यह संसार
केवल और केवल प्रेम पर ही स्थिर है ।
क्रोध, घृणा, दुःख, ईर्ष्या से सब भाव जितनी तीव्रता से उत्पन्न होते हैं
उतनी ही शीघ्रता से हमारे मन,मस्तिष्क को हानि पहुँचाकर तिरोहित भी हो जाते हैं ।
परन्तु वास्तविक प्रेम एक बार जब हृदय में प्रस्फुटित हो जाता है तो फिर इस भाव का
आरोह-अवरोह जीवनभर चलता रहता है । सच्चा और निस्वार्थ प्रेम कभी भी विस्मृति को
प्राप्त नहीं होता । प्रेम, प्रेमी के पोर-पोर को एक नशीली सुगंध से भर देता है
जिसके नशे में प्रेमी अपने प्रियतम के विषय में ही सोचता हुआ इत्र की भांति महकता
रहता है । प्रेम एक ऐसी डगर है जिस पर चलकर व्यक्ति प्रेम की नदी में प्रवेश करता
है और अंत में प्रेमसागर में विलीन हो अपने अतित्व को उस असीम के साथ एकाकार कर
देता है ।
परन्तु
वर्तमान समय में रुग्ण मानसिकता वाले मनचलों द्वारा प्रेम की परिभाषा को ही
नष्ट-भृष्ट कर दिया गया है । प्रेम की इन मनमानी परिभाषाओं ने युवाओं को पथभ्रष्ट
कर वासना की ओर ही अग्रसर किया है । समाज में एक वाक्य प्रायः बड़ी ही सहजता से
उपयोग में लिया जाता है कि प्रेम अंधा होता है, प्रेम में सब कुछ जायज़ है । जो
व्यक्ति किसी के प्रेम में होता है उसे सही-गलत,अच्छा-बुरा, ऊँच-नीच किसी भी बात का होश नहीं रहता । निश्चित रूप से यह बातें किसी
दिवालिया व्यक्ति के सोच की ही उपज हो सकती हैं । क्योंकि प्रेम तो मनुष्य के भीतर
पहले से अधिक संवेदनशीलता और चैतन्यता प्रकट करता है । तभी तो प्रेमी को चिड़िया की
चहक में, फूलों की महक में, बहती नदी की कलकल में केवल प्रेम सुनाई देता है ।
चूंकि प्रेम
ईश्वर का रूप है इसलिए पूरे विश्वास से कहा जा सकता है कि प्रेम अंधा तो नहीं हो
सकता । प्रेम तो वो परम पवित्र तत्व है जिसके वशीभूत होकर स्वयं ईश्वर भी अपने
प्रेमी के पीछे दौड़ने के लिए विवश हो जाते हैं । ये गोपियों का निस्वार्थ, निर्मल प्रेम ही था जिनकी याद में बैठकर द्वारिकाधीश अपने मित्र उधौ के समक्ष
अश्रु बहाते हुए कहते हैं ...'ऊधौ मोहि बृज बिसरत नाही’ ।
राधा और
श्री कृष्ण प्रेम के सबसे उद्दात्त रूप का उदाहरण हैं प्रेम यदि अंधा होता तो
कृष्ण राधा के प्रेम में अंधे होकर वृंदावन में ही बैठे रहते अपने अवतार के
उद्देश्य की पूर्ति के लिए मथुरा नहीं जाते । यदि प्रेम अंधा होता तो राधा जी
कृष्ण को उनके कर्तव्यों का भान ही नहीं होने देती और न ही उनको मथुरा जाने देती ।
यदि प्रेम अंधा होता तो सोलह हजार रानियों और एक सौ आठ पटरानियों के स्वामी
द्वारिकाधीश बृज की बालाओं को कब का भूल चुके होते ।
सच्चा और
पवित्र प्रेम कभी अंधा नहीं हो सकता क्योंकि ‘प्रेम’ ईश्वर कि अनुभूति है या यूं कहें
कि प्रेम ईश्वर का निराकार रूप है जो अपने प्रेमी को देखते ही साकार हो हमारे हृदय
से छलक उठता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रेमी के हृदय में जो अनुभूति होती
है उसे केवल प्रेमी ही समझ सकता है। जैसे गूंगे को गुड़ खिलाओ और उससे पूछो कि
स्वाद कैसा है तो वह उस अनुभूति को एक निश्चल निष्कपट मुस्कान के द्वारा ही व्यक्त
कर पाता है और निःशब्द अनुभव करता है वैसी ही अनुभूति प्रेम की है जो शब्दों
से परे शब्दातीत है।
इस देश में
प्रेम, प्रेमी को उसके व्यक्तित्व को उसके अंदर की सुकोमल भावनाओं को ऊँचा उठता है
अर्थात उसके प्रेम को व्यापक बनाता है । भारत का प्रेमी अपने प्रिय के प्रेम में
ऊँचा उठता है जैसे मीरा बाई के प्रेम में कहीं लघुता देखने को नहीं मिलती । एक गीत
की पंक्तियाँ हैं कि ‘मीरा ऐसी भई श्याम की दीवानी, की ब्रज की कहानी हो गई ।’
लेकिन प्रेम
कि विशेषता ही यह है कि वो अपने प्रेमी को बांधता नहीं है बल्कि बंधनों से मुक्त
करता है। प्रेमी अपने प्रेम से एक अदृश्य डोर से बंधा होता है जो दिखती नहीं लेकिन
बहुत मजबूत होती है। राधा और कृष्ण का प्रेम भी कभी मिलता हुआ दिखाई नहीं दिया
लेकिन दोनों प्रेमियों को एक अदृश्य डोरी ने ऐसा बांधा की आज भी दोनों साथ हैं ।
प्रेम हमारे
जीवन में एक ठहराव लाता है। ये कभी भी निराशा नहीं आने देता प्रेम अपने प्रेमी का
पथ सदैव प्रकाशित करता रहता है। संयोग के समय प्रेमी सामने नज़र आता है लेकिन वियोग
में प्रेमी कण-कण में नज़र आता है । प्रेम कभी पुराना नहीं होता,प्रेम कभी फ़ीका नहीं होता ।
प्रेम को
व्यक्त करने कि आवश्यकता नहीं होती क्योंकि अपने प्रेमी के शरीर से निकलने वाली
स्नेहासिक्त तरंगें ही प्रेम कि अनुभूति करा देने में सक्षम होती हैं । प्रेम
भावनाओं का मीठा एहसास है जो शब्दों में नहीं बंधता ।
पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’
लेखक एवं विचारक
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