21 Jun 2017

नज़रे बदलो नज़ारे बदल जायेंगे..........आपकी सोच जीवन बना भी सकती है बिगाढ़ भी सकती है


सकारात्मक सोच व्यक्ति को उस लक्ष्य तक पहुंचा देती है जिसे वो वास्तव में प्राप्त करना चाहता है लेकिन उसके लिए एक दृढ़ सकारात्मक सोच की आवश्यकता होती है। जब जीवन रूपी सागर में समस्या रूपी लहरें हमें डराने का प्रयत्न तो हमें सकारात्मकता का चप्पू दृण निश्चय के साथ उठाना चाहिए । यदि आप ऐसा करते है तो निश्चित रूप से मानकर चलिए आप की नैया किनारे लग ही जाएगी । लेकिन ये निर्भर करता है की उस समय समस्या के प्रति आपका दृष्टिकोण क्या है ,आप उन परिस्थितियों पर हावी होते है या परिस्थितियाँ आप पर  दो पंक्तियाँ याद आती है….
नज़रें बदली तो नज़ारे बदले,कश्ती ने बदला रुख तो किनारे बदले।
सोच का बदलना जीवन का बदलना है जी हाँ आप जब चाहे अपने जीवन को बदल सकते है। समाज में कई बार देखने को मिलता है की एक व्यक्ति जो पूरी मेहनत से काम करता है वो उस व्यक्ति से पीछे रह जाता है जो कम समय में मेहनत करता है और अधिक सफल दिखता है। यह प्रायः विद्यार्थियों के साथ भी देखा जाता है कम मेहनत करने वाला  छात्र ज्यादा अंक अर्जित करने में सफल होता है। जबकि पूरे वर्ष लगन से पढ़ने वाला छात्र कई बार  पिछड़ जाता है इसका कारण क्या है जी हाँ इसका कारण है हमारी सोच ,विचार और उसके अनुरूप किये गये हमारे कर्म हम जैसा सोचते है वैसे ही बनते चले जाते है । इसका एक सशक्त उदाहरण में आपको देना चाहूँगा । भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, गरीब मछुआरे के बेटे थे। बचपन में अखबार बेचा करते थे। आर्थिक कठिनाईंयों के बावजूद वे पढ़ाई करते रहे। सकारात्मक विचारों के कारण ही उन्होंने भारत की प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनेक सफलताएं हासिल कीं। अपने आशावादी विचारों से वे आज भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में वंदनीय हैं। उन्हें मिसाइल मैन के नाम से जाना जाता है। हमारे देश में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थिति में भी अपनी सकारात्मक वैचारिक शक्ति से इतिहास रचा है। 
दूसरा उदाहरण आता है महानतम राजनेताओं में से एक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल का जो बचपन में हकलाते थे, जिसके कारण उनके सहपाठी उन्हे बहुत चिढ़ाया करते थे। अपनी हकलाहट के बावजूद चर्चिल ने बचपन में ही सकारात्मक विचारों को अपनाया और मन में प्रण किया कि, मैं एक दिन अच्छा वक्ता बनुंगा। उनके आशावादी विचारों ने विपरीत परिस्थिति में भी उन्हें कामयाबी की ओर अग्रसर किया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन को एक साहसी अनुभवी और सैन्य पृष्ठभूमि वाले प्रधानमंत्री की जरूरत थी। विस्टन चर्चिल को उस समय इस पद के लिये योग्य माना गया। राजनीति के अलावा उनका साहित्य में भी योगदान रहा। इतिहास, राजनीति और सैन्य अभियानों पर लिखी उनकी किताबों की वजह से उन्हे 1953 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये सब उपलब्धियाँ उनके सकारात्मक विचारों का ही परिणाम है। 
सकारात्मक सोच का तीसरा उदाहरण आता है जो क्रिकेट प्रेमी है उन्होंने कई बार क्रिकेटरों को कहते सुना होगा कि एक दो चौका पङ जाने से दूसरी टीम का मनोबल टूट गया जिससे वे गलत बॉलिंग करने लगे और मैच हार गये। वहीं कुछ खिलाङियों के साथ ये भी देखने को मिलता है कि वे पुरे सकारात्मक विचारों से खेलते हैं परिस्थिती भले ही विपरीत हो तब भी, जिसका परिणाम ये होता है कि वे हारी बाजी भी जीत जाते हैं।
हमारी सकारात्मक सोच, सकारात्मक संवाद और सकारात्मक कार्यों का असर हमें सफलता की ओर अग्रसर करते हैं। वहीं निराशा तथा नकारात्मक संवाद व्यक्ति को अवसाद में ले जाते हैं क्योंकि विचारों में बहुत शक्ति होती है। हम क्या सोचते हैं, इस बात का हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर होता है। इसीलिए अक्सर निराशा के क्षणों में मनोवैज्ञानिक भी सकारात्मक संवाद एवं सकारात्मक कहानियों को पढने की सलाह देते हैं। हमारे सकारात्मक विचार ही मन में उपजे निराशा के अंधकार को दूर करके आशाओं के द्वार खोलते हैं।
सकारात्मक विचार की शक्ति से तो बिस्तर पर पड़े रोगी में भी ऊर्जा का संचार होता है और वे पुनः अपना जीवन सामान्य तौर से शुरु कर पाता है। हमें अपने मस्तिष्क को महान विचारों से भर लेना चाहिए तभी हम महान कार्य संपादित कर सकते हैं। जैसे कि हम सोचे, मै ऊर्जा से भरपूर हूँ, आज का दिन अच्छा है, मैं ये कार्य कर सकता हूँ क्योंकि विचार शैली विषम या प्रतिकूल परिस्थिति में भी मनोबल को ऊँचा रखती है। सकारात्मक व्यक्ति सदैव दूसरे में भी सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
अक्सर देखा जाता है कि, हममें से कई लोग चाहे वो विद्यार्थी हों या नौकरीपेशा या अन्य क्षेत्र से हों काम या पढ़ाई की अधिकता को देखकर कहने लगते हैं कि ये हमसे नहीं होगा या मैं ये नहीं कर सकता। यही नकारात्मक विचार उन्हें आगे बड़ने से रोकते हैं। यदि हम ना की जगह ये कहें कि हम कोशिश करते हैं हम ये कर सकते हैं तो परिस्थिति सकारात्मक संदेश का वातावरण निर्मित करती है। जिस तरह हम जब रास्ते में चलते हैं तो पत्थर या काटों पर पैर नहीं रखते उससे बचकर निकल जाते हैं उसी प्रकार हमें अपने नकारात्मक विचारों से भी बचना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार एक पेड़ से माचिस की लाख से भी ज्यादा तीलियाँ बनती है किन्तु लाख पेड़ को जलाने के लिए सिर्फ एक तीली ही काफी होती है। उसी प्रकार एक नकारात्मक विचार हमारे हजारों सपनो को जला सकता है।
हमारे विचार तो, उस रंगीन चश्मे की तरह हैं जिसे पहन कर हर चीज उसी रंग में दिखाई देती है। यदि हम सकारात्मक विचारों का चश्मा पहनेंगे तो सब कुछ संभव होता नजर आयेगा। भारत की आजादी, विज्ञान की नित नई खोज सकारात्मक विचारों का ही परिणाम है। आज हमारा देश भारत विकासशील से बड़कर विकसित राष्ट्र की श्रेणी में जा रहा है। ये सब सकारात्मक विचारों से ही संभव हो रहा है। अतः हम अपने सपनो और लक्ष्यों को सकारात्मक विचारों से सींचेंगे तो सफलता की फसल अवश्य लहलहायेगी। बस, केवल हमें सकारात्मक विचारों को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाना होगा।
स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं कि, “मन में अच्छे विचार लायें। उसी विचार को अपने जीवन का लक्ष्य बनायें। हमेशा उसी के बारे मे सोचें।
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9 Jun 2017

हिन्दू मुस्लिम समन्वय के प्रतीक कबीर बाबा


आज धर्म के नाम पर एक दूसरे पर छींटाकसी करने वाले तथाकथित हिन्दू और मुसलमान जो शायद ही धर्म के वास्तविक स्वरूप की परिभाषा जानते हो ऐसे समय में उन्हें कबीर जैसे महान व्यक्तित्व के विचारों को पुन: पढ़ना चाहिए । कबीर किसी विशेष पंथ सम्प्रदाय के नहीं अपितु पूरी मानव जाति के लिए प्रेरणा स्रोत थे। उन्होंने अपने समय में फैली सामाजिक बुराइयों चाहे वो मुसलमानों से सम्बन्धित हो या हिन्दुओं से सम्बन्धित उनका पुरजोर विरोध किया ।
उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए कहा कि……………
‘कंकड़ पत्थर जोड़कर मस्जिद लायी बनाये, ता चढ़ मुल्ला बांक दे क्या बहरा हुआ खुदाय ।
वहीं उन्होंने दूसरी और हिन्दू धर्मावलम्बियों को कहा कि……….
“पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
धर्म के नाम पर होने वाले उपद्रवों के लिए उन्होंने कहा इस संसार में तुम्हारा कोई शत्रु नहीं हो सकता यदि तुम्हारा हृदय पवित्र एवं शीतल है। यदि तुम अपने घमंड और अहंकार को छोड़ दो तो सभी तुम्हारे ऊपर दयावान रहेंगे।
जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन सीतल होये
या आपा को डारि दे, दया करै सब कोये।
अपने प्रभावशील धारदार विचारों से दूध का दूध और पानी का पानी करने वाला ये महापुरुष न हिन्दू था न मुसलमान था। कबीर जीवन भर कहते रहे ‘राम’ ‘रहीम’ एक है, नाम धराया दोय। कबीर का मजहब केवल मानवता था। जिसे भूलकर आज का मानव धर्म के नाम पर बंटता चला जा रहा है। जीवन भर अपनी वाणी से लोगों में समन्वय करने वाले कबीर की जब मृत्यु हुई तो हिन्दू और मुस्लिमों ने उनके शरीर को पाने के लिये अपना-अपना दावा पेश किया। दोनों धर्मों के लोग अपने रीति-रिवाज और परंपरा के अनुसार कबीर का अंतिम संस्कार करना चाहते थे। हिन्दुओं ने कहा कि वो हिन्दू थे इसलिये वे उनके शरीर को जलाना चाहते है जबकि मुस्लिमों ने कहा कि कबीर मुस्लिम थे इसलिये वो उनको दफनाना चाहते है। लेकिन जब उन लोगों ने कबीर के शरीर पर से चादर हटायी तो उन्होंने पाया कि कुछ फूल वहाँ पर पड़े है। उन्होंने फूलों को आपस में बाँट लिया और अपने-अपने रीति-रिवाजों से महान कबीर का अंतिम संस्कार संपन्न किया। ऐसा भी माना जाता है कि जब दोनों समुदाय आपस में लड़ रहे थे तो कबीर दास की आत्मा आयी और कहा कि “ना ही मैं हिन्दू हूँ और ना ही मैं मुसलमान हूँ। यहाँ कोई हिन्दू या मुसलमान नहीं है। मैं दोनों हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ, और सब हूँ। मैं दोनों में भगवान देखता हूँ। उनके लिये हिन्दू और मुसलमान एक है जो इसके गलत अर्थ से मुक्त है। परदे को हटाओ और जादू देखो”।
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में प्रचलित कथन है कि कबीर को उपयुक्त गुरु की तलाश थी। वह वैष्णव संत आचार्य रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहते थे लेकिन उन्होंने कबीर को शिष्य बनाने से मना कर दिया लेकिन कबीर ने अपने मन में ठान लिया कि स्वामी रामानंद को ही हर कीमत पर अपना गुरु बनाऊंगा ,इसके लिए कबीर के मन में एक विचार आया कि स्वामी रामानंद जी सुबह चार बजे गंगा स्नान करने जाते हैं उसके पहले ही उनके जाने के मार्ग में सीढ़ियों  पर लेट जाऊँगा और उन्होंने ऐसा ही किया। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये एक किंवदन्ती के अनुसार शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरू कहा जाता है, कबीर ने हिंदु-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फक़ीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को आत्मसात कर लिया।  वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे।
उन्होंने कहा “सूरज चन्द्र का एक ही उजियारा, सब यही पसरा ब्रह्म पसारा।” अवतार, मूर्त्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।
कबीर की दृढ़ मान्यता थी कि कर्मों के अनुसार ही गति मिलती है स्थान विशेष के कारण नहीं। अपनी इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए अंत समय में वह मगहर चले गए ; क्योंकि लोगों की मान्यता थी कि काशी में मरने पर स्वर्ग और मगहर में मरने पर नरक मिलता है। मगहर में उन्होंने अंतिम साँस ली। आज भी वहां स्थित मजार व समाधी स्थित है।
भारत वर्ष के इतिहास में इन दो महान (हिन्दू मुसलमान) धर्मों की विचारधारा को समान रूप से समन्वित करने वाला ऐसा महामानव कदाचित ही मिले आइये आज कबीर जयंती के पर्व पर हम अपने भीतर भी इनकी कुछ शिक्षाओं को अपनाकर अपने भावना रुपीपुष्प अर्पित करें कि आज के परिप्रेक्ष में कबीर बाबा को सच्ची श्रधांजलि होगी ।

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युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...