31 Jan 2017

वाणी की देवी वीणापाणी और उनके श्री विगृह का मूक सन्देश


वसंत को ऋतुराज राज कहा जाता है पश्चिम का भूगोल हमारे देश में तीन ऋतुएं बताता है जबकि भारत के प्राचीन ग्रंथों में छ: ऋतुओं का वर्णन मिलता है उन सभी ऋतुओं में वसंत को ऋतुराज कहा जाता है भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि पृथ्वी  पर जो भी द्रव्य पदार्थ पाए जाते है उन में मै जलहूँ ,वृक्षों में पीपल हूँ और आगे चलकर वो कहते है की ऋतुओं में “अहम कुसुमाकर” यानी की ऋतुओं में मैं वसंत ऋतु हूँ। वसंत ऋतु के आते ही प्रकृति में सृजन होने लगता है समूची प्रकृति नव पल्लवों से पल्लवित हो उठती है। जिसे देखकर लोगों का मन नव उमंग और उत्साह से भर जाता है।
इस ऋतु को पर्व की तरह इस लिए भी मनाया जाता है क्योंकि इस दिन स्वर और विद्या की देवी माँ वागेश्वरी अर्थात माँ सरस्वती का जन्म भी हुआ था कहानी कुछ इस प्रकार है की ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि  का निर्माण किया तो उन्हें कुछ आनंद की अनुभूति नहींहो रही थी क्योंकि चारों और एकदम शांति और सन्नाटा फैला हुआ था अतः उनके मन में आया कि क्यों न  इस पृकृति को सुंदर शब्द भाषाएँ और ध्वनियाँ प्रदान की जाए अत: उन्होंने संकल्प लेकर जैसे ही प्रथ्वी पर छोड़ा तो वृक्षों के झुरमुट से एक सुंदर स्त्री प्रकट हुई जो कमल के पुष्प पर बैठी थी राजहंस जिसकी शोभा बड़ा रहा था जिसके दोनों हाथों  में वीणा थी तथा अन्य दो हाथों में माला और वेद पुस्तिका थीब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद कियासंसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। उसके प्रकट होते ही पृकृति की स्तब्धता और सन्नाटा क्षण भर में समाप्त हो गया और पृकृति उसके सुरों से गुंजायमान हो गयी। आज उसी देवी की कृपा के फल स्वरूप हमारे पास वाणी है शब्द है अनेकों भाषाएँ है। उसी देवी को हम बागीश्वरीभगवतीशारदावीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पुकारते हैये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके जन्मोत्सव के रूप में भी मनाते हैं।
अगर उस देवी के स्वरुप को ध्यान से देखा जाए तो उनका सुंदर विगृह हमें जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने की प्रेरणा देता है माँ सरस्वती के चार हाथ और उसमे धारण की हुई वस्तुएं मूक रूप से हमें प्रेरणा देती है उनकी चार भुजाएं प्रेरणा देते है की हम स्वच्छता ,स्वाध्यायसादगी और श्रेष्ठता को अपने जीवन में धारण करें।
सबसे पहली चीज़ स्वछता तन से और मन से स्वच्छ रहना मन का सम्बन्ध शरीर से है यदि शरीर ही स्वच्छ नहीं होगा तो आप का मन भी ठीक नहीं लगता यदि शरीर अस्वच्छ होगा तो विचार भी वैसे ही आयेंगे इसलिए ये हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है की वो तन से और मन से स्वच्छ रहे।
दूसरी भुजा दूसरी प्रेरणा और वो है स्वाध्याय ,स्वाध्याय का अर्थ है नियमित अध्ययन ,अध्ययन किसका न केवल अपने पाठ्यक्रम से सम्बन्धित बल्कि और भी दूसरी श्रेष्ठ पुस्तकों का चलिए ये भी मान लिया की आजकल पुस्तकें पढ़ने का चलन कम हो गया है तो आप यदि नेट चला रहे है  तो आपको नेट पर भी अनेकों पुस्तकें उपलब्ध हो जायेंगी जो आपका मनोरंजन भी करेंगी और नये विचारों  से भी अवगत करायेंगी तो स्वाध्याय विद्यार्थी का एक विशेष गुण है जो विद्यार्थी इसे जितना विकसित करता है वो उतना ही ज्ञानवान और श्रेष्ठ बनता चला जाता है।
तीसरी भुजा का सन्देश है सेवा ,सेवा किसकी हमारे आस पास जो दुखी परेशान लोग है या जिनकी हमारे द्वारा किसी प्रकार की सहायता हो सकती है उसे करने के लिए तैयार रहना अब इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि परीक्षाएं चल रही है और आप उसे कॉपी करवा रहे है मैं ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा हूँ क्योंकि ये कोई सेवा नहीं है ये तो धोखा है अपने साथ भी और अपने मित्र के साथ भी तो करना क्या है आपके जो भी मित्र है उनकी पढ़ाई में  सहायता करना ये भी एक सेवा है और एक और सीधी-साधी बात बता दूँ यदि आप अपने माता पिता का समान करते  है अपने गुरुजनों की बात मानते है किसी को वाणी से दुःख नहीं पहुंचाते  है तो निश्चत रूप से मानकर चलिए की आप बहुत बड़ी सेवा कर रहे है क्योंकि बच्चों आज हम मोबाइल में और इन्टरनेट में इतने बिजी हो गये है की हमारे पास माता पिता के पास बैठने का समय नहीं है आप तो बस इतना कर लो की आप पूरे दिन में केवल एक घंटा केवल अपने माता पिता के लिए निकालेंगे अगर आपने ये कर लिया तो मानकर चलिए आप से न केवल माता-पिता प्रसन्न होंगे बल्कि ईश्वर भी खुश हो जायेंगे क्योंकि इस धरती पर माता पिता ही ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते है।
चौथी भुजा प्रतिनिधित्व करती है सादगी बच्चों आज का वर्तमान समय ऐसा है जहां हर व्यक्ति अंधाधुंध फैशन परस्ती MORDENISATION की और दौड़ लगाने में लगा है आप पर क्या अच्छा लगेगा आपकी संस्कृति,आपका परिवार और आप जिस माहौल में रहते है वहां के लिए किस प्रकार की वेशभूषा और कपड़े उपयुक्त है ये विचार किये बिना हम भद्दे और फूहड़ कपड़े पहनकर अपने आप को मॉडर्न सिद्ध करने में लगे हुए है ये बहुत बढ़ी भ्रान्ति है की ऐसा करने से आप का समाज में नाम होगा या आप बहुत अच्छे लगेंगे  ऐसा बिलकुल भी नहीं है।
क्योंकि मॉडर्न होने का मतलब कपड़ों से बिलकुल भी नहीं है मॉडर्न होने का मतलब आपकी मॉडर्न सोच से है आपके विचारो से है विवेकानंद बिलकुल भी मॉडर्न नहीं थे वो जब शिकागो धर्म सम्मेलन में गये तो वहां लोगों ने उनकी साधारण सी वेशभूषा का मजाक बनाया लेकिन जब उन्होंने उस सभा में बोलना शुरू किया तो भारत के ऐसे श्रेष्ठ विचारों से दुनिया को अवगत कराया की आज 154 वर्ष बाद भी वो उस धर्म सभा में याद किये जाते है और आज भी उनका चित्र उस धर्म सभा के मंच पर लगा हुआ है तो विचार आधुनिक होने चाहिए और वेशभूषा शालीन और सभ्य क्योंकि सुन्दरता सादगी में है।
माँ सरस्वती के एक हाथ में माला है और एक हाथ में वेद माला हमें प्रेरित करती है कि हमें उस ईश्वर के प्रति धन्यवाद देना चाहिए जिसने हमें मनुष्य जीवन दिया माता पिता दिए उसका धन्यवाद देना चाहिए ,उसके लिए हमें नियमित रूप से पांच बार गायत्री मन्त्र बोलना चाहिए अब मैंने गायत्री मन्त्र के लिए ही क्यों कहा मंत्र तो बहुत सारे होते है इसका एक कारण है गायत्री मन्त्र की ये विशेषता है कि उसमें ईश्वर से धन-धान्य या रुपये पैसे नहीं मांगे गये है बल्कि सद्बुद्धि मांगी गयी है और जिस व्यक्ति के पास सद्बुद्धि होगी वो संसार में ऐसा कोई वस्तु नहीं जिसे प्राप्त न कर सके इसीलिए इसे सब मन्त्रों में श्रेष्ठ और महामंत्र कहा गया है तो निश्चित करें की आप रोज पांच बार गायत्री मन्त्र बोलेंगे।
दूसरा है वेदवेद का अर्थ है ज्ञान हम श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन करें जीवन में ज्ञान को प्राप्त कर उसे श्रेष्ठ बनाएं ये प्रेरणा हमें वेद से मिलती है।
सरस्वती के अन्य दो भुजाएं जिनमें उन्होंने वीणा पकड़ रखी है ये वीणा जीवन का प्रतीक है अर्थात माँ शारदा की वीणा हमें प्रेरणा देती है की हर मनुष्य को जीवन रुपी वीणा ईश्वर ने दी है अब इस जीवन रूपी वीणा का हम किस प्रकार प्रयोग करते हैये हम पर निर्भर करता है यदि हम अच्छे कर्म करेंगे तो इस जीवन रुपी वीणा से सुख के स्वर निकलेंगे और हमारे कर्म गलत दिशा की और होंगे तो हमारा जीवन बेसुरा और दुखमय हो जाएगा इसलिए जिस तरह माँ सरस्वती ने अपने दोनों कर कमलों में वीणा को पकड़ा हुआ है। उसी प्रकार से हमें भी अपने जीवन को मजबूती से पकड़े रहना चाहिए और ये ध्यान रखना चाहिए की कहीं हमारा जीवन गलत मार्ग पर तो नहीं जा रहा तो इस प्रकार माँ शारदा की वीणा हमें प्रेरणा देती है।
अब हम बात करें सरस्वती के आसन का तो वो है कमल और कमल की ये विशेषता है की वो खिलता कीचड़ में है लेकिन कीचड़ से ऊँचा उठा रहता है उसी प्रकार कभी यदि आप ऐसी  परिस्थितियों में फंस जो आपको गलत मार्ग की और ले जाना चाहती हो तो ऐसे आप सजग हो जाइये और अपने आप को उस मार्ग रूपी कीचड़ से बचाइए।
माँ सरस्वती का वाहन है हंस और उसकी एक विशेषता है की वो नीर और क्षीर की पहचान करना जानता हैयदि आप हंस के सामने दूध और पानी मिलकर रख दें तो उसकी ये विशेषता है की वो उसमें से दूध को पी लेता है और पानी को छोड़ देता है इससे हमें प्रेरणा मिलती है की हमें अच्छे और बुरे की पहचान करना आना चाहिए। जिस प्रकार हंस दूध ग्रहण करता है और पानी छोड़ देता है उसी प्रकार आपको किसी भी व्यक्ति और उसकी आदतों से केवल अच्छी चीजें ही ग्रहण करनी चाहिए और उसके दुर्गुणों को अपने अंदर प्रवेश नहीं करने देना चाहिए।

तो इस प्रकार माँ वीणापाणी का श्री विगृह हमें मूक रूप से जीवन को श्रेष्ठ और समुन्नत बनाने की प्रेरणा देता है यदि इन गुणों को आप आत्मसात कर सकें अपने जीवन में अपना सकें तो निश्चित रूप आपका जीवन भी बसंत ऋतु की तरह सुंदर सुहावना हो जाएगा और सफलता रुपी पल्लवों से पुष्पित और सुशोभित होगा और आपके व्यक्तित्व की महक इस समूचे वातावरण को सुगन्धित कर देगी  इसके अलावा ‘पौराणिक कथाओं के अनुसार वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है। कवि देव ने वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहा है कि रूप व सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ों उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैफूल वस्त्र पहनाते हैं पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।  भारतीय संगीत साहित्य और कला में इसे महत्वपूर्ण स्थान है। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है जिसे राग बसंत कहते हैं। वसंत राग पर चित्र भी बनाए गए हैं। इसके अलावा इस दिन पीले वस्त्र पहनना और शरीर पर हल्दी और तेल का लेप लगाकर स्नान करना भी महत्वपूर्ण  माना गया है ऐसा माना जाता है की रंगों का भी एक विज्ञान होता है ,रंगों का भी मनुष्य के चित्त और मानस पर व्यापक प्रभाव होता है तो रंगों के विज्ञान के अनुसार पीला रंग उत्साह और उमंग का प्रतीक है जिसे धारण करने से हमारे मन मस्तिष्क में उत्साह और उमंग की तरंगें हिलोरे मारने लगती है। इस प्रकार सनातन संस्कृति का ये पर्व हमें चहुं ओर से अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाने का सन्देश देता है।
सर्वाधिकार सुरक्षित


30 Jan 2017

एक महान सती थी “पद्मिनी”


एक सती जिसने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया उसकी मृत्यु के सैकड़ों वर्ष बाद उसके विषय में अनर्गल बात करना उसकी अस्मिता को तार-तार करना कहां तक उचित है । ये समय वास्तव में संस्कृति के ह्रास का समय है कुछ मूर्ख इतिहास को झुठलाने का प्रयत्न करने में लगे हुए है अब देखिये एक सर फिरे का कहना है अलाउद्दीन और सती पद्मिनी में प्रेम सम्बन्ध थे जिनका कोई भी प्रमाण इतिहास की किसी पुस्तक में नहीं मिलता। लेकिन इस विषय पर अब तक हमारे सेंसर बोर्ड का कोई भी पक्ष नहीं रखा गया है वास्तव में ये सोचनीय है ।रानी पद्मिनी का इतिहास में कुछ इस प्रकार वर्णन आता है की “पद्मिनी अद्भुत सौन्दर्य की साम्राज्ञी थी और उसका विवाह राणा रतनसिंह से हुआ था। एक बार राणा रतन सिंह ने अपने दरबार से एक संगीतज्ञ को उसके अनैतिक व्यवहार के कारण अपमानित कर राजसभा से निकाल दिया । वो संगीतज्ञ अलाउद्दीन खिलजी के पास गया और उसने पद्मिनी के रूप सौन्दर्य का कामुक वर्णन किया । जिसे सुनकर अलाउद्दीन खिलजी प्रभावित हुआ और उसने रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की ठान ली । इस उद्देश्य से वो राणा रतन सिंह के यहाँ अतिथि बन कर गया राणा रतन सिंह ने उसका सत्कार किया लेकिन अलाउद्दीन ने जब रतनसिंह की महारानी पद्मिनी से मिलने की इच्छा प्रकट की तो रत्न सिंह ने साफ़ मना कर दिया क्योंकि ये उनके वंश परम्परा के अनुकूल नहीं था । लेकिन उस धूर्त ने जब युद्ध करने की बात कही तो अपने राज्य और अपनी सेना की रक्षा के लिए रतनसिंह ने पद्मिनी को सीधा न दिखाते हुए उसके प्रतिबिंब को दिखाने के लिए राज़ी हो गया जब ये बात पद्मिनी को मालूम पड़ी तो पद्मिनी बहूत नाराज़ हुई लेकिन जब रतनसिंह ने इस बात को मानने का कारण देश और सेना की रक्षा बताया तो उसने उनका आग्रह मान लिया । 100 महावीर योद्धाओं और अन्य कई दास दासियों और अपने पति राणा रत्न सिंह  के सामने पद्मिनी ने अपना प्रतिबिम्ब एक दर्पण में अलाउद्दीन खिलजी को दिखाया जिसे देख कर उस दुष्ट के मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा और प्रबल हो गयी लेकिन ये अलाउद्दीन खिलजी के लिए भी इतना सम्भव नहीं था ।रतन सिंह ने अलाउद्दीन के नापाक इरादों को भांप लिया था । उसने अलाउद्दीन के साथ भीषण युद्ध किया राणा रतन सिंह की आक्रमण नीति इतनी सुदृण थी की अल्लौद्दीन छ: महीने तक किले के बाहर ही खड़ा रहा लेकिन किले को भेद नहीं सका अंत में जब किले के अंदर पानी और भोजन की सामग्री ख़त्म होने लगी तो मजबूरन किले के दरवाजे खोलने पडे राजपूत सेना ने केसरिया बाना पहनकर युद्ध किया लेकिन अलाउद्दीन खिलजी ने रतन सिंह को बंदी बना लिया और चित्तौड़गढ़ संदेशा भेजा कि यदि मुझे रानी पद्मिनी दे दी जाए तो में रतनसिंह को जीवित छोड़ दूंगा जब पद्मिनी को ये पता चला तो उन्होंने एक योजना बनाकर अलाउद्दीन खिलजी के इस सन्देश के प्रतिउत्तर स्वरुप स्वीकृति दे दी लेकिन साथ ये भी कह भिजवाया की उनके साथ उनकी प्रमुख दासियों का एक जत्था भी आएगा अलाउद्दीन इसके लिए तैयार हो गया । पद्मिनी की योजना ये थी की उनके साथ दासियों के भेस में चित्तौड़गढ़ के सूरमा और श्रेष्ठ सैनिक जायेंगे ऐसा ही हुआ जैसी ही अलाउद्दीन के शिविर  में डोलियाँ पहुंची उसमें बैठे सैनिकों ने अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर धावा बोल दिया उसकी सेना को बड़ी मात्र में क्षति हुई और राणा रतनसिंह को छुड़ा लिया गया ।
इसका बदला लेने के लिए अलाउद्दीन ने पुन: आक्रमण किया ।जिसमें राजपूत योद्धाओं में भीषण युद्ध किया और देश की रक्षा के लिए अपने प्राण आहूत कर दिए उधर जब रानी पद्मिनी को मालूम पढ़ा की राजपूत योद्धाओं के साथ राणा रतन सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए है तो उन्होंने अन्य राजपूत रानियों के साथ एक अग्नि कुंद में प्रवेश कर जोहर (आत्म हत्या ) कर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु प्राण दे दिए लेकिन जीते जी अपनी अस्मिता पर अल्लौद्दीन का साया तक भी नहीं पड़ने दिया ।
ये इतिहास में उद्दृत है लेकिन आज के तथा कथित लोग अपने जरा से लाभ के लिए इस महान ऐतिहासिक घटना को मनमाना रूप देने पर आमादा है ।इसके लिए सरकार को और हमारे सेंसर बोर्ड को उचित कदम उठाने चाहिए और सिनेमा क्षेत्र से जुड़े लोगों को जो भी ऐतिहासिक फिल्मी बनाना चाहते है उनके लिए ये अनिवार्य कर देना चाहिए की वो इतिहास से जुड़े उस व्यक्ति विशेष के बारे में विश्वसनीय दस्तावेजों का अध्ययन करे और फिर उन्हें लोगों के सामने प्रस्तुत करें क्यौंकी इतिहास से जुड़े किसी भी घटना या व्यक्ति के विषय में मन माना कहना या गड़ना उचित नहीं है इसका समाज और राष्ट्र  पर नकारात्मक प्रभाव जाता है और देश की ख्याति धूमिल होती है
 है।
सर्वाधिकार सुरक्षित




26 Jan 2017

गौरवशाली राष्ट्र का गौरवशाली गणतांत्रिक इतिहास


गणतन्त्र दिवस यानी की पूर्ण स्वराज्य दिवस ये केवल एक दिन याद की जाने वाली देश भक्ति नहीं है बल्कि अपने देश के गौरव ,गरिमा की रक्षा के लिए मर  मिटने की उद्दात भावना है | राष्ट्र हित में मर मिटने वाले देश भक्तों से भारत का इतिहास भरा पड़ा है अपने राष्ट्र से प्रेम होना सहज-स्वाभाविक है। देश का चाहे राजनेता हो योगी हो सन्यासी हो रंक से लेकर रजा तक का सबसे पहला धर्म राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों को आहूत करने के लिए तत्पर रहना ही है | देशप्रेम से जुड़ी असंख्य कथाएं इतिहास के पन्नों में दर्ज है। भारत जैसे विशाल देश में इसके असंख्य उदाहरण दृषिटगोचर होते हैं। हम अपने इतिहास के पन्नों में झांक कर देखें तो प्राचीन काल से ही अनेक वीर योद्धा हुए जिन्होंने भारतभूमि की रक्षा हेतु अपने प्राण तक को न्योछावर कर दिए। पृथ्वीराज चौहाणमहाराणा प्रतापटीपू सुल्तानबाजीरावझांसी की रानी लक्ष्मीबार्इवीर कुंवर सिंहनाना साहेबतांत्या टोपेचंद्रशेखर आजादभगत सिंहराजगुरूखुदीराम बोससुभाषचंद्रबोससरदार बल्लभ भार्इ पटेलरामप्रसाद विसिमल जैसे असंख्य वीरों के योगदान को हम कभी नहीं भूल सकते। इन्होंने मातृभूमि की रक्षा हेतु हंसते-हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए। विदेशियों को देश  से दूर रखने और फिर स्वतंत्रता हासिल करने में इनका अभिन्न योगदान रहा। आज हम स्वतंत्र परिवेश में रह रहे हैं। आजादी ही हवा में हम सांस ले रहे हैंयह सब संभव हो पाया है अनगिनत क्रांतिकारियों और देशप्रेमियों के योगदान के फलस्वरूप। लेखकों और कवियोंगीतकारों आदि के माध्यम से समाज में देशप्रेम की भावना को प्रफुल्लित करने का अनवरत प्रयास किया जाता है। रामचरित मानस में राम जी जब वनवास को निकले तो अपने साथ अपने देश की मिट्टी को लेकर गये जिसकी वो नित्य प्रति पूजा करते थे | राष्ट्रप्रेम की भावना इतनी उदार और व्यापक है कि राष्ट्रप्रेमी समय आने पर प्राणों की बलि देकर भी अपने राष्ट्र की रक्षा करता है। महर्षि दधीचि की त्याग-गाथा कौन नहीं जानताजिन्होंने समाज के कल्याण के लिए अपनी हड्डियों तक का दान दे दिया था। सिख गुरुओं का इतिहास राष्ट्र की बलि-वेदी पर कुर्बान होने वाली शमाओं से ही बना है। गुरु गोविंद सिंह के बच्चों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया गया। उनके पिता को भी दिल्ली के शीशगंज गुरूद्वारे के स्थान पर बलिदान कर दिया गया। उनके चारों बच्चे जब देश-प्रेम की ज्वाला पर होम हो गए तो उन्होंने यही कहा कि…. चार गए तो क्या हुआजब जीवित कई हज़ार।
ऐसे देशप्रेमियों के लिए हमारी भावनाओं को माखनलाल चतुर्वेदी ने पुष्प के माध्यम से व्यक्त किया है--
मुझे तोड़ लेना बनमालीउस पथ पर तुम देना फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़नेजिस पथ जाएँ वीर अनेक।
देश-रक्षा हमारा कर्तव्य है- जिस मिट्टी का हम अन्न खाते हैंउसके प्रति हमारा स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि हम उसकी आन-बान-मान की रक्षा करें। उसके लिए चाहें हमें अपना सर्वस्व भी लुटाना पड़े तो लुटा दें। सच्चे प्रेमी का यही कर्तव्य है कि वह बलिदान के अवसर पर सोच-विचार न करेमन में लाभ-हानि का विचार न लाएअपितु प्रभु-इच्छा मानकर कुर्बान हो जाए।
 सच्चा देशभक्त वही हैजो देश के लिए जिए और उसी के लिए मरे। 'देश के लिए मरनाउतनी बड़ी बात नहींजितनी कि 'देश के लिए जीना'। एक दिन आवेशजोश और उत्साह की आँधी में बहकर कुर्बान हो जाना फिर भी सरल हैक्योंकि उसके दोनों हाथों में लाभ है। मरने पर यश की कमाई और मरते वक्त देश-प्रेम का नशा। किंतु जब देश के लिए क्षण-क्षणतिल-तिल कर जलना पड़ता हैअपनी इच्छाओं-आकांक्षाओं की नित्य बलि देनी पड़ती हैरोज़-रोज़ भग़त सिंह बनना पड़ता हैतब यह मार्ग बहुत कठिन हो जाता है।
सच्चा देश-प्रेमी वही हैजो अपनी योग्यताशक्तिबुद्धि को राष्ट्र का गौरव बढ़ता हो।  आज का युवा चाहे तो क्या नहीं कर सकता परन्तु पश्चिम की बयार में खोया हुआ युवा अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन नज़र आता है |आज दुर्भाग्य से व्यक्ति इतना आत्मकेंद्रित हो गया है कि वह चाहता है कि सारा राष्ट्र मिलकर उसकी सेवा में जुट जाए। 'पूरा वेतनआधा कामउसका नारा बन गया है। आज देश में किसी को यह परवाह नहीं है कि उसके किसी कर्म का सारे देश के हित पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हर व्यक्ति अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुआ है  यही कारण है कि भारतवर्ष नित्य समस्याओं के अजगरों से घिरता चला जा रहा हैं। जब तक हम भारतवासी यह संकल्प नहीं लेते कि हम देश के विकास में अपना सर्वस्व लगा देंगेतब तक देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकताऔर जब तक देश का विकास नहीं होतातब तक व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता। अतः हमें मिलकर यही निश्चय करना चाहिए कि आओहम राष्ट्र के लिए जियें।
 हमारा देश भारत अत्यन्त महान एवं सुन्दर है। यह देश इतना पावन एवं पवित्र है कि यहाँ देवता भी जन्म लेने को लालायित रहते हैं। विश्व में इतना गौरवशाली इतिहास किसी देश का नहीं मिलता जितना की भारत का है हमारी यह जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
 कहा गया है - 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। हमारे देश का नाम भारत हैजो महाराज दुष्यंत एवं शकुंतला के प्रतापी पुत्र 'भरतके नाम पर रखा गया। पहले इसे 'आर्यावर्तकहा जाता था। इस देश में रामकृष्णमहात्मा बुद्धवर्धमान महावीर आदि महापुरुषों ने जन्म लिया। इस देश में अशोक जैसे प्रतापी सम्राट भी हुए हैं। इस देश के स्वतंत्रता संग्राम में लाखों वीर जवानों ने लोकमान्य तिलकगोपाल कृष्ण गोखलेलाला लाजपत रायनेताजी सुभाषचन्द्र बोससरोजिनी नयाडू आदि से कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया।
हिमालय हमारे देश का सशक्त प्रहरी हैतो हिन्द महासागर इस भारत माता के चरणों को निरंतर धोता रहता है। हमारा यह विशाल देश उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ है। इस देश की प्राकृतिक सुषमा का वर्णन करते हुए कवि रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं-''शोभित है सर्वोच्च मुकुट सेजिनके दिव्य देश का मस्तक।
गूँज रही हैं सकल दिशाएँजिनके जय गीतों से अब तक।''हमारे देश में 'विभिन्नता में एकताकी भावना निहित है। यहां प्राकृतिक दृष्टि से तो विभिन्नताएं हैं हीइसके साथ-साथ खान-पानवेशभूषाभाषा-धर्म आदि में भी विभिन्नताएं दृष्टिगोचर होती हैं। ये विभिन्नताएँ ऊपरी हैह्नदय से हम सब भारतीय हैं। भारतवासी उदार ह्नदय वाले हैं और ‘वसुधैव कुटुम्बम्‘ की भावना में विश्वास करते है। यहां के निवासियों के ह्नदय में स्वदेश-प्रेम की धारा प्रवाहित होती रहती है।  हमारे देश भारत की संस्कृति अत्यंत महान् है। यह एक ऐसे मजबूत आधार पर टिकी है जिसे कोई अभी तक हिला नहीं पाया है। कवि इकबाल कह गए हैं-
'यूनान मिस्त्र रोमसब मिट गए जहाँ सेबाकी मगर है अब तक नामोशियां हमारा।
कुछ बात कि हस्ती मिटती नहीं हमारीसदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारा।'
वर्तमान समय में हमारा देश अभी तक आध्यात्मिक जगत् का अगुआ बना हुआ है। स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में भारतीय संस्कृति के जिस स्वरूप से पाश्चात्य जगत् को परिचित कराया थाउसकी अनुगूँज अभी तक सुनाई पड़ती है। भारतीयों ने अस्त्र-शस्त्र के बल पर नहीं बल्कि प्रेम के बल पर लोगों के ह्नदय पर विजय प्राप्त की। वैसे तो हर व्यक्ति में अपने देश के प्रति देशप्रेम की भावना किसी न किसी रूप में मौजूद होती ही हैअपितु हर व्यक्ति इसे जाहिर नहीं कर पाता। हमें अपने देशप्रेम की भावना को अवश्य उजागर करना चाहिए। इसी भावना से ओत-प्रोत होकर खिलाड़ी खेल के मैदानों पर और सैनिक सीमा पर असाधारण प्रदर्शन कर जाते हैं। अगर हर व्यक्ति अपने दायित्वों का निर्वाह भलीभांति करेगा और न खुद से तथा न किसी अन्य के साथ गलत करेगा तो यह उसका अपने देश के लिए एक उपहार ही होगा। इसे भी देशप्रेम के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। भारतवर्ष का लोकतंत्र आज भी विश्व में अनोखा है। अतः देश के हर निवासी को कुछ ऐसा करना चाहिए कि हमारे देश के इतिहास में हमारा नाम सदा सर्वदा के लिए अमर हो जाए और लोग हमेशा हमारे योगदान की सराहना करें।

सर्वाधिकार सुरक्षित



विश्वेश्वर से स्वामी विवेकानंद बनने तक की यात्रा.....


आज से 154 वर्ष पूर्व  एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम  विश्वेश्वर रखा गया जिसे घर में प्यार से नरेंद्र के नाम से बुलाया जाता था । लेकिन ये बालक  अपनी अद्भुत गुरु सेवा और कृतित्व के कारण स्वामी विवेकानंद के नाम से विश्व विख्यात हुआ  । ये विवेकानंद स्वामी बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे इनका जन्म कोलकता में एक संपन्न परिवार में हुआ । नरेंद्र पूर्व के संस्कारों और पश्चिम की सभ्यता का समन्वय थे क्योंकि  इनके पिता पाश्चात्य संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे, जबकि इनकी माता भारतीय सनातन संस्कृति के संस्कारों और आध्यात्मिक ज्ञान से अविभूत एक भारतीय नारी थी । जिनका ज्यादातर समय आध्यात्मिक वार्तालाप आदि में बीतता था ।नरेंद्र पर अपनी माँ के द्वारा दिए गये संस्कारों का अत्यधिक प्रभाव था ।अपने गुरु ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के ज्ञान और माँ के संस्कारों का ही प्रभाव था की अपने सिर्फ 40 वर्षों के जीवन काल में उन्होंने ऐसे कार्य किये जिसने समाज और समूचे देश को नई दिशा दी नई चेतना दी और आज 15वर्षों के बाद भी उनके विचारों और आदर्शों की प्रासंगिकता बनी हुई है । नरेंद्र के जीवन में दुःख और संकट के बदल तब उमड़ आये जब उनके पिता का देहावसान हो गया घर चलाने के पर्याप्त साधन उनके पास नहीं थे। ऐसी परिस्थितियों में भी नरेंद्र ने बड़ी शांति और हिम्मत से काम लिया मुझे वो घटना याद आती है जिसमें नरेंद्र नौकरी मांगने के लिए अपने एक रिश्तेदार के पास जाते है वो रिश्तेदार उनको बोलता है की तुम रामकृष्ण परमहंस के पास चले जाओ वो तुम्हें किसी मंदिर की सेवा दिला देंगे और तुम्हारा गुजरा चल जाएगा नरेंद्र तब तक विवेकानंद नहीं हुए थे। नरेंद्र एक नौकरी की अभिलाषा लेकर परमहंस के पास गये और उन्होंने परमहंस से कहा की मुझे एक नौकरी दे दो मैं बहुत गरीब हूँ परमहंस ने नरेंद्र को देखा और मुस्करा दिए आँखों से इशारा करते हुए बोले की वो सामने काली माता खड़ी है उनसे बोल दे वो दे देगी विवेकानन्द ने जाकर जैसे ही काली माता की प्रतिमा को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गये और जो वो मांगने आये थे उसे भूल कर अपने लिए सद्बुद्धि और देश सेवा माँगने लगे ऐसा उनके साथ एक बार नहीं कई बार हुआ जैसे ही वो नौकरी के लिए बोलने का प्रयत्न करते उनके मुंह  से देश सेवा और सद्बुद्धि प्राप्त करने की बात ही निकलती ।अंत में वे परमहंस के पास आये सारी घटना उनको बताई तब परमहंस बोले तुम्हारा जन्म एक ऊँचे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुआ।  परमहंस ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और उनके सानिध्य में रहकर नरेंद्र ने अध्यात्म के कई सोपान पार किये एवं उनकी सूक्ष्म उपस्थिति आज भी हमारा मार्ग दर्शन कर रही है। स्वामी विवेकानंद हम युवाओं के लिए एक कुछ महत्वपूर्ण काम छोड़कर गये है । उन्हें गये हुए एक शताब्दी से ज्यादा समय हो गया लेकिन उनका काम अभी भी अधूरा है जिसे हमने पूरा करना है और वो कार्य क्या है की हम जहां है जैसे है कुछ श्रेष्ठ कार्य करें, समाज और राष्ट्र का उत्थान हो ऐसा कार्य करें । स्वामी जी ने अपने जीवन काल में जब की देश गुलाम था और समाज में  अस्प्रश्यता, जातिवाद, अन्धविश्वासजैसी कुरीतियाँ व्याप्त थी और राजे रजवाड़े मार काट में लगे हुए थे उस समय विवेकानंद ने कहा था मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ के भारत वर्ष फिर से विश्व गुरु के पद पर आसीन होने जा रहा है उनकी अंतर दृष्टि कितनी सूक्ष्म रही होगी। हम परम सौभाग्यशाली है कि वर्तमान समय में हम विश्व के सबसे युवा देश है भारत की 65 % से अधिक जनसंख्या युवा है और आने वाले समय में 24 करोड़ नये युवा देश में होने वाले है ।हम चाहे तो स्वामी जी के स्वप्न को सच कर सकते है ।भारत को विश्व गुरु के पद पर आसीन कर के बस आवश्यकता है तो संकल्प शक्ति की। स्वामी विवेकानंद एक कहानी कई बार सुनाया करते थे की एक शेरनी थी वो गर्भवती थी एक शिकारी उसके पीछे शिकार के लिए दौड़ा और उसने उस पर बाण चलाया शेरनी गिर पड़ी और उसके गर्भ से बालक बाहर निकल आया जिसका पालन  पोषण हिरनों ने अपने झुण्ड में रखकर किया वो शेरनी का बच्चा हिरनों के झुण्ड में रहता और उन्हीं के जैसा आचरण करता एक दिन एक शेर ने हिरनों के झुण्ड को देखा और वो शिकार की इच्छा से उन पर कूद पढ़ा तब उसने देखा की हिरनों के झुण्ड के साथ एक शेरनी का बच्चा भी जान बचाकर भाग रहा है। उसने हिरनों को तो छोड़ दिया और शेरनी के बच्चे को पकड़ कर उससे पुछा की भाई तुम क्यों डरकर भाग रहे हो । उस बच्चे ने बोला में भी तो हिरन हूँ । ये सुनकर शेर को आश्चर्य हुआ उसने नदी के किनारे ले जाकर उस बच्चे को उसकी सूरत दिखाई और कहा की तू भी मेरे जैसा ही ताकतवर शेर है तू हिरन नहीं है बच्चे को भी अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपने स्वरूप का ज्ञान हुआ और उसने दहाड़ना शुरू कर दिया प्रस्तुत कहानी आज के युवाओं की स्थिति दर्शाती है आज का युवा भी अपनी योग्यताओं और अपने वास्तविक स्वरूप को छोड़ कर पश्चिम की बयार में बहता जा रहा है वर्तमान समय में आवश्यकता है की आज का युवा अपनी योग्यताओं को पहचाने और संकल्प ले की वो समाज और देश हित के लिए अपने जीवन का परिष्कार करेगा तभी ये युवा दिवस मनाना सार्थक होगा ।  

सर्वाधिकार सुरक्षित




युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...