30 Apr 2020

मजबूर हूँ, मैं मज़दूर हूँ.....


‘मज़दूर’ एक ऐसा शब्द जिसके ज़हन में आते ही दुख, दरिद्रता, भूख, अभाव, अशिक्षा, कष्ट, मजबूरी, शोषण और अभावग्रस्त व्यक्ति का चेहरा हमारे सामने घूमने लगता है। आप जब भी किसी पुल से गुज़रें तो ये ज़रूर सोचें कि ये न जाने किन मज़दूरों के कंधों पर टिका हुआ है, जब आप नदियों के सशक्त और मजबूत बाँधो को देखें तो याद करें कि ये न जाने कितने ही मजदूरों का भुजबल है, जिसने इन वेगवती, अभिमानिनी नदियों को बांध दिया,गगनचुंबी इमारतों की नींव को सींचने वाले मजदूरों को आज याद करना ज़रूरी है। मजदूर दिवस पर हमारा कर्तव्य है कि हम उन सभी मजदूरों को प्रणाम करें जो अपने अथक परिश्रम से इस धरा को सौंदर्य प्रदान करने में लगे हुए हैं, क्योंकि संसार के समस्त निर्माण इन्हीं के हाथों का हुनर है और इन्हीं के कंधों पर ही टिका हुआ है ।
हमारे देश में मजदूरों की कोई निश्चित उम्र नहीं है कहने को कानून तो बने हैं लेकिन उनका सख्ती से पालन करने में हम पिछड़ गए हैं इसलिए आपको कोई छोटू सड़क किनारे पत्थर तोड़ता,चाय बेचता या अखबार बाँटता मिल जाए तो आश्चर्य मत करना ।
मज़दूर वो शख्स है जिसने शहरों का निर्माण किया है लेकिन वो स्वयं शहरों से उपेक्षित है खूबसूरत शहरों का निर्माण करने वाले मजदूरों की बस्ती लगभग शहर से बाहर गंदगी के ढेरों के बीच देखने को मिलती है । जहां उनके अभावग्रस्त जीवन को आसानी से देखा और उनके त्रस्त चेहरों को बड़ी आसानी से पढ़ा जा सकता है हमारे देश के मज़दूर पीड़ित और शोषित जीवन जीने को मजबूर हैं ।
मज़दूर समाज का एक ऐसा अंग है जो विषम परिस्थितियों में भी काम करना बंद नहीं करता क्योंकि भूख किसी भी परिस्थिति को नहीं जानती । इनके घर गंदे और अभावग्रस्त होते हैं जहां ये अपना नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं न जाने समाज इन्हें किस पाप की सज़ा देता है?
इन श्रमिकों के धूप से झुलसे चेहरे,फटे हुए और उभरी नसों वाले हाथ इनके कठोरतम परिश्रम की गवाही देते हैं। काम करते हुए ज़ख्मी हुए हाथों की सुध लेने वाला कोई नहीं हैं अगर छुट्टी ली तो आधे दिन कि मजदूरी गई समझो इसलिए हाथों के ज़ख़्मों पर कपड़े की चिंदी बांधे ये मजदूरी करते रहने को मजबूर हैं और वहीं कहीं पास ही इनके बच्चे भविष्य के मज़दूर बनने के लिए तैयार हो रहे होते हैं जिनका शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं हैं कहने के लिए देश में सर्व शिक्षा अभियान चल है। मज़दूर कितना भी अभावग्रस्त और दीन-हीन क्यों न हो पर देश कि उन्नति तो हो रही है। उसकी मेहनत और प्रतिभा देश के काम आ रही है और देश का स्वरूप निखरता चला जा रहा है । ये निश्चित रूप से मज़दूर के लिए गर्व कि बात है । इतिहास साक्षी है कि हमारी विरासत का निर्माता भी मज़दूर है वो कहलाता मज़दूर है परंतु वो निर्माता है और न्यूनतम पारिश्रमिक में अपना जीवन चलाता है। 
वास्तव मैं देखा जाए तो वास्तविक सम्मान का अधिकारी मज़दूर ही है क्योंकि यदि वो काम करना बंद कर दे तो बड़ी-बड़ी मशीनें कल-कारखाने बंद पड़ जाएं। हमारे लिए छोटी-बड़ी सभी वस्तुओं का निर्माण मज़दूर ही करता है इसलिए वो निर्माता और हम उपभोक्ता है और उपभोक्ता से कहीं ऊंचा स्थान निर्माता का होता है ।
लेकिन निर्माता होने के बाद भी उसे सामान्य वस्तुएं भी उपभोग के लिए नहीं मिलती, क्योंकि सुविधाएं पैसों से मिलती हैं, जिनका मज़दूर के पास सर्वथा अभाव रहता है। आज की महंगाई देखकर मध्यमवर्गीय लोग परेशान हैं  तो सोचिए इन मजदूरों का क्या हाल होता होगा ।कोई भी जानबूझकर मज़दूर नहीं बनाना चाहता लेकिन परिस्थितियाँ प्रबल होती हैं और फिर पेट की आग सब करवा लेती है और कहीं ये आग बच्चों के पेट की हो तो फिर परिस्थितियाँ और गंभीर हो जाती हैं।
अशिक्षा और अज्ञान मजदूरों के शोषण में बड़ी भूमिका निभाते हैं जिनके कारण ये समाज के कई धूर्त लोगों द्वारा ठगे जाते हैं । हालांकि मजदूरों के उत्थान के लिए कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं काम में लगी हुई हैं लेकिन हमारे देश में मज़दूरों की संख्या के आगे उनके कार्य ऊंट के मुंह में जीरा भर हैं और ये सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता । इसके लिए हम सभी को मिलकर आगे आना होगा अपनी मानवीय संवेदनाओं का परिचय देते हुए इनके शोषण को रोकना होगा,इनके परिश्रम का उचित मूल्य देना होगा साथ ही साथ इनके बच्चों को शिक्षित करने के लिए कदम उठाने होने।  इस मज़दूर दिवस पर मेरे इस लेख का उद्देश्य श्रमिक वर्ग के जीवन की कठिनाइयों को उजागर कर अपनी और आपकी मानवीय संवेदनाओं को प्रज्वलित करना है क्योंकि एक दीप हजारों,लाखों दीपकों को प्रज्वलित करने में सक्षम होता है मज़दूरों के प्रति यदि हम संवेदनशील बनें उन्हें दो मीठे बोल और सम्मान भी दे सकें तो हमारा ये मज़दूर दिवस मनाना सफल होगा ।      

27 Apr 2020

स्त्री और नदी का स्वच्छन्द विचरण घातक और विनाशकारी

स्त्री और नदी दोनों ही समाज में वन्दनीय है तब तक जब तक कि वो अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन नहीं करती । स्त्री का व्यक्तित्व स्वच्छ निर्मल नदी की तरह है जिस प्रकार नदी का प्रवाह पवित्र और आनन्द कारक होता है उसी प्रकार सीमा रेखा में बंधी नारी आदरणीय और वन्दनीय शक्ति के रूप में परिवार और समाज में  रहती है।  लेकिन इतिहास साक्षी है की जब –जब भी नदियों ने अपनी सीमा रेखाओं का उल्लंघन किया है समाज बड़े -बड़े संकटों से जूझता नजर आया है। तथाकथित कुछ महिलाओं ने आधुनिकता और स्वतंत्रता के नाम पर जब से  स्वच्छंद विचरण करते हुए  सीमाओं का उल्लंघन करना शुरू किया है तब से महिलाओं की  स्थिति दयनीय और हेय होती चली गयी है । इसका खामियाजा उन महिलाओं को भी उठाना पढ़ा है जो समाज के अनुरूप मर्यादित जीवन जीती है इसका बहुत बढ़ा उदाहरण हमारा सिनेमा है जिसने समाज को दूषित कलुषित मनोरंजन देकर युवतियों को भटकाव की ओर धकेला है । समाज में आये दिन घटने वाली शर्मनाक घटनाएं जिनसे समाचार पत्र भरे पढ़े है सीमाओं के उल्लंघन के साक्षी है  रामायण कि एक घटना याद आती है, की जब लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा एक बार खींच दी गयी तो वह केवल एक रेखा मात्र नहीं बल्कि सामाजिक मर्यादा का प्रतिनिधित्व करने वाली मर्यादा की रेखा बन गयी थी। लक्ष्मण ने बाण से रेखा खींचकर उसे विश्वास रुपी मन्त्रों से अभिमंत्रित किया और राम की सहायता के लिए जंगल की ओर दौड़ पढ़े सीता को हिदायत दी गयी कि वह रेखा पार न करे लेकिन विधि का विधान कुछ अलग ही था। रावण जैसा सिद्ध भी उस रेखा के भीतर नहीं जा सका था । लेकिन सीता ने जैसे ही लक्ष्मण रेखा पार की रघुकुल संकट में पड़ गया फिर जो हुआ वो सभी को विदित है। नारी जब तक सीमाओं में रहे कुल की रक्षा भगवान करते है एक बार मर्यादा की सीमा लांघी तो स्त्री पर पुरुष के विश्वास और स्त्री की अस्मिता और गरिमा का हरण तय है जब सीता जैसी सती को मर्यादा उल्लंघन का कठोर  कष्ट उठाना पड़ा यहाँ तक की दो बार वनवास भोगना पढ़ा । न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बताती है कि सीमायें रोज लांघी जा रही है क्योंकि कलयुग में लक्ष्मण रेखा धूमिल हो चुकी है।
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समस्याओं का समाधान आपके अंदर ही छुपा है

आज के इस आपाधापी के युग में हर व्यक्ति अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा हुआ है कोई न कोई ऐसी समस्या हर व्यक्ति के जीवन में है जिससे पीछा छुड़ाने के लिए वो हर सम्भव प्रयास करता है लेकिन विडम्बना ये है कि जैसे ही वो एक समस्या से पीछा छुड़ाता है तो उसी समय दूसरी समस्याएं मुंह फाड़ के उसे निगलने के लिए तैयार खड़ी रहती है। व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार कई समस्याएं आती-जाती रहती है, जिनमें से कुछ ही समस्याओं का हल हो पाता है, अधिकांश तो उलझी ही रह जाती हैं। उस अपूर्णता का कारण यह है कि हम हर समस्या का हल अपने से बाहर ढूँढ़ते हैं जब कि वस्तुत: इनका हल हमारे भीतर ही छिपा रहता है। हर व्यक्ति अपने मन के अनुरूप परिस्थितियाँ प्राप्त करना चाहता है। लेकिन व्यक्ति आकांक्षाएँ करने के पूर्व, अपनी सामर्थ्य और परिस्थितियों का अनुमान लगा लें और इसी के अनुसार चाहना करें तो उनका पूर्ण होना विशेष कठिन नहीं है। एक बार के प्रयत्न में न सही, सोची हुई अवधि में न सही, पूर्ण अंश में न सही, आगे पीछे न्यूनाधिक सफलता इतनी मात्रा में तो मिल ही जाती है कि काम चलाऊ संतोष प्राप्त किया जा सके पर यदि आकांक्षा के साथ-साथ अपनी क्षमता और स्थिति का ठीक अन्दाजा न करके बहुत बड़ा-बड़ा लक्ष्य रखा गया है तो उसकी सिद्धि कठिन ही है पर यदि अपने स्वभाव में आगा पीछा सोचना, परिस्थिति के अनुसार मन चलाने की दूरदर्शिता हो तो उस खिन्नता से बचा जा सकता है और साधारण रीति से जो उपलब्ध हो सकता है उतनी ही आकांक्षा करके शान्तिपूर्वक जीवनयापन किया जा सकता है। यदि हम कोई अपने स्वभाव की कमियों का निरीक्षण करके उनमें आवश्यक सुधार करने के लिए यदि हम तैयार हो जायें तो जीवन को तीन चौथाई से अधिक समस्याओं का हल तुरन्त ही हो जाता है। सफलता के बड़े-बड़े स्वप्न देखने की अपेक्षा हम सोच समझ कर कोई सुनिश्चित मार्ग अपनायें और उस पर पूर्ण दृढ़ता एवं मनोयोग के साथ कर्तव्य समझ कर चलते रहें तो मस्तिष्क शान्त रहेगा उसकी पूरी शक्तियाँ लक्ष को पूरा करने में लगेंगी और मंजिल तेजी से पार होती चली जाएगी।
किसान खेत में बीज बोता है तो वो एक ही दिन में फलों से लदा हुआ वृक्ष नहीं बन जाता बल्कि बीज बोने से लेकर अंकुर पैदा होने, पौधे के बड़े होने, बढ़कर पूरा वृक्ष होने और अंत में फलने- फूलने में समय लगता है, प्रयत्न भी करना पड़ता है पर जो वृक्ष अभी बीज लेकर आज ही उसमें से अंकुर होते ही उसे पेड़ बनने और परसों ही फल-फूल से लदा देखने की आशा करते हैं, उनका उत्साह देर तक नहीं ठहरता। पहले ही दिन वे बीच में दस बार पानी, दस बार खाद लगाते हैं, पर जब अंकुर और वृक्ष सामने ही नहीं आता तो दूसरे ही दिन निराश होकर उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं और अपना मन छोटा कर लेते हैं। उन बालकों की सी ही मनोभूति बहुत से व्यक्तियों की होती है। वे अधीरता पूर्वक बड़े-बड़े सत्परिणामों की आशाएँ बाँधते हैं और उसके लिए जितना श्रम  और समय चाहिए उतना लगाने को तैयार नहीं होते । सब कुछ उन्हें आनन-फानन ही चाहिये। ऐसी बाल बुद्धि रखकर यदि किसी बड़ी सफलता का आनन्द प्राप्त करने की आशा की जाए तो वह दुराशा मात्र ही सिद्ध होगी । इसमें दोष किसी का नहीं अपनी उतावली का ही है। यदि हम अपनी बाल चपलता को हटाकर पुरुषार्थी लोगों द्वारा अपनाये जाने वाले धैर्य और साहस को काम में लावे तो निराश होने का कोई कारण शेष न रह जायेगा। सफलता मिलनी ही चाहिए और ऐसे लोगों को मिलती भी है।
इसके विपरीत यदि हमारा मन बहुत कल्पनाशील है, बड़े-बड़े मंसूबे गाँठता और बड़ी-बड़ी सफलताओं के सुनहरे महल बनाता रहता है, जल्दी से जल्दी बड़ी से बड़ी सफलता के लिए आतुर रहता है तो मंजिल काफी कठिन हो जाएगी। किसी कारखाने जब मशीनें चलती है तो उन सब मशीनों को एक साथ इस प्रकार से जोड़ा जाता है की उनके तालमेल से मन चाही वस्तु का निर्माण कर उसका लाभ प्राप्त किया जा सकता है इसी प्रकार एक ही लक्ष्य पर अपने मन मस्तिष्क को केन्द्रित करके चलने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ उपलब्धियां प्राप्त करने में सफल होता है जबकि जल्द बाजी करने वाला उतावला व्यक्ति हताशा के गर्त में जा पढ़ता है। उतावला व्यक्ति ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं त्यों-त्यों उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और यह स्पष्ट है कि बेचैन आदमी न तो किसी बात को ठीक तरह सोच सकता है और न ठीक तरह कुछ कर ही सकता है। उसकी गतिविधि अधूरी, अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित हो जाती है ऐसी दशा में सफलता की मंजिल अधिक कठिन एवं अधिक संदिग्ध होती जाती है। उतावला आदमी सफलता के अवसरों को बहुधा हाथ से गँवा ही देता है।
किसी भी चीज़ की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को पुरुषार्थ के साथ प्रयत्न करना चाहिए और फल की आकांशा किये बिना ईश्वर पर विश्वास रखना चाहिए की जो कुछ भी प्राप्त होगा वो ईश्वर की कृपा ही होगी अभीष्ट वस्तु न भी मिले, किया हुआ प्रयत्न सफल न भी हो तो भी इसमें दु:ख मानने, लज्जित होने या मन छोटा करने की कोई बात नहीं है, क्योंकि सफलता मनुष्य के हाथ में नहीं है। अनेकों कर्तव्यपरायण व्यक्तियों परिस्थितियों की विपरीतता के कारण असफल होते हैं, पर इसके लिए उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता। यदि अपने मन की असफलता की चिन्ता किये बिना अपने कर्तव्य पालन में ही जो संतुष्ट रहने लगे तो समझना चाहिए कि अपना दृष्टिकोण सही हो गया, अपनी प्रसन्नता अपनी मुट्ठी में आ गयी।
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विवाह व वैवाहिक जीवन के प्रति वर्तमान युवाओं का भ्रामक दृष्टिकोण

आज के समय में जब किसी विवाह योग्य युवा से विवाह प्रस्ताव अथवा विवाह करने की बात की जाती है तो वो बिदक जाता है और ये कहकर टालने की कोशिश करता है की अभी इतनी जल्दी क्या है ,अभी मेरा जीवनयापन का माध्यम सही नहीं है । इसका कारण जब जानने की कोशिश की गयी तो अपने नजदीकी मित्रों और रिश्तेदारों से युवा वास्तव में ये कहते पाए गये की शादी ब्याह तो झंझट है इसमें जितना देर से फंसो उतना ही अच्छा है। एक बार शादी हो गयी तो बस आदमी फिर जिम्मेदारियों में फंसता चला जाता है शादी का दुसरा नाम ही जिम्मेदारी और परेशानी है।  युवाओं की इस सोच को और भी पुख्ता करता है आज का सिनेमा और इस प्रकार की फ़िल्में और घीसापिटा मनोरंजन ।
आज के युवा की शादी ब्याह के मामले में यही सोच बनती चली जा रही है क्या लड़का और क्या लड़की सभी यही सोचते है। जिसमें ये मानसिकता विशेषरूप से पुरुष वर्ग में अधिक पायी जाती है । कई युवाओं की सोच ये भी होती है की पहले अच्छी मात्रा में पैसा जोड़ ले फिर आराम से शादी करके आराम की जिंदगी जीयेंगे लडकियां भी चाहती है सरकारी नोकरी वाला या कोई बड़ा बिसनेसमेन मिले तो शादी करें । जिससे की झंझट का कोई काम नहीं रहे लेकिन ये आकांक्षाएं हर व्यक्ति की पूरी नहीं हो सकती समाज में ऐसे इक्का दुक्का उदाहरण ही मिलते है । स्वयंकी आजीविका की व्यवस्था करके विवाह करने का विचार तो ठीक है लेकिन पैसे या सुविधाओं के प्रति अधिक महत्वाकांक्षी हो जाना अनुचित ही है ।
अब एक नजर यदि भारत की गौरवशाली परम्परा पर डाली जाए तो हमारी सनातन संस्कृति में सोलह संस्कार बताये गये है। जो प्राणी के जन्म से पूर्व (पुंसवन संस्कार) से शुरू होकर उसकी मृत्यु के बाद (अंतिम संस्कार) तक चलते रहते है। प्राचीन समय में इन सभी संस्कारों का एक निश्चित समय होता था जिसके अनुसार जीव को संस्कारित किया जाता था इसी श्रृंखला में एक संस्कार है विवाह संस्कार जिसकी आयु 25 वर्ष बताई गयी है लेकिन आज अधिक महत्वाकांक्षा और धन संगृह की लोलुप पृवृत्ति ने न केवल इस संस्कार की समय सीमा को लांघा है बल्कि इसकी उपेक्षा भी की है । विवाह एक सामाजिक परम्परा एक संस्कार है जो समाज को राष्ट्र को आगे बढ़ाता है।
युवाओं को ये समझने की ज़रूरत है की यदि आप अपने आस-पास कि दम्पत्तियों के जीवन में खींचतान या तनाव देखते है तो ये तनाव विवाह के कारण नहीं बल्कि विवाह के बाद उनके द्वारा पनाए गयी अव्यवस्थित जीवनशैली के कारण है।
वैवाहिक जीवन एक सुंदर सुगन्धित उद्यानं की तरह है यदि माली उद्यान का ध्यान न रखे तो वहाँ  खिले हुए सुगन्धित पुष्प मुरझा जायेंगे अनचाही घास उग आएगी जो बगीचे के सौन्दर्य को धीरे- धीरे समाप्त कर देगी। इसी प्रकार जो पति-पत्नी अपने दाम्पत्य जीवन रुपी उद्यान की रक्षा नहीं कर पाते उसमें स्नेह और निर्मल प्रेमरूपी जल और विश्वास रुपी खाद नहीं डालते उनका दाम्पत्य जीवन एकाकी ,निर्जन और दुखरूपी कांटेदार झाड़ियों से घिर जाता है । ऐसी स्थिति में जीवन में नीरसता,मानसिक ,शारीरिक रोग ,परस्त्री या पर पुरुष जैसी विकृतियाँ जीवन को नरक बना देती है । इस भयावह परिस्थिति से बचने का उपाय है वह प्रतिज्ञा जो गृहस्थ जीवन का सच्चा सार है अर्थात् यह प्रतिज्ञा कि “हम कभी एक दूसरे का परित्याग नहीं करेंगे,हम हर परिस्थिति में एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलेंगे  हम अपने सुख और संयोग की, अपने प्रेम और स्नेह की रक्षा करेंगे, वर्तमान समय में विवाह के बाद दाम्पत्य जीवन में जो तनाव देखा जाता है उसका कारण दम्पत्ति स्वयं है एक घटना याद आ रही है एक प्रेमी युगल जो एक दुसरे को 4 वर्षों से जानते थे उनका प्रेम विवाह उनके परिवार द्वारा करा दिया गया। पति के पास अच्छी नोकरी थी और पत्नी घर और परिवार सम्भालती थी लेकिन समय के साथ धीरे-धीरे दोनों के विचारों में परिवर्तन आने लगा पति अपने काम और पैसा कमाने में इतना मशगुल हो गया की वो कब पत्नी की उपेक्षा करनी लगा उसे मालूम ही नहीं पढ़ा इधर स्त्री भी घर परिवार की जिम्मेदारियों और पति के उपेक्षित व्यवहार से उब चुकी थी अंत में इस दम्पत्ति के चार वर्ष के प्रेम और उसके बाद वैवाहिक जीवन के 3 वर्ष का सार ये निकला की दोनों ने एक दुसरे से बिना कुछ कहे सुने तलाक लेने की इच्छा व्यक्त कर दी दोनों अदालत में पहुंचे दोनों से कारण पुछा गया पति ने बोला में पत्नी को बेहतर जीवन देने के लिए अधिक से अधिक पैसा कमाना चाहता था लेकिन ये समझती ही नहीं थी पत्नी से पुछा गया तो बोली मेरे पति मुझे समय नहीं देते में केवल घर परिवार सम्भालने वाली नौकरानी बनकर रह गयी थी । दोनों ने ठंडे दिमाग से जब एक दूसरे की शिकायतें सुनी तो दोनों ही के नेत्रों से आंसू बह निकले क्योंकि दोनों के हृदय में एक दूसरे के लिए प्रेम तो था ।लेकिन दोनों अनजाने में सुख प्राप्ति के लिए एक दुसरे की उपेक्षा कर रहे थे सुख के लिए गलत दिशा की और दौड़ रहे थे ।
विवाह को धन सम्पत्ति या भौतिक सुख सुविधायें सफल नहीं बनाती बल्कि विवाह को सफल बनाता है पति पत्नी का एक दुसरे के प्रति अनन्य भाव ,दृढ़ विश्वास और निष्कपट प्रेम समाज में ऐसे भी कई उदाहरण देखने को मिलते है जहां दम्पत्ति की आयु 60 या 70 पार है लेकिन फिर भी उनमें एक दूसरे के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की भावना बनी हुई है ।
तो युवाओं को अपनी सोच को सही दिशा देने की आवश्यकता है उन्हें समझने की आवश्यकता है की विवाह झंझट या तनाव का नहीं बल्कि प्रेम और सहयोग का नाम है ।
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नारी समाज एवं परिवार निर्माता के रूप में

आज के लेख की शुरुआत दुर्गा सप्तशती के इस श्लोक से करता हूँ इसमें कहा गया है...
विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः, स्त्रियाः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्, का ते स्तुतिः स्तव्यपरापरोक्तिः॥ - दुर्गा सप्तशती
 अर्थात्:- हे देवी! समस्त संसार की सब विद्याएँ तुम्हीं से निकली है तथा सब स्त्रियाँ तुम्हारा ही स्वरूप है। समस्त विश्व एक तुमसे ही पूरित है। अतः तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए।
नारी अद्भुत असीमित शक्तियों का भण्डार है अनगढ़ को सुगढ़ बनाने वाली नारी यदि समर्थ हो तो वो समाज और राष्ट्र की रुपरेखा बदल सकती है । नारी परिवार की धुरी होती है ये वो शक्ति है जो अपने  स्नेह, प्रेम, करुणा और भावनाओं से परिवार को जोड़ कर रखती है।  ऐसी शक्ति स्वरूपा स्त्री  अपने परिवार से अपने लिए थोड़े से सम्मान की आकांक्षा रखती है ।पति का स्नेह उसकी शक्ति होता है जिसके बलबूते वो परिवार और अपने जीवन पर आने वाले बड़े से बड़े संकट से लोहा लेनी के लिए तैयार  रहती है इस परिप्रेक्ष्य में सावित्री की कथा सर्व विदित है जो अपने दृढ़ निश्चय एवं  सतीत्व की शक्ति से मृत्यु के देवता से सत्यवान के प्राण वापस ले आई थी । 
व्यक्ति और समाज के बीज की कड़ी है ‘परिवार’, और परिवार की धूरि है- ‘नारी’। परिवार मनुष्य के लिए प्रथम पाठशाला है।  अन्य शिक्षाएं जैसे  शिल्पकला कौशल, भौतिक शिक्षाएँ सरकारी या अन्य व्यावसायिक शिक्षाएं तो  शैक्षणिक संस्थानों में दी जा सकती है, लेकिन  शिशु को जिस संस्कार रूपी अमृत का शैशवावस्था से ही पान कराया जाता है, जहाँ उसे आत्मीयता एवं सहकार तथा सद्भाव के इंजेक्शन तथा  अनुशासन रुपी टेबल से उसकी पाशविकता का उपचार किया जाता है वह परिवार ही है। जिसका मुखिया होता तो पुरुष है लेकिन महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व स्त्री द्वारा ही उठाये जाते है ।
उस परिवार के वातावरण को स्वर्ग के समान या नरक के समान बनाना बहुत हद तक नारी के हाथ में होता है। वह चाहे तो अपने परिवार की फुलवारी में झाँसी की रानी, मदर टेरेसा, दुर्गावती,सिस्टर निवेदिता, गांधी, गौतम बुद्ध और तिलक, सुभाष बना सकती है या चाहे तो आलस्य प्रमाद में पड़ी रहकर भोगवादी संस्कृति और विलासी जीवन की  पक्षधर बनकर, दिन भर टी.वी. देखना, गप्प करना , निरर्थक प्रयोजनों में अपनी क्षमता व समय को नष्ट कर बच्चों को कुसंस्कारी वातावरण की भट्टी में डालकर परिवार और समाज के लिए भार मूल सन्तान बना सकती है।
इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते है जहां स्त्री ने अपनी सन्तान को  पुरुष के सहयोग के बिना ही संस्कारी और  सुसंस्कृत  बनाया है । स्त्री पुरुष के बिना भी अपनी सन्तान को श्रेष्ठ और समाजोपयोगी बना सकती है। भरत जिसके नाम पर आर्यावर्त का नाम भारत पढ़ा उसका पालन पोषण  शकुन्तला ने अकेले ही किया लेकिन  वीरता और संस्कारों  की ऐसी  घुट्टी पिलाई की आज भी भारत नाम विश्व के अंदर जाना और माना जाता है । गर्भवती सीता को जब वन में भेज दिया गया। उस समय भी उन्होंने हार नहीं मानी अपितु अपने गर्भ से जन्म लेने वाले पुत्रों का ऐसा पालन पोषण किया कि, वो  राम के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को खेल ही खेल में न केवल पकड़ लाये अपितु उसके लिए संघर्ष करने आये सूरमाओं को भी उन्होंने छटी का दूध याद दिला दिया । शंकराचार्य ,विवेकानंद ,भगत सिंह  आदि के जीवन में भी मां का विशेष प्रभाव रहा । समाज निर्माण एवं परिवार निर्माण में नारी के योगदान के बिना सफलता सम्भव नहीं परन्तु उसकी प्रतिभा का लाभ हमें तब मिलेगा जबकि वो स्वयं  समर्थ ,सुसंस्कृत हो । विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समृद्ध समुन्नत एवं समर्थ  बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के संवर्धन में बड़ा योगदान दे सकती है। गार्गी,मदालसा, स्वयंप्रभा,भारती, अनुसुइया ये सभी ऐसी महान विभूतियाँ हुई है । जिन्होंने राष्ट्र निर्माण में अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व की आहुतियाँ दी।
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पैसा बहुत कुछ है मगर सब कुछ नहीं

पिछले दिनों अमीरी को इज्जत का माध्यम माना जाता रहा है। इज्जत पाना हर मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। इसलिये प्रचलित मान्यताओं के अनुसार हर मनुष्य अमीरी का इच्छुक रहता है, ताकि उसे दूसरे लोग बड़ा आदमी समझें और इज्जत करें। अमीरी सीधे रास्ते नहीं आ सकती। उसके लिए टेड़े रास्ते अपनाने पड़ते हैं। हर समाज और देश की अर्थ व्यवस्था एक स्तर होता है। उत्पादन, श्रम और क्षमता के आधार पर दौलत बढ़ती है। देश में वैसे साधन न हों तो सर्वसाधारण के गुजारे भर के लिए ही मिल सकता है। अपने देश की स्थिति आज ऐसी ही है, जिसमें किसी प्रकार निर्वाह चलता रहे तो पर्याप्त है। औसत देशवासी की परिस्थिति से अपने को मिलाकर काम चलाऊ आजीविका से सन्तोष करना चाहिये। हम सब एक तरह का जीवन जीते हैं और ईर्ष्या, असन्तोष का अवसर नहीं आने देते इतना ही सोचना पर्याप्त है। अमीरी की ललक पैदा करना सीधा मार्ग छोड़कर टेढ़ा अपनाने का कदम बढ़ाना है। पिछले दिनों अनैतिक मार्ग अपनाने वाले-अमीरों इकट्ठी कर लेने वाले इज्जत आबरू वाले बड़े आदमी माने जाते रहे होंगे। पर अब वे दिन लद चुके। अब समझदारी बढ़ रही है। दौलत अब बेइज्जती की निशानी बनती चली जा रही है। लोग सोचते हैं, यह आधे मार्ग अपनाने वाला आदमी है। यदि सीधे मार्ग से कमाता है तो भी ईमानदारी का लोभ है कि देश-वासियों ने औसत वर्ग की तरह जिये और बचत को लोक मंगल के लिए लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया जाता, बढ़ी हुई कमाई को ऐयाशों में बड़प्पन के अहंकारी प्रदर्शन में खर्च किया जाता है अथवा बेटे-पोतों के लिए जोड़ा जमा किया जाता है तो ऐसा कर्तव्य विचारशीलता की कसौटी पर अवांछनीय ही माना जाएगा अमीरी अब निस्सन्देह एवं निष्ठुर वर्ग माना जाएगा हमें सन्देह है कि अमीरी अब पचास वर्ष भी जीवित रह सकेगी। विवेकशीलता उसे छोड़ने के लिए बाध्य करेंगी अन्यथा कानून विद्रोह उसका अन्त कर देगा।
अमीरी इकट्ठी तो कोई बिरले ही कर पाते हैं पर उसकी नकल बनाने वाले विदूषक हर जगह भरे पड़े हैं। चूँकि अमीरी इज्जत का प्रतीक बनी हुई थी, इसलिए इज्जत पाने के लिये अमीरी इकट्ठी करनी चाहिये और यदि वह न मिले तो कम से कम उसका ढोंग ही बना लेना चाहिये, यह बात नासमझ वर्ग में धर कर गई है और वह इस नकलची मन पर बेतरह अपने आपको बर्बाद करता और अर्थ संकट के दल-दल में धँसता चला जाता है। लोग सोचते हैं कि हम अपना ठाठ-बाठ अमीरों जैसा बना लें तो दूसरे यह समझेंगे कि यह अमीर और बड़ा आदमी है और चटपट उसकी इज्जत करने लगेंगे, इसी नासमझी के शिकार असंख्य ऐसे व्यक्ति, जिनकी आर्थिक स्थिति सामान्य जीवन यापन के भी उपयुक्त नहीं, अमीरी का ठाठ-बाठ बनायें फिरते हैं। कपड़े जेवर, फर्नीचर, सुसज्जा आदि को प्रदर्शनात्मक बनाने में इतना खर्च करते रहते हैं कि उनकी आर्थिक कमर ही टूट जाती है। दोस्तों के सामने अपनी अमीरी का पाखण्ड प्रदर्शित करने के लिए पान-सिगरेट सिनेमा, होटल आदि के खर्च बढ़ाते हैं और उसमें उन्हें भी शामिल करते हैं ताकि उन पर अपनी अमीरी का रौब बैठ जाय और इज्जत मिलने लगे। कैसी झाड़ी समझ है यह और कैसा फूहड़ तरीका है। कोई समझदार व्यक्ति उस नासमझी पर हँस ही सकता है। पर असंख्य लोग इसी बहम में फँसे फिजूल खर्ची और फैशन में पैसा उड़ाते रहते हैं और अपनी आर्थिक स्थिरता को खोखली करते चलते हैं।
मामूली आमदनी के लोग जब अपनी स्त्रियों के बक्से कीमती साड़ियों से भरते हैं और जेवरों में धन गँवाते हैं, तब उसके पीछे यही ओछापन काम करता है कि ऐसी सजी-धजी हमारी औरत को देखकर हमें अमीर मानेंगे। पुरुष साड़ी, जेवर तो नहीं पहनते पर सूट-बूट घड़ी, छड़ी उनकी भी कीमती होती है, ताकि मित्रों के आगे बढ़-चढ़कर शेखी मार सकें। विवाह-शादियों के वक्त यह ओछापन हद दर्जे तक पहुँच जाता है। स्त्रियाँ ऐसे कपड़े लटकाये फिरती हैं, जैसे सिनेमा, नाटक के नट लोग पहनते हैं। बारातियों का औघड़पन देखते ही बनता है। ऐसा ठाठ-बाठ बनाते हैं मानों कोई बड़े मिल मालिक, जागीरदार अफसर अथवा सेठ-साहूकार हों। जानने वाले जब जानते हैं कि जरा-सी आमदनी वाला यह ढोंग बनाये फिरता है तो हर कोई असलियत समझ जाता है और दो ही अनुमान लगाता है या तो यह कर्जदार रहता होगा या बेईमानी से कमाता होगा। यह दोनों ही बातें बेइज्जती की हैं। सोचा यह गया था कि ठाठ-बाठ वाले बाबू को गैर सरकारी नौकरी नहीं मिलती। मालिक जानता है, इतना वेतन तो ठाठ-बाठ में ही उड़ जाएगा, फिर बच्चों को खिलाने के लिए इस हमारे यहाँ चोरी का जाल फैलाना पड़ेगा। यही बात स्त्रियाँ के सम्बन्ध में है। बहुत फैशन बनाने वाली महिलायें दो छाप छोड़कर जाती हैं या तो इनके घर में अनुचित पैसा आता है अथवा इनका चरित्र एवं स्वभाव ओछा है। यह दोनों ही लाँछन किसी कुलीन महिला की इज्जत बढ़ाते नहीं घटाते हैं। घर परिवार में यह सज-धज की प्रवृत्ति मनोमालिन्य पैदा करती है। अपव्यय हर किसी को बुरा लगता है। जो पैसा परिवार के शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, विनोद, पौष्टिक आहार आदि में लग सकता था, उसे फैशन में खर्च किया जाने लगे तो प्रत्यक्षतः परिवार के अन्य सदस्यों की सुख का अपहरण है। ठाठ-बाठ की कोई बाहर से प्रशंसा कर दे किसी को कुछ समय के लिये भ्रम में डाल दे यह हो सकता है पर साथियों में घृणा और ईर्ष्या ही पैदा होगी, वहाँ इज्जत बढ़ेगी नहीं घटेगी। बढ़े चढ़े खर्चों की पूर्ति के लिए अवांछनीय मार्ग ही अपनाने पड़ेंगे। कर्जदार और निष्ठुर जीवन जीना पड़ेगा। आमदनी सही भी है तो भी उसे व्यक्तिगत व्यय में सामाजिक स्तर के अनुरूप ही खर्च करना चाहिये। अधिक खर्च लोक-मुगल का हक मारना है।
अच्छा हो हम समझदारी और सज्जनता से भरा हुआ, सादगी का जीवन जिये अपनी बाह्य सुसज्जा वाले खर्च को तुरन्त घटा दें और उस बचत से अपनी-अपने परिवार की तथा समाज की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करने में लगाने लगें। सादगी सज्जनता का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका देश विन्यास सादगी पूर्ण है, उसे अधिक प्रामाणिक एवं विश्वस्त माना जा सकता है। जो जितना ही उद्दीपन दिखायेगा, समझदारों की दृष्टि में उतना ही इज्जत गिरा लेगा। इसलिये उचित यही है कि हम अपने वस्त्र सादा रखें, उनकी सिलाई भले मानसी जैसी करायें, जेवर न झनकारें, नाखून और होंठ न रंगे, बालों को इस तरह न सजाये, जिससे दूसरों को दिखाने का उपक्रम करना पड़े। नर-नारी के बीच मानसिक व्यभिचार का बहुत कुछ सृजन इस फैशन-परस्ती में होता है।
सादगी-शालीनता और सज्जनता का सृजन करती है। उसके पीछे गम्भीरता और प्रामाणिकता, विवेक शीलता और बौद्धिक परिपक्वता झाँकती है। वस्तुतः इसी में इज्जत के सूत्र सन्निहित हैं। सादगी घोषणा करती है कि यह व्यक्ति दूसरों को आकर्षित या प्रभावित करने की चालबाजी नहीं, अपनी वास्तविकता विदित करने में सन्तुष्ट है। यही ईमानदारी और सच्चाई की राह है। यह आमदनी बढ़ाने का भी एक तरीका है फिजूलखर्ची विदित करने में संतुष्ट है। यही ईमानदारी और सच्चाई की राह है। यह आमदनी बढ़ाने का भी एक तरीका है। फिजूलखर्ची रोकना अर्थात् आमदनी बढ़ाना। विवाह-शादियाँ उत्सव, आयोजन, प्रीति-भोजों और अमन-चलनों में अपना पैसा बुरी तरह कटता है, उसके पीछे यही ओछी प्रवृत्ति काम करती है कि जितना अधिक पैसा खर्च होगा, उतना ही अमीरी का रौब जमेगा और उसी हिसाब में इज्जत बढ़ेगी। समय आ गया कि इस बाल-बुद्धि को छोड़ कर प्रौढ़ता का दृष्टिकोण अपनाया जाय। हम गरीब देश के निवासी हैं। सर्वसाधारण को सामान्य सुसज्जा और परिमित खर्च के काम चलाना पड़ता है। अपनी वस्तुस्थिति यही है। अपने करोड़ों भाई-बहिनों की पंक्ति में ही हमें खड़े होना चाहिये और उन्हीं की तरह रहन-सहन का तरीका अपनाना चाहिये। इस समझदारी में ही इज्जत पाने के सूत्र सन्निहित हैं। फैशन परस्ती और अपव्यय की राह अपनाकर हम आर्थिक संकट को तो निमन्त्रित करते ही हैं।
स्वच्छता के साथ जुड़ी हुई सादगी अपने आपमें एक उत्कृष्ट स्तर का फैशन है। उसमें गरीबी का नहीं महानता का पुट है। सादा वेशभूषा और सुसज्जा वाला व्यक्ति अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा और स्वतन्त्र चिन्तन का परिचय देता है। भेड़चाल को तोड़कर जो विवेकशीलता का रास्ता अपनाता है, वह बहादुर है। अपनी संस्कृति और परम्परा के अनुरूप यदि हमारा आचरण है तो कोई भी परखने वाला हमें दूरदर्शी, विवेकशील एवं दृढ़ चरित्र ही कहेगा। सादगी हमें फिजूल-खर्ची से बचाकर आर्थिक स्थिरता में ही समर्थ नहीं करती वरन् हमारी चारित्रिक दृढ़ता भी प्रमाणित करती है। अकारण उत्पन्न होने वाली ईर्ष्या और लाँछना से बचने का भी यही सल मार्ग है। विचार करें ।
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दीपावली पर पटाखों का प्रयोग धार्मिक एवं पर्यावरण दोनों ही दृष्टि से अनुचित

मित्रों जब से दिल्ली सरकार ने दिल्ली में दीवाली पर आतिशबाजी करने और पटाखे चलाने पर बैन लगाया है तब से सोशल साइट पर सरकार के खिलाफ एक प्रकार का आन्दोलन सा चल पढ़ा है हमारे बेचारे हिन्दू भाई जानकारी एवं ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में इसे धर्म का अपमान और सनातन संस्कृति के प्रति षड्यंत्र मान रहे है। आप मेरा ये लेख अंत तक ज़रूर पढ़े तब आप को मालूम पढ़ सकेगा की हम कैसे भ्रम में पढ़कर अपनी संस्कृति को नुकसान पहुंचा रहे है, जब की मुद्दा तो कुछ और ही है। वास्तव में हमारे हिन्दू सनातन संस्कृति में दीवाली जैसे पावन अवसर पर आतिशबाजी करने की परम्परा कभी रही ही नहीं रामचरित्र मानस में भी कहीं नहीं लिखा की राम जी जब अयोध्या लौट कर आये तो अयोध्या वासियों ने आतिशबाजी की या पटाखे चलाकर और पर्यावरण को दूषित प्रदूषित कर श्री राम का स्वागत किया।उस समय चूंकि श्री राम की वापसी के कारण लोगों में उत्साह था और हर व्यक्ति श्री राम के प्रति अपने स्नेह और भक्ति को प्रकट करना चाहता था इसलिए उन्होंने श्री राम के अयोध्या आगमन पर दीपमालिका सजाकर उनका स्वागत किया क्योंकि श्री राम अमावस की काली रात में अयोध्या लौटे तो उनके दर्शन पाने के लिए लोगों ने घरों में और पुरे नगर में दीप जलाए जिससे की लोगों को उनका दर्शन स्पष्ट रूप से हो सके क्योंकि उन दिनों बिजली तो हुआ नहीं करती थी ।
लेकिन किसी ने पटाखे चलाये हों ऐसे तो कोई प्रमाण नहीं मिलते सरकार द्वारा पर्यावरण की रक्षा हेतु पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाना एक सराहनीय प्रयास है जिसका धर्म से कोई लेनदेन नहीं है । दिल्ली जैसे महानगर में जहां लोगों की आबादी करोड़ों में है। वहां पहले से ही पर्यावरण प्रदूषण है अभी कुछ दिनों पहले ही दिल्ली में इतना प्रदूषण बढ़ गया था की वहां के लोगों को प्रदूषण से होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए वहां की सरकार को कई दिनों तक सरकारी,गैर सरकारी संस्थान बंद रखने पढ़े थे साथ ही लोगों को ज़हरीली हवा से बचने के लिए मास्क लगाने की हिदायत भी दी गयी थी ।क्या वहां के लोग या कट्टर हिन्दू पंथी पर्यावरण संरक्षण के इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर या धर्म के अपमान के साथ जोड़कर लोगों के स्वास्थ्य या जीवन के साथ खेलना चाहते है जो लोग ऐसा चाहते है निश्चित रूप से वो हिन्दू अथवा कहें की श्री राम के उपासक तो नहीं हो सकते । कई लोग तो अपनी बात को सही साबित करने के लिए ये तथ्य भी दे रहे है की केवल हिन्दुओं के त्योहारों में ही ऐसा होता है लेकिन जब मुसलमान बकरा काटता है तो सरकार कुछ नहीं कहती तब कोई प्रदूषण नहीं होता क्या ? इसके लिए मैं कहता हूँ की हाँ तब कोई प्रदूषण नहीं होता क्योंकि बकरा काटने पर ना तो धुंए का कोई ज़हरीला गुबार उठता है और न ही प्रदूषण होता है हाँ पानी को ज़रूर बढ़ी मात्रा में बहाया जाता है जिस पर की सरकार को कार्यवाही करनी चाहिए और उचित प्रबंधन करना चाहिए । यदि आहार एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो बकरा काटने वाले और खाने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य पर ही प्रभाव पढ़ता है जबकि आस-पास के लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित नहीं होता लेकिन पटाखे और आतिशबाजी से निकलने वाला धुआं आस पास के उन लोगों के स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डालता है जिनका इस त्यौहार से कोई लेना देना नहीं है इस दृष्टि से भी ये अनुकूल नहीं है ।
कई लोगों ने तथ्य दिए की क्रिसमस और नये साल पर भी बढ़ी मात्रा में आतिशबाजी की जाती है तब सरकार कुछ नहीं कहती लेकिन भाइयों क्रिसमस और नये साल पर जो आतिशबाजी होती है वो इतनी बढ़ी मात्र में नहीं होती जितनी की दीपावली के दिन होती है हम इस देश के 80 प्रतिशत हिन्दू इस पर्व को बढ़ी धूमधाम से मनाते है और लगभग प्रत्येक व्यक्ति 500 से 5000 या उससे भी अधिक मूल्य के पटाखे चलाकर इस पर्व को मनाता है साथ ही अन्य धर्मों के वो लोग भी इसमें शामिल हो जाते है जिनका इस पर्व से कोई लेना देना नहीं है इस कारण देश में विशेषकर बड़े शहरों में इस दिन पर्यावरण की स्थिति ज्यादा ख़राब हो जाती है जो की एक विचारणीय मुद्दा है।
आइये बात करते है ऐतिहासिक तथ्यों पर की आतिशबाजी और पठाखे चलाने की परम्परा का प्रारम्भ कहां से हुआ ।
बारूद के पटाखे को 20 अप्रैल 1526 ई0 को चंगेज़ ख़ान का बेटा बाबर लेकर आया था। प्रो0 रशब्रुक विलियम्स की पुस्तक ऐन इम्पायर बिल्डर ऑव दी सिक्सटीन्थ सेन्चुरी पेज 111 और बाबरनामा के अनुसार इसकी खोज बाबर की सेना के एक उस्ताद अली कुली नाम के एक तुर्क तोपची ने की थी ।
इस बारुद की बदौलत ही 16 मार्च 1527 ई0 को बाबर की सेना ने मेवाड़ के राजा राणा सांगा और भारत के राजपूत राजाओं की सेना को परास्त कर भारत में  मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी थी।
श्री कौशिकेय ने बताया कि भारत की धरती पर पहली बार आतिशबाजी और पटाखे बाबर की सेना ने तब छोड़ कर खुशियाँ मनाई। जब खानवा के मैंदान में हिन्दू राजाओं के नरमुण्डों का पिरामिड सजा कर मंगोलों ने बाबर को गाजी की उपाधि से नवाज़ा था। बाबरनामा अनुवादक बेवरिज के अनुसार पेज 90 पर बाबर ने लिखा है कि हमारे दस हजार बहादुर मंगोलों ने हिन्दू राजाओं की दो लाख सैनिकों की सेना को परास्त कर दिया और सभी हिन्दू राजा मारे गये। यदि आप हिंदुत्व की बात करते है तो ये ऐतिहासिक जानकारी रखना भी आवश्यक है ।
ये भी विचारणीय है की दीपावली और छठ जैसे पवित्र पर्वों पर आतिशबाजी करना पटाखे बजाने की परम्परा कभी नहीं रही है। यह तो सरासर अपने पूर्वजों का घोर अपमान और मुगलों की दासता क्रूरता को महिमा मंडित करना है।  हमारे यहाँ शंख , घंटा, घड़ियाल, नगाड़े बजाने की परम्परा रही है। जो मंगल वाद्य है।
 भारत माता मातृभूमि को मुगलों की दासता से बचाने में बलिदान हुए हिन्दू वीरों के सम्मान की रक्षा अब आप किस प्रकार करना चाहते है ये आप स्वयं विचार करें ।
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अनगढ़ को सुगढ़ बनाते “संस्कार”

संस्कार मनुष्य के कुल की पहचान होते है प्रत्येक परिवार के अच्छे बुरे संस्कार व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते है और आगे चलकर हमारी भावी सोच को भी प्रभावित करते है । प्रत्येक मनुष्य के लिये जीवन में दो पहलू हैं एक भला दूसरा बुरा अब मनुष्य कौन से पहलू को अपनाता है ये उसके संस्कार पर निर्भर करता है। कई बार लोग गलत रास्ते पर जाते-जाते वापस लौट आते है ये उनके संस्कार का प्रभाव होता है । जो जिस मार्ग का अनुसरण करेगा उसी के आधार पर उसके जीवन का मूल्यांकन होता है। बुराई, जड़ता मनुष्य को मनुष्यत्व से नीचे गिराती हैं और भलाई, सहृदयता, सौजन्य उसे मनुष्य बनाते हैं, यही उसके चेतना धर्म के प्रतीक हैं।
मनुष्य बनने के लिये हमारी चेतना ऊर्ध्वगामी हो। निम्नगामी न हो परन्तु आज हो इसके विपरीत रहा है लोग रात दिन हाय- हाय कर रहे हैं धन की, प्रतिष्ठा की, ऐश्वर्य कीर्ति की, सत्ता हथियाने की, अपने को बड़ा सिद्ध करने की ये प्रवृत्ति निम्नगामी है और इनसे ऊपर उठकर त्याग, सन्तोष, संयम, सदाचार शील, क्षमा, सत्य, मैंत्री, परमार्थ आदि गुणों को जीवन में विकसित करना ऊर्ध्वगामी चेतना के लक्षण हैं।
मानव जब जन्म लेता है तो उसमे किसी भी प्रकार की विकृति नहीं होती है वो एक कोरे कागज़ के समान होता है । इस जीवन रुपी कोरे कागज़ पर वो क्या लिखता है ये उस व्यक्ति के संस्कारों और संगत पर निर्भर करता है। अच्छी संगति मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का विकास कर उसे लोगों के ह्रदय में बैठा देती है वहीं दूसरी और कितना भी प्रभावशाली व्यक्ति हो उसके संगति यदि निकृष्ट है तो वह व्यक्ति समाज के साथ-साथ अपना भी अहित कर बैठता है। इसी परिप्रेक्ष में अपने विध्यार्थी समय में अपने अध्यापक से एक कहानी सुनी थी उस कहानी को आप लोगों के साथ साझा करना चाहूँगा।
एक सम्पन्न कुल में दो भाई थे। उन दोनों की शिक्षा- दीक्षा एक ही गुरु द्वारा सम्पन्न हुई ,दोनों ही में समान संस्कारों का सिंचन किया गया । जब वे दोनों गुरुकुल की शिक्षा समाप्त करके समाज में अपना स्थान निश्चित करने का प्रयास करने लगे ऐसे समय में एक भाई को बुरे वातावरण में पड़ जाने से जुएँ की लत पड़ गई क्योंकि वह योग्य पढ़ा लिखा और विद्वान था, साथ ही सत्यवादी भी और जुआरियों की तरह उसमें चालाकी घोखादेही भी न थी इसी कारण वह हार जाता। उसने अपने हिस्से की सारी सम्पत्ति जुआ में लुटा दी और फिर अभावग्रस्त जीवन बिताने लगा।  थोड़े समय बाद उसका जीवन स्तर और नीचे गिरा और उसे चोरी और लूट की लत भी पढ गयी । उसकी बुराइयों ने समाज में उसकी छवि मलिन कर दी और वह लोगों की नज़रों में खटकने लगा । लोग उसके मुँह पर बुरा भला कहते।
वहीं दूसरा भाई लोगों की आँखों का तारा था। वह समाज की भलाई के कामों में हाथ बँटाता ,सदाचार का जीवन बिताकर जितनी दूसरों की भलाई हो सकती थी उतनी करता। लोग उसकी बड़ाई करते और उसे घेरे ही रहते। एक दिन पहले भाई का देहान्त हो गया। लोग कहने लगे अच्छा हुआ मर गया तो धरती से एक दुष्ट कम हुआ इसी प्रकार तरह- तरह से उसकी बुराई करने लगे ।  कुछ समय बाद दूसरे सज्जन भाई का भी देहावसान हुआ तो सारे नगर में शोक छा गया स्त्री- पुरुष रोने लगे उसके उपकारों एवम् उसकी सज्जनता को याद करके, उसके नाम पर समाज में कई संस्थाएँ खोली गई। समाचार पत्रों में उसके नाम पर शोक प्रकट किया गया।
एक ही कुल, एक ही माता-पिता ,एक सी परिस्थिति ,एक ही वातावरण फिर भी एक भाई को दुनिया कोसती है और दूसरे की रात- दिन बड़ाई करती हुई श्रद्धा प्रकट करती थी ,यह क्यों ? इसका एक ही उत्तर है कि पहले भाई ने अपने जीवन में मानवोचित गुणों का विकास कर समाज में श्रेष्ठ योगदान दिया जबकि दुसरे भाई ने अच्छी शिक्ष दीक्षा होने के बाद भी बुरी संगत होने के कारण समाज को अपनी विकृत सोच से प्रभावित किया । पहले ने अपने जीवन में मनुष्य धर्म को भूल कर पाप का आचरण किया ,हैवानियत का रास्ता अपनाया जबकि दूसरे ने इंसान के पुतले में जन्म लेकर इन्सान बनने की कोशिश की।
राम चरित मानस में आता है की जब राम को वनवास हुआ तो पूरी अयोध्या ने आंसू बहाए यहाँ तक की लोग अपनी धन सम्पत्ति और घर परिवार छोड़कर वन में जाने तक को तैयार हो गये उसका था की राम ने अपने जीवन में मनुष्यत्व का अवलंबन लिया और अपने श्रेष्ठ कृतित्व से समाज और जन कल्याणकारी  कार्य किये आज भी राम को याद करके हमारा मन अहोभाव से भर जाता है । वहीं दूसरी और रावण जो अपने समय का प्रकांड विद्वान और शक्ति शाली सम्राट था वेदवेत्ता और ज्ञानी इतना की जिससे ब्रह्मा और शिव भी प्रभावित थे उसने अपनी तपस्या से तीनों लोकों को अपने आधीन कर लिया था ।  रावण एक महान विद्वान ,वैज्ञानिक ,शक्तिशाली राजा एव स्वर्ण नगरी का मालिक था समस्त संसार पर उसका प्रभाव था, फिर भी लोग हर साल उसे जलाते है ऐसा क्यों करते है? उत्तर स्पष्ट है। राम ने मनुष्यत्व की रक्षा की और रावण ने मनुष्य बनकर भी मनुष्यता से गिर कर पापाचार किया लोगों को सताया,अहंकार को बढ़ाया, अपनी नीयत को खराब किया। राम ने घर- घर जाकर मानवता का भरण पोषण और सेवा की।
सम्पत्तिशाली, नेता, विद्वान, लेखक, सम्पादक, शासक, शक्ति सम्पन्न, वैज्ञानिक होना अलग बात है और मनुष्य बनना दूसरी बात है। इन सबके साथ यदि मनुष्यता का सम्बन्ध नहीं है तो यह सब पत्थर पर मारे गये तीर की भाँति बेकार सिद्ध होंगे । यदि उक्त भौतिक सम्पत्तियाँ प्राप्त करके भी मनुष्यत्व नहीं है तो सब व्यर्थ हैं, केवल बाहरी बनावट मात्र हैं। जैसे लाश को बाहर से अच्छी तरह सजा कर उसे जीवित सिद्ध करना, किन्तु आखिर वह लाश ही रहेगी। चेतना उसे स्वीकार नहीं करेगी। उसी प्रकार बाहरी सौंदर्य का इतना महत्व नहीं है जितना की भीतरी सौंदर्य का हैं। हम इस प्रकार के बाह्य  सौन्दर्य के भ्रम से बचकर अपने अंदर मनुष्यत्व के गुणों का अधिकाधिक विकास करना चाहिए जिससे की हमारा रावण, कुम्भ करण जैसा पतन न हो बल्कि हम मानवीय गुणों का विकास कर दूसरों में भी इन गुणों का विकास कर सके और समाज एवं राष्ट्र को श्रेष्ठ बना सकने में अपन योगदान दे सकें।
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स्त्री सौन्दर्य के प्रति पुरुष का दृष्टिकोण

आज हर पुरुष सौन्दर्य के पीछे पागल है जहां भी उसे थोड़ा बहुत कम या ज्यादा मात्रा में सौन्दर्य का आभास होता है वो वहां अनायास ही खिंचा चला जाता है वास्तव में सौन्दर्य होता क्या है क्या देह की कमनीयता,शरीर की कामुक भावभंगिमायें सौन्दर्य है, क्या नारी का रूप सौष्ठव ही उसकी पहचान है । जब पुरुष को स्त्री में केवल कमनीयता, कामुकता का ही दर्शन होने लगे तो क्या इसे ही सौन्दर्य की पराकाष्ठा समझा जाए । लेकिन कई बार पुरुष एक सुंदर स्त्री के सौन्दर्य का दर्शन ही नहीं कर पाता क्योंकि सौन्दर्य केवल ऊपरी सजावट का नाम नहीं है बल्कि ये अंदर से प्रकट होने वाली सुंदर कोमल भावनाओं की परछाई भी है  ।
लेकिन जब कोई पुरुष स्त्री के बाह्य सौन्दर्य को ही सब कुछ मान बैठता है तो स्त्री की स्थिति बड़ी मार्मिक हो जाती है एक घटना याद आ रही है,एक नवविवाहिता थी जिसे दर्पण के सामने बैठे हुए काफी देर हो गयी थी । न जाने यह दर्पण उसे क्या बता रहा था या वो स्वयं, ही इस काँच के टुकड़े में कुछ ढूंढ़ रही है। जरीदार लाल साड़ी , हाथों में भरी-भरी लाल चूड़ियां, अंग-प्रत्यंगों में अपनी आभा विकीर्णित करते सुवर्ण आभूषण, सिर में लाल रंग की रेखा बनाता सिन्दूर और माथे पर सूर्य के समान दैदीप्यमान कुमकुम बिंदी उसके नववधू होने की पहचान दे रहे थे। कीमती साजो-सामान से भरा-पूरा कमरा ऐश्वर्यवान होने की गवाही देने के लिए काफी था। उसकी निजी सम्पत्ति के रूप में अलमारी में करीने से सजी पुस्तकें, यह बता रही थीं कि यहाँ विद्या का भी वास है।
धन-ऐश्वर्य-विद्या इन तीनों की उपस्थिति के बावजूद वह उदास थी। पलकें व्यथा के भार से बोझिल थीं। मुख मलिन था मुख पर उभरने वाली आड़ी-तिरछी रेखाओं ने उदासी का स्पष्ट रेखांकन किया था। कहा जाता है मुख मनुष्य का भाव-दर्पण है,हमारे अंदर मची हुई उथल-पुथल को ये साफ़ प्रदर्शित करता है । व्यक्ति कितनी भी कोशिश करे लेकिन किन्हीं गहन आयामों में होने वाली हलचलें, भावों का आलोड़न-विलोड़न इसमें उभरे बिना नहीं रहता। अनायास उसने होंठ सिकोड़े। माथे की लकीरें बिखरीं और कुछ शब्द फिसले ‘सौंदर्य’ किसे कहते हैं ‘सुन्दरता क्या है ?’ शब्द अस्फुट होने के बावजूद स्पष्ट थे। पता नहीं किससे पूछा था उसने यह सवाल?
वैसे दिखने में यदि उसके नाक-नक्श तराशे हुए नहीं हैं तो कुरूप भी नहीं कहा जा सकता। अन्धी-कानी, लँगड़ी- लूली, बहरी तो वह है नहीं। सुन्दरता की पहचान क्या महज चमड़ी की सफेदी है? क्या मोहक चाल, इतराती मदभरी आँखें, तराशी हुई संगमरमरी देह जो अपनी रूप ज्वाला में अनेकों के चरित्र को आहूत कर दे और हृदय को झुलसा दे। उनके चरित्र चिन्तन को अपने हाव-भावों से दूषित कर दे क्या इसे ही सुन्दरता कहते है ? अथवा सुन्दरता उसे कहें जिसका मन व्यक्तित्व के गुणों का समुच्चय हो ,जो उच्च मानवीय गुणों से युक्त हो और कर्तृत्व सत्प्रवृत्तियों का निर्झर हो जिसकी विशालता के कारण जिसके निस्वार्थ प्रेम ,स्नेह के कारण अनेक जिन्दगियाँ विकसित हों।  रूप राशि भले दो जीवनों में क्षणिक आकर्षण पैदा करे, पर सम्बन्धों की डोर मृदुल व्यवहार के बिना कहाँ जुड़ पाती है? चरित्र की उज्ज्वलता के बिना भी कभी आपस में विश्वसनीयता पनपी हैउसके पूछे गए प्रश्न के यही दो उत्तर हैं, जो आदि काल से वातावरण में गूँज रहे हैं- किसी एक को चुनना है। चलिए इस प्रश्न का उत्तर अंतरात्मा से आप भी चुनिए मैं भी चुनता हूँ ।                                                                                                        सर्वाधिकार सुरक्षित










एक संकल्प दिवस है रक्षा बंधन का पर्व

भारत के प्राचीन इतिहास को उठाकर देखें तो हम पाते है की भारत वर्ष में संकल्पों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । इतिहास कहता है कि बढ़े- बढ़े राजाओं महाराजाओं ने अपने संकल्प की रक्षा के लिए उसकी पूर्ति के लिए अपने राजपाट तक त्याग दिए राजा हरिश्चंद्र और बलि की कथाएँ सर्व विदित है। आज के दिन बहन अपने भाई को संकल्प सूत्र (राखी) बांधकर अपनी रक्षा के लिए संकल्पित करती है । रक्षाबंधन का पर्व एक ओर जहां भाई-बहन के अटूट रिश्ते को राखी की डोर में बांधता है, वहीं यह वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्म शुद्धि का अवसर भी प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है। इस दिन को श्रावणी उपाकर्म के रूप में मनाते हैं और यजमानों के लिए कर्मकांड यज्ञ, हवन आदि करने की जगह खुद अपनी आत्म शुद्धि के लिए अभिषेक और हवन करते हैं।   
इस पर्व की महत्ता के पीछे भारतीय संस्कृति का इतना सुंदर इतिहास है जिसका कोई जवाब नहीं ऐसे एक नहीं अनेकों प्रसंग आते है जो इसके इतिहास का गौरव गान करते है । वास्तव में रक्षाबंधन एक संकल्प दिवस है इस दिन बहन अपने भाई को विश्वास,स्नेह रुपी सूत्र (राखी) बांधकर उसे अपनी रक्षा के लिए संकल्पित करती है जिसे भाई जीवनभर निभाता है ।मेरी सबसे प्रिय कथा महाभारत से सम्बन्धित है कहा जाता है की एक बार भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शिशुपाल का वध किया तो सुदर्शन को शिशुपाल की ओर इतना क्रोध से फेंका की उनकी ऊँगली में रक्त बहने लगा उस बहते हुए रक्त को रोकने के लिए द्रोपदी ने अपनी साड़ी का कपड़ा फाड़कर उनकी अंगुली पर बांधा जिसे ये कहकर कृष्ण ने स्वीकार कर लिया था की समय आने पर इसके एक-एक धागे का ऋण चुका दूंगा । भगवान कृष्ण द्रोपदी के इस प्रेम से भावुक हो गए और उन्होंने आजीवन सुरक्षा का न केवल वचन दिया बल्कि हर परिस्थितियों में पांडवों के साथ खड़े रहे और उनका मार्गदर्शन करते रहे । यह माना जाता है कि चीर हरण के वक्त जब कौरव राजसभा में द्रोपदी का चीर (वस्त्र) खींच रहे थे, तब कृष्ण ने उस छोटे से कपड़े को इतना बड़ा बना दिया था कि कौरव उसे पूरा खींच ही नहीं पाए।
भाई और बहन के निश्छल, निष्कपट प्रेम के प्रतीक इस पर्व से जुड़ी एक अन्य रोचक कहानी है, मृत्यु के देवता भगवान यम और यमुना नदी की है पौराणिक  कथाओं के मुताबिक यमुना ने एक बार भगवान यम की कलाई पर धागा बांधा था। वह बहन के तौर पर भाई के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करना चाहती थी। भगवान यम इस बात से इतने प्रभावित हुए कि यमुना की सुरक्षा का वचन देने के साथ ही उन्होंने अमरता का वरदान भी दे दिया। साथ ही उन्होंने यह भी वचन दिया कि जो भाई अपनी बहन की मदद करेगा, उसे वह लंबी आयु का वरदान देंगे।
यह भी माना जाता है कि भगवान गणेश के बेटे शुभ और लाभ एक बहन चाहते थे। तब भगवान गणेश ने यज्ञ वेदी से संतोषी मां का आह्वान किया। रक्षा बंधन को शुभ, लाभ और संतोषी मां के दिव्य रिश्ते की याद में भी मनाया जाता है।
 एक कथा राजा बली की आती है दानवेन्द्र राजा बलि के मन में स्वर्ग का प्राप्ति की इच्छा बलवती हो गई तो का सिंहासन डोलने लगा। इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की। भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली।
बलि के गु्रु शुक्रदेव ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर दिया किंतु दानवेन्द्र राजा बलि अपने वचन से न फिरे और तीन पग भूमि दान कर दी।
वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।
जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के रसातल निवास से परेशान लक्ष्मी जी ने सोचा कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरूप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी यथा रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा। आज माता-पिता और विद्यालयों का ये कर्तव्य है की हम अपनी आने वाली पीढ़ी को हमारी इस सनातनी विरासत की जानकारी दें और इनके महत्व को समझाएं । जिससे की आने वाली पीढ़ी भी हमारी गौरव और गरिमा से मंडित विरासत को संभालने में सक्षम बन सके।
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ईश्वरीय चेतना के अवतार का उद्देश्य

हम जब बात करते है भारतीय संस्कृति और विशेषकर हिन्दू धर्म की तो इसमें अवतार वाद ये शब्द  ज्यादातर सुनने को मिलता है भगवान कभी राम बनकर आ जाते है कभी कृष्ण बनकर कभी गौतम बुद्ध हो जाते है तो  कभी महावीर तो इसके पीछे भगवान का उद्देश्य क्या है ? ये प्रश्न एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा था ।
अकबर ने कहा की बीरबल आपके धर्म में भगवान कभी कृष्ण बन जाते है; कभी राम तो आप के भगवान के पास इतना समय होता है की वो धरती पर आते रहते है । बीरबल ने कहा की महाराज इसका उत्तर में आपको प्रमाण सहित दूंगा । कुछ दिन बीते तो बीरबल और अकबर नौका विहार करने के लिए गये; अकबर नौका-विहार आनन्द ले ही रहे थे की इतने में ही अकबर ने देखा की सामने से एक नौका आ रही है और उसमें कई सारी महिलाएं बैठी है; और उनके हाथ में अकबर का सबसे प्रिय पुत्र है अचानक वो बालक नदी में गिरता है ये देखकर अकबर उसे बचाने के लिए कुंऐ में कूद पड़ते है और जब वो उसे निकाल कर बाहर लाते है तो देखते है की वो उनका पुत्र नहीं है बल्कि पत्थर का बना एक पुतला था ।
ये देखकर अकबर को आश्चर्य होता है वो सभा बुलाते है और उन महिलाओं से पूछते की ये किस व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य है उसे मेरे सामने प्रस्तुत करो में उसे दण्डित करूंगा। ये सुनकर बीरबल सामने आते है और बोलते है महाराज ये आपका उपहास नहीं है  बल्कि आपके प्रश्न का उत्तर है जो आपने मुझसे पूछा था अब आप मुझे बताइए की महाराज आप स्वयं नदी में क्यों कूदे जबकि आपके पास तो एक बढ़ी सेना थी आप उसे आदेश देते वो पानी में कूदते और आपके  पुत्र को बचा लाते।
अकबर बोले अरे बीरबल जब मेरा प्रिय पुत्र पानी में डूब रहा था तो मुझे कुछ नहीं सुझा और  में उसकी जान बचाने के लिए कूद पढ़ा । बीरबल बोले ये ही आपके प्रश्न का उत्तर है महाराज जिस प्रकार आप अपने प्रिय पुत्र को संकट में देख कर स्वयं को रोक नहीं पाए और उसे बचाने के लिए स्वयं कूद पड़े। उसी प्रकार ईश्वर भी जब देखते है की मानव अपने जीवन के उद्देश्य और लक्ष्य से भटक गया है और जीवन जीने का ठंग भूल गया है तो भगवान स्वयं अपने प्रिय पुत्र हम मानवों के बीच हमारे जैसे ही  है बनकर आते है और इस दुनिया रूपी रंगमंच पर हमें जीवन रूपी अभिनय करना सिखाते है इसलिए स्वयं भगवान अपने किसी पीर पैगम्बर को नहीं भेजते आते है ।
ये ही उद्देश्य छिपा हुआ है ईश्वरीय अवतार के पीछे इसके अतिरिक्त यदि हम देखें तो शरीर को साधने से मन में दृढ़ता आती है व ईश्वर के प्रति आस्था के भाव दृढ होते हैं । मंदिरों में जाकर भजन कीर्तन में सम्मिलित होने से मन बुद्धि में पवित्रता आती हैकृष्ण वो किताब हैं । श्री कृष्ण की संर्पूण जीवन कथा कई रूपों में दिखाई पङती है। योगेश्वर  श्री कृष्ण उस संर्पूणता के परिचायक हैं जिसमें मनुष्य, देवता, योगी राज तथा संत आदि सभी के गुण समाहित है। समस्त शक्तियों के अधिपति युवा कृष्ण महाभारत में कर्म पर ही विश्वास करते हैं। कृष्ण का मानवीय रूप महाभारत काल में स्पष्ट दिखाई देता है। गोकुल का ग्वाला, बृज का कान्हा धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों के मायाजाल से दूर मोह-माया के बंधनों से अलग है। कंस हो या कौरव,पांडव,दोनों ही निकट के रिश्ते फिर भी कृष्ण ने इस बात का उदाहरण प्रस्तुत किया कि धर्म की रक्षा के लिए रिश्तों की बजाय कर्तव्य को महत्व देना आवश्यक है।
कृष्ण का जीवन दो छोरों में बंधा है। एक ओर बांसुरी है, जिसमें सृजन का संगीत है,आनंद है,और रास है। तो दूसरी ओर शंख है, जिसमें युद्ध की वेदना है, गरल है तथा नीरसता है।
ये विरोधाभास ये समझाते हैं कि सुख है तो दुःख भी है। यशोदा नंदन की कथा किसी द्वापर की कथा नहीं है, किसी ईश्वर का आख्यान नहीं है और ना ही किसी अवतार की लीला। ये तो वास्तव में भगवान का अनुग्रह है, हम मानवों पर की वो हमारे बीच आकर हमारे ही जैसा जीवन जीकर हमें जीवन जीने का ठंग सिखाते है । ईश्वर अवतार के माध्यम से ये बताना चाहते है की मानव जीवन का उद्देश्य केवल जीवन को सुविधामय बनाना नहीं है अपितु धर्म की रक्षा करना और अपनी कंस रुपी बुराइयों का संहार करना है ।
श्री कृष्ण जहां एक और यशोदा के नटखट लाल है तो कहीं द्रोपदी के रक्षक, गोपियों के मनमोहन तो कहीं सुदामा के मित्र। हर रिश्ते में रंगे कृष्ण का जीवन नवरस में समाया हुआ है। नटवर नागर नंद किशोर के जन्म दिवस पर मटकी फोड़ प्रतियोगिता के आयोजन का उद्देश्य खेल के द्वारा यह समझाना हैं, की किस तरह स्वयं को संतुलित रखते हुए लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है; क्योंकि “संतुलन और एकाग्रता” का अभ्यास ही सुखमय जीवन का आधार है। सृजन के अधिपति, चक्रधारी मधुसूदन का जन्मदिवस उत्सव के रूप में मनाकर हम सभी में उत्साह का संचार होता है और जीवन के प्रति सृजन का नजरिया जीवन को खुशनुमा बना देता है और हमारा जीवन कृष्णमय होने लगता है ।
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युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...