नष्ट कर बच्चों को कुसंस्कारी वातावरण की भट्टी में डालकर परिवार और समाज के लिए भार मूल सन्तान बना सकती है।
इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते है जहां स्त्री ने अपनी सन्तान को  पुरुष के सहयोग के बिना ही संस्कारी और  सुसंस्कृत  बनाया है । स्त्री पुरुष के बिना भी अपनी सन्तान को श्रेष्ठ और समाजोपयोगी बना सकती है। भरत जिसके नाम पर आर्यावर्त का नाम भारत पढ़ा उसका पालन पोषण  शकुन्तला ने अकेले ही किया लेकिन  वीरता और संस्कारों  की ऐसी  घुट्टी पिलाई की आज भी भारत नाम विश्व के अंदर जाना और माना जाता है । गर्भवती सीता को जब वन में भेज दिया गया। उस समय भी उन्होंने हार नहीं मानी अपितु अपने गर्भ से जन्म लेने वाले पुत्रों का ऐसा पालन पोषण किया कि, वो  राम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को खेल ही खेल में न केवल पकड़ लाये अपितु उसके लिए संघर्ष करने आये सूरमाओं को भी उन्होंने छटी का दूध याद दिला दिया । शंकराचार्य ,विवेकानंद ,भगत सिंह  आदि के जीवन में भी मां का विशेष प्रभाव रहा । समाज निर्माण एवं परिवार निर्माण में नारी के योगदान के बिना सफलता सम्भव नहीं परन्तु उसकी प्रतिभा का लाभ हमें तब मिलेगा जबकि वो स्वयं  समर्थ ,सुसंस्कृत हो । विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समृद्ध समुन्नत एवं समर्थ  बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के संवर्धन में बड़ा योगदान दे सकती है। गार्गी,मदालसा, स्वयंप्रभा,भारती, अनुसुइया ये सभी ऐसी महान विभूतियाँ हुई है । जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व की आहुतियाँ दी।
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युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...