18 Sept 2016

विद्यार्थियों के अवसाद का कारण परिवार और समाज


("सच का हौसला" राष्ट्रीय समाचार पत्र  दैनिक वर्तमान अंकुर (नोएडा) में प्रकाशित )
प्राचीन समय के मनीषियों से लेकर वर्तमान समय के दार्शनिकों तक के विचारों को पड़ा जाए तो एक ही निचोड़ सामने आता है , समाज की भावी पीढ़ी (विद्यार्थी) किसी भी देश की मजबूत आधार शिला एवं पूंजी होती है  ।यदि किसी देश को हानि पहुँचानी हो तो वहां की शिक्षा प्रणाली में सेंध लगा दो  जी हाँ मैकाले इस बात को जान गया था और उसने भारत की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में सेंध लगा दी और पश्चिम का विष घोल दिया  प्राचीन काल में  भारत में इतने  प्रखर और तेजस्वी  विद्यार्थी हुए जिनके नाम से आर्यावर्त को भारत नाम दिया गया  ऐसे गौरवशाली देश का विद्यार्थी आज दयनीय स्थिति में है जिसके  जिम्मेदार न केवल माता पिता बल्कि ये समाज भी है। प्राचीन काल में विद्यार्थी असीमित सम्भावनाओं का भण्डार माना जाता था  ध्रुवप्रहलादएकलव्यअर्जुनभरतआर्यभटउपमन्यु जैसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे  पडे है।  
ऐसे अप्रतिम देश का विद्यार्थी वर्तमान समय में अपने जीवन को अवसाद,हताशा और निराशा से भरे बैठा है  है जिसे देखकर आश्चर्य होता है 
आज का विद्यार्थी जीवन में जरा सी परेशानी आने पर  बहुत दुखी हो जाता है  महापुरुष कहते है की हम ईश्वर के अंश है अर्थात अपरिमित योग्यताओं का कोष , ईश्वर का अंश होते हुए भी विद्यार्थी  इतने असमर्थ और अवसादग्रस्त क्योंहम परिस्थितियों या परिणामों से इतने भयभीत क्यों है ?
अकसर देखा जाता है परीक्षा परिणाम अपने अनुरूप न मिलने पर विद्यार्थी अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैंमानसिक अवसादग्रस्त हो जाते है  यहाँ तक की आत्म हत्या जैसा घृणित कृत्य कर बैठते है   इन समस्याओं का मूल माता पिता की अत्यधिक अपेक्षाएं  परिवारों का विघटन है  जिसके कारण बच्चे अकेलापन महसूस करते है ,अधिक से अधिक सम्पत्ति की चाह एवं  भारत जैसे धार्मिक देश में पश्चिमी सभ्यता का समावेश है  इस पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण का शिकार न केवल बच्चे और युवा वर्ग है अपितु इस अन्धानुकरण में माता पिता और धनाढ्य परिवार के बड़े बुजुर्ग भी पीछे नहीं हैं  कुछ ही लोग हैं जो अच्छे आचरण और मान मर्यादा की राह पर चल रहे हैं तथा नैतिकता कायम रखे हुए हैं  वर्तमान समय  की आपाधापी वाली जीवन शैली और जीवन में बहुत कुछ प्राप्त करने की मृग मरीचिका में मनुष्य फंसा है फलस्वरूप परिवार और बच्चों में संस्कारों के सिंचन के लिए समय ही नहीं है माता पिता दोनों के काम काजी होने की वजह से बच्चे को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने का समय दोनों में से किसी के पास नहीं है  मैकाले की शिक्षा पद्धति से प्रभावित हमारे विद्यालयों में तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के विकास के लिए कुछ नहीं है विद्यालयों को तो अपनी मोटी सी विद्यालय शुल्क से मतलब होता है रटा-रटाया ज्ञान देकर वो छात्रों को प्रतिस्पर्धी तो बना पा रहे है लेकिन उनके मानवीय गुणों का विकास करने में असफल है 
अपने आस पास के दूषित वातावरण से कामक्रोधलोभजलनद्वेष तथा दूसरे का निवाला छीनकर खाने की कला बच्चे बस ये ही सीखते हैं रही सही कसर इन दो –दो पैसे में चलने वाले चैनलों और उन पर प्रसारित होने वाले भद्दे विज्ञापनों और गन्दी फिल्मों ने पूरी कर दी है।  ऐसे में आज के बच्चे जो कल का भविष्य हैं संस्कारों के अभाव में अपने जीवन के पतन की और बढ़ रहे है ।परिवार ने इनकी मानसिकता ये बना डाली है की दुनिया में जीवन जीना है तो खूब सारा पैसा और कार कोठी होना ज़रूरी है चाहे उसको पाने के लिए हमें कुछ भी करना पड़े  ऊँचा रहन सहन अच्छे कपड़े अच्छा खाना बस इसी का नाम जीवन है  नैतिक संस्कारों के रूप में बच्चों ऐसी ही शिक्षा दी जाती है  ऐसे में देश कैसे उन्नति कर सकता है।
समय आ गया है की हमें पश्चिम का अन्धानुकरण छोड़ कर अपने बच्चों के लिए  संस्कृति और संस्कारों का मार्ग प्रशस्त कर देना चाहिए।  उन्हें अर्जुन ,एकलव्य, सुदामा, महाराणा प्रताप ,शिवाजी जैसे महान चरित्रों  के विषय में बताना एवं उनसे सम्बन्धित नाटकों का रंगमंच पर अभिनय होना चाहिए  ये केवल माता-पिता का ही कार्य नहीं है अपितु मीडिया और समाज दोनों को ही इसमें सक्रिय भूमिका निभाना चाहिए मीडिया को स्वस्थ एवं मनोरंजक सामग्री समाज में परोसनी चाहिए रामायण , महाभारतचाणक्य जैसे नाटक पुन प्रारम्भ होने चाहिए 
विद्यालयों को अपने देश के महापुरुषों से सम्बन्धित प्रतियोगिताएं आयोजित करनी चाहिए जिससे बच्चे हमारे देश के महापुरुषों के बारे में जान सके  माता-पिता को भी अपने दैनिक चर्या से थोड़ा समय  निकलकर बच्चों के साथ बिताना चाहिए  उनसे बात करनी चाहिए एवं बच्चों की सोच व उनके विचारों को समझने का प्रयास करना चाहिये 
बच्चे अनगढ़ होते है उन्हें सुगढ़ बनाना और समाज व देश के अनुरूप सुंदर आकर प्रदान करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी है 

                                                            सर्वाधिकार सुरक्षित




15 Sept 2016

युवाओं का मानसिक तनाव राष्ट्र प्रगति में अवरोध


(राष्ट्रीय समाचार पत्र में प्रकाशित, दैनिक वर्तमान अंकुर (नोएडा) से भी प्रकाशित)
कुछ दिन पहले एक नाट्य प्रस्तुति देखने का अवसर मिला  जिसमें एक पात्र दूसरे पात्र से पूछता है की जीवन क्या है तो दुसरे  पात्र ने उत्तर दिया “हमारी सबसे पहली और सबसे अंतिम सांस के बीच का जो समय है वो जीवन है ” जीवन के प्रति उसकी इस संक्षिप्त परिभाषा में जीवन की क्षण भंगुरता दृष्टिगोचर हुई और अनुभव हुआ की ये जीवन जो ईश्वर ने हमें अपनी कृपा के रूप में दिया है ये कितना मूल्यवान है जिसे आज का युवा अनजाने ही थोड़े सी कठिनाइयों और विषाद में या तो समाप्त कर देता है या भटक जाता है 
किसी जमाने में युवा एक आयु वर्ग के ऐसे समृद्ध व्यक्तित्व को कहा जाता था जिसके जीवन का उद्देश्य गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त कर  मानव मूल्यों का सम्वर्धन करते हुए परिवार पालन और समाज निर्माण में भागीदारी लेना होता था  ये जीवन का वो समय होता था जिसमें युवा में एक नया उत्साह एक नयी चेतना हिलोरे मार रही होती थी।
लेकिन वर्तमान समय में परिस्थितियाँ भिन्न है आज का किशोर युवावस्था में कदम रखते ही तनाव और चिंता से ग्रस्त हो जाता है। आज की युवा होती पीढ़ी की आँखों में बड़े और चमकदार सपने होते है लेकिन जरा सी परिस्थितियों की विपरीत चाल से वो सारे  सपने उसी प्रकार ध्वस्त हो जाते है जिस प्रकार ताश के पत्तों का महल 
इस अवस्था में किसी किशोर या किशोरी को उचित अनुचित का भली भांति ज्ञान नहीं हो पाता है और शनै: शनै: यह मानसिक तनाव का कारण बनता है ।आज के युवा को शुरू से ही उच्च शिक्षा प्राप्त करके डॉक्टरइंजीनियर बनकर धनार्जन कर सुख-सुविधा युक्त जीवन निर्वाह करना ही सिखाया जाता है , परंतु जब उनका उद्देश्य उनकी इच्छानुरूप पूर्ण नहीं हो पता है तो उनका मन असंतुष्ट हो उठता है और मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है साथ ऐसे समय में माता और पिता या दूसरे लोगों द्वारा की गयी टीका टिप्पणी भी उनके विषाद को बड़ा देती है  शिक्षा से प्राप्त उपलब्धियां उन्हें निरर्थक प्रतीत होती हैं।
वर्तमान युग में लड़का हो या लड़कीसभी स्वावलंबी होना चाहते हैंमगर बेरोजगारी की समस्या हर वर्ग के लिए अभिशाप सा बन चुकी है। मध्यम वर्ग के लिए तो यह स्थिति अत्यंत कष्टदायी होती है। जब इस प्रकार की स्थिति हो जाती है तो जीवन में आए तनाव से मुक्ति पाने के लिए वे या तो नशा करते है कुसंगति में पढ़ जाते है या तो आत्महत्या जैसे कदम उठाने को बाध्य हो जाते हैं। महिलाओं की स्थिति तो पुरुषों की तुलना में ज्यादा ही खतरनाक है।
जिस देश की 65 % जनसंख्या युवा हो और जिस युवा पीढ़ी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए बैठा हैउस राष्ट्र के युवा का विषाद या तनावगृस्त होना समाज व राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। अब प्रश्न ये है की इस समस्या का समाधान  क्या है ? यदि सच्चे अर्थों में देखा जाये तो युवा वर्ग को ही इसका समाधान निकलना पड़ेगा  एक दृष्टि से देखा जाए तो इन मानसिक तनावों से मुक्ति का सबसे महत्वपूर्ण उपाय युवाओं का अपना विवेक है। इसके लिए दृढ़ संकल्पअथक परिश्रम और  धैर्यकी आवश्यकता होती है। यह जीवन एक साधना है। इसे आप एक नियमित दिनचर्या बनाकरएक उद्देश्य को सामने रख कर जिएं अपने आप को शुभ चिन्तन में व्यस्त रखें।
परेशानियों को हमेशा सबक की तरह लेंप्रकृति आपको सिखाना चाहती है। परीक्षा लेती है। कितने खरे उतरते हो किस  रोल के लिए आपको चुना गया है ये प्रकृति निर्धारित करती है । आप चाहें तो टूटकर बिखर जाएंआप चाहें तो निखर जाएं और अपनी ऊर्जा को सही दिशा देते हुए जीवन लक्ष्य को प्राप्त करें ये दोनों ही आप पर निर्भर करते है ।समस्याएं तो जीवन में आएगी ही आप उन से बच नहीं सकते जितना बचने की कोशिश करेंगे ये उतना ही विशाल रूप धारण कर आप को परेशान करेंगी इसलिए परिस्थितियों से घबराएं नहीं बल्कि पूरी तैयारी के साथ इनका स्वागत और सामना करें ,मन की नकेल सदैव अपने हाथ में रखें  चिंता और डर को अपने पर हावी न होने दें तो निश्चित ही आप अपने जीवन को ढंग से और सुख से जी पाने में समर्थ बन सकेंगे।
                  सर्वाधिकार सुरक्षित




13 Sept 2016

हमारी उपेक्षित हिन्दी भाषा

आज हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर बड़े भारी मन के साथ ये लेख लिख रहा हूँ क्योंकि में जनता हूँ की केवल हिन्दी दिवस के दिन ही हम हिन्दी की बात करेंगे और फिर भूल जायेंगे और हिन्दी भाषा को उसकी ह्रदय विदारक स्थिति में अकेला सुबकता छोड़ देंगे लेकिन क्योंकि में एक हिन्दी अध्यापक हूँ तो मैं तो हिन्दी भाषा के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना आवश्यक मानता हूँ । मैं किसी भाषा का विरोधी नहीं हूँ लेकिन पाठकों को ये अवगत करा देना चाहता हूँ , की एक ऐसी समृद्ध भाषा जिसके पास शब्दों का अकूत भण्डार है वो आज दयनीय स्थिति में आ पहुंची है ।
हिन्दी की दशा और दिशा देख कर बहुत दुःख होता है, आज अंग्रेजी में बात करना लोगों सम्माननीय लगता है। हिन्दी में बात करने वाले को हीन दृष्टि से देखा जाता  हैं। आज कल के माता पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देख कर प्रफुल्लित होते हैं। बड़े शहरों के ज्यादातर युवा अपने आपको आधुनिक दिखाने के लिए हिन्दी ज्ञान न होने या कम होने का दिखावा करके गौरवान्वित महसूस करते हैं।
दुर्भाग्य ये है की वो हिन्दी जिसने हमारी सेवा तब की जब हमें अन्य किसी भाषा का ज्ञान नहीं था ।तब हम केवल हिन्दी शब्दों को ही चबाया करते थे, जिससे हमारी अभिव्यक्ति की पूर्ति हुआ करती थी । लेकिन आज हमने अपनी उसी सहायिका उसी मात्र भाषा को दीन-हीन स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हम ये नहीं कहते की अन्य भाषाएँ न सीखी जायें हम सभी भाषाओं का सम्मान करते है जिस प्रकार से माता किसी की भी हो आदरणीय होती है उसी प्रकार भाषा कोई भी हो सभी सम्माननीय है । लेकिन दूसरे की माता का सम्मान करना और अपनी माता को दुःख पहचाना उसका शोषण करना उसे  लज्जित करना कहां तक उपयुक्त है। हम भारतीय इतने मूर्ख कैसे हुए समझ नहीं आता ? दुःख तो इस बात का है की हमने केवल अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही अपनी उच्च शिक्षा का मापदंड बना दिया है, क्यों ? और ये कार्य समाज के उस सम्भ्रांत वर्ग द्वारा प्रमुख रूप से किया जाता है जो समाज को दिशा देने का कार्य करते है । एक तरफ तो हम हिन्दी दिवस मनाने का ढोंग करते है वहीं दूसरी और हमारी भावी पीढ़ी को हम अंग्रेजी शिक्षा से संस्कारित करते है इतना ही नहीं यदि वो हिन्दी भाषा का उपयोग अपनी साधारण बोलचाल में करने लगे तो विद्यालय उस पर पेनल्टी (दंड शुल्क)लगा देते है । ऐसी परिस्थितियों में हिन्दी का आने वाला भविष्य कैसा होगा ये सोचनीय है ?  कहीं ऐसा ना हो की जिस प्रकार हमने अपनी संस्कृत भाषा की उपेक्षा कर उसे लगभग भुला दिया है एक दिन यही स्थिति हिन्दी भाषा की हो जाए । अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा पद्धति में सेंध लगाई जिसे हम भारतीयों ने बड़े गर्व के साथ स्वीकार किया है और आज भी हम अंग्रेजों की भाषायी दासता स्वीकारे बैठे है ।
इन दिनों यदि आप सरकारी दफ्तरों में जायेंगे तो  वहाँ एक वाक्य आपको देखने को मिलेगा की “हिन्दी में काम करना आसन है शुरुआत तो कीजिये।” और दुर्भाग्य ये है की और दिनों की तो छोड़े इस हिन्दी पखवाड़े में भी आप उसी कार्यालय के अधिकारी से लेकर बाबु तक और चपरासी से लेकर  सफाई कर्मचारी तक की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आसानी से देख सकते है ।
यदि भाषायी दृष्टि से देखा जाये तो आज भी हिन्दी अपने यौवन के सौन्दर्य से, अपने ताल से तेवर से अन्य भाषाओं को पछाड़ने में सक्षम है आज कवियों के नायक के अधरों पर नायिका के सौन्दर्य के रूप में हिन्दी है । लेखकों की लेखनी में, गाँव के गीतों में, चौपालों में केवल हिन्दी है ,बाजारों में मोहल्लों में केवल हिन्दी है । हम अपने  विचारों और भावों की अभिव्यक्ति  हिन्दी भाषा में जितने प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकते है उतना हम अन्य किसी और भाषा में नहीं कर पाते।
हम लोगों द्वारा शोषित हिन्दी आज भी विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का तमगा लगा कर हमें अंतराष्ट्रीय स्तर पर गौरवान्वित कर  रही है । आज भी हिन्दी हमारे देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली और सुनी जाने वाली भाषा है और में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान को साथ में मिला लूँ तो ये आंकड़ा और भी विस्तृत, विशाल हो जाता है, हाँ यदि लिखने और पड़ने के आंकड़े देखें तो ये आंकड़े थोड़ा तकलीफ देह हो जाते है और इस तकलीफ का कारण मैकाले द्वारा भारत की शिक्षा पद्धति में लगाई गयी सेंध है ,जिसका परिणाम हम कॉन्वेंट शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों में देख सकते है  परन्तु फिर भी हिन्दी कान और मुख के द्वारा सम्प्रेषण का सुख दे रही है । सच्चाई तो ये है कि जिस चीज़ पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है वो केवल हिन्दी है जो सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षों के बाद हम न कर पाएँ, क्यों कि अंग्रेज़ी उससे ज़्यादा मात्रा में फैल रही है।
वर्तमान समय में सरकार द्वारा शिक्षा पद्धति में व्यापक सुधार की महती आवश्यकता आ पड़ी है । क्योंकि केवल एक दिन हिन्दी दिवस मना लेने भर से हम  मातृ भाषा के ऋण से उऋण नहीं ही पाएंगे । यदि जल्द ही हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार के क्षेत्र में बड़े निर्णय नहीं लिए गये तो वो दिन दूर नहीं जब हम अपने गौरव से च्युत हो जायेंगे और हम अपनी माँ (राष्ट्र भाषा )को अपने ही सामने दम तोड़ते देखने के लिए मजबूर होंगे।
सर्वाधिकार सुरक्षित

11 Sept 2016

हिन्दी का दयनीय वर्तमान

 आज हिंदी दिवस के पावन पर्व पर सभी भारतीयों का ध्यान में आकृष्ट करना चाहता हूँ, हिंदी की वर्तमान दयनीय स्थिति पर वो हिंदी जिसका अनादर हम जाने अनजाने वर्षों से करते चले आ रहे है।
वो हिंदी जिसने हमारी सेवा तब की जब हमें अन्य किसी भाषा का ज्ञान नहीं था ।तब हम केवल हिंदी शब्दों को ही चबाया करते थे, जिससे हमारी अभिव्यक्ति की पूर्ति हुआ करती थी । लेकिन आज हमने अपनी उसी सहायिका उसी मात्र भाषा को दीन-हीन स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हम ये नहीं कहते की अन्य भाषाएँ न सीखी जायें हम सभी भाषाओं का सम्मान करते है जिस प्रकार से माता किसी की भी हो आदरणीय होती है उसी प्रकार भाषा कोई भी हो सभी सम्माननीय है । लेकिन दूसरे की माता का समान करना और अपनी माता को दुःख पहचाना उसका शोषण करना उसे  लज्जित करना कहां तक उपयुक्त है हम भारतीय इतने मूर्ख कैसे हुए समझ नहीं आता दुःख तो इस बात का है की हमने केवल अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही अपनी उच्च शिक्षा का मापदंड बना दिया है,क्यों ? और ये कार्य समाज के उस सम्भ्रांत वर्ग द्वारा प्रमुख रूप से किया  जाता है जो समाज को दिशा देने का कार्य करते है ।
इन दिनों यदि आप सरकारी दफ्तरों में जायेंगे तो  वहाँ एक वाक्य आपको देखने को मिलेगा की “हिंदी में काम करना आसन है शुरुआत तो कीजिये।” और दुर्भाग्य ये है की और दिनों की तो छोड़े इस हिंदी पखवाड़े में भी आप उसी कार्यालय के अधिकारी से लेकर बाबू तक और चपरासी से लेकर  सफाई कर्मचारी तक की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आसानी से देख सकते है ।
मैं धन्यवाद देता हूँ चीन को जापान को  की जब भी इन राष्ट्रों के प्रतिनिधि भारत में आते है तो ये अपने देश की भाषाओं में ही  हमारी सभाओं को संबोधित करते, और हम भारती पिछले कुछ वर्षों से अपने गौरवमयी राष्ट्रीय भाषा का चीर हरण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं कराते आये है ।
मैं धन्यवाद देता हूँ भारतवर्ष के वर्तमान प्रधान मंत्री को जो लाल किले की प्राचीर से ही नहीं अपितु यु. एन. ओ. जैसी अंतर्राष्ट्रीय सभा में भी अपने देश की भाषा का प्रयोग करते है; जो हम भारतीयों के लिए बड़े गौरव की बात है ।
यदि भाषायी दृष्टि से देखा जाये तो आज भी हिंदी अपने यौवन के सौन्दर्य से, अपने ताल से तेवर से अन्य भाषाओं को पछाड़ने में सक्षम है आज कवियों के नायक के अधरों पर नायिका के सौन्दर्य के रूप में हिंदी है । लेखकों की लेखनी में, गाँव के गीतों में,चौपालों में केवल हिंदी है ,बाजारों में मोहल्लों में केवल हिंदी है । हिंदी एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके पास  शब्दों का अकूत भंडार है अपने  विचारों और भावों की अभिव्यक्ति हम हिंदी भाषा में जितने प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकते है उतना हम अन्य किसी और भाषा में नहीं कर पाते ।
हम लोगों द्वारा शोषित हिंदी आज भी विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का तमगा लगा कर हमें अंतराष्ट्रीय स्तर पर गौरान्वित कर  रही है आज भी हिंदी हमारे देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली और सुनी जाने वाली भाषा है और में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान को साथ में मिला लू तो ये आंकड़ा और भी विस्तृत, विशाल हो जाता है, हाँ यदि लिखने और पड़ने के आंकड़े देखें तो ये आंकड़े थोडा तकलीफ देह हो जाते है और इस तकलीफ का कारण मैकाले द्वारा भारत की शिक्षा पद्धति में लगाई गयी सेंध है ,जिसका परिणाम हम कान्वेंट शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों में देख सकते है  परन्तु फिर भी हिंदी कान और मुख के द्वारा सम्प्रेष्ण का सुख दे रही है ।
सच्चाई तो ये है कि जिस चीज़ पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है वो केवल हिंदी है जो सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षों के बाद हम न कर पाएँ, क्यों कि अंग्रेज़ी उससे ज़्यादा मात्रा में फैल रही है।
वर्तमान समय में सरकार द्वारा शिक्षा पद्धति में व्यापक सुधार की महती आवश्यकता आ पड़ी है ।  क्योंकि  केवल एक दिन हिंदी दिवस मना लेने भर से हम  मातृभाषा के ऋण से उऋण नहीं ही पाएंगे । यदि जल्द ही हिंदी भाषा के विकास और प्रचार के क्षेत्र में बड़े निर्णय नहीं लिए गये तो वो दिन दूर नहीं जब हम अपने गौरव से च्युत हो जायेंगे और हम अपनी माँ (राष्ट्र भाषा )को अपने ही सामने दम तोड़ते देखने के लिए मजबूर होंगे।
लिए मजबूर होंगे।
                                                            सर्वाधिकार सुरक्षित



असहिष्णुता (हास्य व्यंग)

एक सेठ जी का बहुत पुराना बढ़ा सा  होटल था। सेठ जी बचा हुआ खाना यहाँ वहां फेंक देते थे । जिससे शहर में बहुत गंदगी का माहौल हो जाता था । लेकिन कुत्तों के लिए ये बड़ा अच्छा था उनकी तो मौज हो गयी थी रोज बोटियाँ-रोटियाँ खाने को मिल रही थी कुत्ते खुश रहते थे और और होटल के प्रति वफादार भी ,होटल की तरफ कोई टेड़ी निगाह करके देख ले तो उसे काटने को दौड़ते थे ।

लेकिन एक दिन एक नया अधिकारी शहर में आया और उसमें शहर को गंदगी से मुक्त करने के लिए जन जागृति पैदा की और सारे सरकारी कार्य न केवल ईमानदारी से करना शुरू कर किया बल्कि आवारा कुत्तों को भी पिंजरे में डालना प्रारम्भ किया ।

परिणामस्वरूप कुत्तों के मुंह से बोटी और रोटी छिनने लगी और बचा हुआ खाना व्यवस्थित रूप से गरीबों में बंटने लगा । परिणाम यह हुआ की कुत्तों ने भौंकना शुरू कर दिया और इस प्रकार समाज में असहिष्णुता

श्री कृष्ण एक आदर्श प्रेमी


आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी के इस पावन  पर्व पर हम चर्चा करेंगे कृष्ण के एक आदर्श प्रेमी के रूप की एक ऐसा रूप जहां कोई वासना या इन्द्रिय लिप्सा की तृप्ति  नहीं बल्कि जीव और बृह्म का मेल और विशुद्ध प्रेम है । प्रेम शब्दों से परे एक अनुभव है ये गूंगे के गुड के समान है निश्छल निष्कपट प्रेम के समक्ष प्रेमी निःशब्द होकर रह जाता है । सच्चे प्रेम के सामने तो ईश्वर भी भक्त के सामने हाथ बांधकर खड़े रह जाते है  । वास्तविक प्रेम में प्रेमी कुछ माँगता  नहीं है बल्कि अपने प्रेमी को कुछ देना चाहता है  । प्रेम कहते है अपने प्रेमी के प्रति निष्ठा और विश्वास को , प्रेम कहते है उस अनुभूति को जो आप को बिना किसी डोर के आपके प्रेमी से जीवन भर के जोड़ती है , प्रेम कहते प्रेमी और प्रेमिका के एक दुसरे के प्रति सहर्ष समर्पण को  । लेकिन वर्तमान समय में प्रेम की परिभाषा इतनी विकृत हो चली है उसे देखकर मन में बड़ी पीड़ा होती है  । प्रेम के नाम पर आज का युवा वो सब कुकृत्य करने लगा है जिस से प्रेम या प्रेमी का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध क्योंकि आज के युवा द्वारा प्रेम को केवल भोग विलास का एक माध्यम मान लिया गया है, जबकि प्रेम और प्रेमी का अर्थ भोग वासना न होकर एक दूसरे के जीवन और चरित्र को श्रेष्ठता की और ले जाना है । कई पुराणों में उल्लेख आता है की श्री कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियाँ एवं आठ पटरानियाँ  थी ।  ये तथ्य युवाओं को बहुत प्रिय कर लगता है उन्हें लगता है जब भगवान इतनी सारी रख सकते है तो हम ने दो या तीन रख ली तो क्या हो गया गाहे-बगाहे ऐसी बातें हमें सुनने को मिल भी जाती है  । लेकिन ये सत्य से परे की बात है ।  सत्य ये है की कृष्ण अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति के लिए जब ऋषि मुनियों ने सैकड़ों वर्षों  तक तपस्या की तो भगवान प्रकट हुए और उनसे वर मांगने के लिए कहा ऋषि जो की भगवान की माया से मुक्त हो चुके थे उन्हें संसार की और साधन की लालसा  नहीं थी इसलिए उन्होंने वर मांगने से मना कर दिया क्योंकि उनकी तपस्या का उद्देश्य लौकिक सुख प्राप्त करना  नहीं था लेकिन भगवान के बार-बार कहने पर  सभी ऋषियों ने ये वर माँगा की है सच्चिदानंद अगर आप सच में हमारी तपस्या से प्रसन्न है तो कुछ ऐसा वर दे दो की हम सब आपके साथ नाचे गायें आपके प्रेम स्नेह को प्राप्त कर  सकें और आपको अपने इच्छानुसार अपनी उँगलियों पर नचा सकें  । ये बात सुनकर भगवान कुछ आश्चर्य में पढ़ गये लकिन भगवान तो भक्त के वश में होते है अतःभगवान ने ऋषियों से कहा की आप सब का जन्म वृन्दावन नामक स्थान पर सुंदर गोपियों के रूप में होगा और उस समय में धरती पर कृष्ण के रूप में अवतरित होकर आऊंगा तब तुम सब भी गोपियों के रूप में मेरे साथ रासलीला कर मेरे विशुद्ध प्रेम का पान कर लेना तो वास्तव में सौलह हजार एक सौ रानियाँ केवल स्त्री  नहीं थी । बल्कि स्त्री के रूप में तपस्वी ऋषि ही थे जिनके साथ भगवान ने रास रचाकर उन्हे अध्यात्म के अंतिम सोपान के बाद मुक्त कर दिया । भगवान की उस रास लीला का वर्णन अलग-अलग पुराणों में भिन्न भिन्न रूप में व्यक्त हुआ है कई विद्वान उसे युगों से बिछडे जीव और बृह्म का मिलन मानते है कोई अपने भक्तों के प्रेम से अभिभूत भगवान की लीला मानते है लेकिन सच्चे अर्थों में ये प्रेम का सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट रूप है  
इस तथ्य को जाने बिना युवा-वर्ग मनमाने अर्थ निकलकर प्रेम के नाम पर व्यभिचार और चारित्रिक पतन को बढ़ावा दे रहा है  । अतः ये जन्माष्टमी आज के युवाओं को ये सन्देश देती के की अपने प्रेम के आकार को केवल अपने प्रेमी के रूप सौंदर्य आकर तक ही सीमित न रखें   । बल्कि उसके अंदर छुपी ईश्वरीय चेतना को जागृत करें और पूर्ण समर्पण के साथ उसके और अपने चारित्रिक मूल्यों का सम्वर्धन करें  ।जय श्री कृष्णा 

                                                            सर्वाधिकार सुरक्षित





शिक्षकों को समर्पित .... एक अज्ञात रचना



शिक्षक-दिवस मनाने आये हम सब लोग यहाँ पर हैं।
एक गुरु की आवश्यकता पड़ती हमें निरन्तर है ।
हमनें जो भी सीखा अपने गुरुओं से ही सीखा है।
ज्ञान गुरू का अन्धकार में जैसे सूर्य सरीखा है।
कदम-कदम पर ठोकर खाते शिक्षा अगर नहीं होती।
खुद को रस्तों पर भटकाते शिक्षा अगर नहीं होती।
शिक्षा ये बेमानी होती शिक्षक अगर नहीं होते।
बस केवल नादानी होती शिक्षक अगर नहीं होते।
आगे बढने का पथ हमको शिक्षक ही दिखलाते हैं।
सही गलत का निर्णय करना शिक्षक ही सिखलाते हैं।
शिक्षक क्या होते हैं सबको आज बताने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षक-गण का आभार जताने आया हूँ।
अगर वशिष्ठ नहीं होते तो शायद राम नहीं होते।
सन्दीपन शिक्षा ना देते तो घनश्याम नहीं होते।
द्रोणाचार्य बिना कोई अर्जुन कैसे बन सकता है।
रमाकान्त आचरेकर बिन सचिन कैसे बन सकता है।
परमहंस ने हमें विवेकानन्द सरीखा शिष्य दिया।
गोखले ने गाँधी जैसा उज्जवल एक भविष्य दिया।
चन्द्रगुप्त चाणक्य के बल पर वैसा शासक बन पाया।
देशप्रेम आज़ाद ने हमको कपिलदेव से मिलवाया।
भीमसेन जोशी के सुर या बिस्मिल्ला की शहनाई।
गुरुओं की शिक्षा ने ही तो इनको शोहरत दिलवाई।
शुक्राचार्य, वृहस्पति हैं ये इन्हें मनाने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षकगण का आभार जताने आया हूँ।
जनम लिया जब सबने माँ को खुद का प्रथम गुरु पाया।
उठना, चलना, खाना-पीना माँ ने ही तो समझाया।
माँ की जगह पिता ने ले ली जैसे-जैसे उम्र बढ़ी। 
घर, बाहर कैसे जीना है बात पिता ने हमसे कही।
फिर हम विद्यालय में आये अक्षर ज्ञान हुआ हमको।
भाषा और कई विषयों का ज्ञान प्रदान हुआ हमको।
गुरू ने हमको शिक्षा दी संयम की, अनुशासन की।
गुण-अवगुण की, सही-गलत की, देशप्रेम और शासन की।
लेकिन हम सब शिक्षा पाकर भूल गुरू को जाते हैं।
केवल पाँच सितम्बर को ही याद गुरू क्यों आते हैं।
मैं सबको अपने गुरुओं की याद दिलाने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षकगण का आभार जताने आया हूँ।
शिक्षा अगर सही मिलती तो भ्रष्टाचार नहीं होता।
नेताओं, अधिकारीगण का ये व्यवहार नहीं होता।
भ्रूण के अन्दर कोई कन्या मारी कभी नहीं जाती।
जलती हालत में मुर्दाघर नारी कभी नहीं जाती।
आतंकी नहीं होते ये दंगे कभी नहीं होते।
लोकतन्त्र के खम्भे यूं बेढंगे कभी नहीं होते।
लूटमार, हत्या, बेइमानी चारों ओर नहीं होती।
भारत माता चुपके-चुपके ऐसे कभी नहीं रोती।
देश समस्याग्रस्त अगर है इसका हल भी शिक्षा है।
शिक्षण एक चुनौती है अब शिक्षण एक परीक्षा है।
शिक्षक ही है राष्ट्रविधाता ये समझाने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षकगण का आभार जताने आया हूँ।;
अज्ञात 

युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...