18 Dec 2016

परिवार का वृद्ध वृक्ष और नयी कोपलें (युवा विशेष )


जब हम किसी पुराने पीपल या बरगद के वृक्ष को देखते है तो हमारा हृदय एक प्रकार की श्रद्धा से भर जाता है पुराने वृक्ष ज्यादातर पूजा पाठ के लिए देव स्वरूप माने जाते है इसी प्रकार हमारे घर के वृद्ध वृक्ष हमारे बुजुर्ग भी देव स्वरूप है । जिनकी शीतल छाँव में हम अपने सब दुखों और समस्याओं को भूल कर शांति का अनुभव कर सकते है। क्या आज का युवा भी ऐसा ही सोचता है ? ये जानना आवश्यक है क्योंकि आज के युवा की सोच और गति बहुत ही अलग है, युवा नई कोपलों की तरह संवेदनशील है जिस पर आस पास के परिवेश का बहुत जल्दी प्रभाव पड़ता है क्योंकि आज का युवा अपने बचपन से ही दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित है । उसे बचपन से ही कलर टी॰वी॰,मोबाइल ,कारस्कूटर,कंप्यूटरफ्रिज जैसी सुविधाओं को देखा हैजाना है। जिसकी कल्पना भी आज का बुजुर्ग अपने बचपन में नहीं कर सकता था । जो कुछ सुविधाएँ उस समय थी भी तो उन्हें मात्र एक प्रतिशत धनवान लोग ही जुटा पाते थे। आज इन सभी आधुनिक सुविधाओं को जुटाना प्रत्येक युवा के लिए गरिमा का प्रश्न बन चुका है। प्रत्येक युवा का स्वप्न होता है कीवह अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं से सुसज्जित शानदार भवन का मालिक हो। प्रत्येक युवा की इस महत्वाकांक्षा के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र में गला काट प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हुई है। अब वह चाहे शिक्षा पाने के लिए स्कूल या कालेज में प्रवेश का प्रश्न हो या नौकरी पाने के लिए मारामारी हो। रोजगार पाने के लिए व्यापार ,व्यवसाय की प्रतिस्पर्धा हो या अपने रोजगार को उच्चतम शिखर पर ले जाने की होड़ हो या फिर अपनी नौकरी में उन्नति पाने के अवसरों की चुनौती हो ।प्रत्येक युवा की आकांक्षा उसकी शैक्षिक योग्यता एवं रोजगार में सफलता पर निर्भर करती है यह संभव नहीं है की प्रत्येक युवा सफलता के शीर्ष को प्राप्त कर सके परन्तु यदि युवा ने अपने विद्यार्थी जीवन में भले ही मध्यम स्तर तक सफलता पाई हो परन्तु चरित्र को विचलित होने से बचा लिया हैतो अवश्य ही दुनिया की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है,चाहे वे उच्चतम गुणवत्ता वाली न हों और वह एक सम्मान पूर्वक जीवन जी पाता है। सफलता,असफलता प्राप्त करने में ,या चरित्र का निर्माण करने में अभिभावक और माता पिता के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता । यदि सफलता का श्रेय माता पिता को मिलता है तो उसके चारित्रिक पतन या उसके व्यक्तित्व विकास के अवरुद्ध होने के लिए भी माता पिता की लापरवाही , उचित मार्गदर्शन दे पाने की क्षमता का अभाव जिम्मेदार होती है। जबकि युवा वर्ग कुछ भिन्न प्रकार से अपनी सोच रखता है। वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के लिए बुज़ुर्गों को दोषी ठहराता है। आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान मूर्ती की भांति होता हैजिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी,कपड़ा और दवा दारू की आवश्यकता होती है। उसके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके हैं। उनकी इच्छाएंभावनाएंआवश्यकताएं सीमित हो गयी हैं। उन्हें सिर्फ मौत की प्रतीक्षा है। अब हमारी जीने की बारी है। जबकि वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्ध शतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है।,स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है,और मानसिक स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा है।(अधिक पढ़े लिखे व्यक्ति का अनुभव भी अधिक समृद्ध होता है) अतः वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार को प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है,वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी पारी के रूप में देखता हैजिसमें उस पर कोई जिम्मेदारियों का बोझ नहीं होता। और अपने शौक पूरे करने के अवसर के रूप में देखना चाहता है।  वह निष्क्रिय न बैठ कर अपनी मन पसंद के कार्य को करने की इच्छा रखता है,चाहे उससे आमदनी हो या न हो। यद्यपि हमारे देश में रोजगार की समस्या होने के कारण युवाओं के लिए रोजगार का अभाव बना रहता है,एक बुजुर्ग के लिए रोजगार के अवसर तो न के बराबर ही रहते हैं और अधिकतर बुजुर्ग समाज के लिए बोझ बन जाते हैं। उनके ज्ञान और अनुभव का लाभ देश को नहीं मिल पाता। कभी-कभी उनकी इच्छाएं,आकांक्षाएंअवसाद का रूप भी ले लेती हैं क्योंकि पराधीन हो कर रहना या निष्क्रिय बन कर जीना उनके लिए परेशानी का कारण बनता है। आज का युवा अपने बुजुर्ग के तानाशाही व्यक्तित्व के आगे झुक नहीं सकता सिर्फ बुजुर्ग होने के कारण उसकी तार्किक बातों को स्वीकार कर लेना उसके लिए असहनीय होता है परन्तु यह बात बुजुर्गों के लिए कष्ट साध्य होती है क्योंकि उन्होंने अपने बुजुर्गों को शर्तों के आधार पर सम्मान नहीं दिया था,और न ही उनकी बातों को तर्क की कसौटी पर तौलने का प्रयास किया था। उनके द्वारा बताई गयी परम्पराओं को निभाने में कभी आनाकानी नहीं की थी। उन्हें आज की पीढ़ी का व्यवहार उद्दंडता प्रतीत होता है। समाज में आ रहे बदलाव उन्हें विचलित करते हैं। क्या सोचता है आपका पुत्रक्या चाहता है आपका पुत्रवह और उसका परिवार आपसे क्या अपेक्षाएं रखता है?इन सभी बातों पर प्रत्येक बुजुर्ग को ध्यान देना आवश्यक है। आज के भौतिकतावादी युग में यह संभव नहीं है की अपने पुत्र को आप उसके कर्तव्यों की लिस्ट थमाते रहें और आप निष्क्रिय होकर उसका लाभ उठाते रहें। आपका पुत्र भी चाहता है आप उसे घरेलू वस्तुओं की खरीदारी में यथा संभव मदद करें,उसके बच्चों को प्यार दुलार देंउनके साथ खेल कर उनका मनोरंजन भी करें,बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने में सहायक सिद्ध हों,बच्चों के दुःख तकलीफ में आवश्यक भागीदार बनेबुजुर्ग महिलाएं गृह कार्यों और रसोई के कार्यों में यथा संभव हाथ बंटाएं,बच्चों को पढाने में योग्यतानुसार सहायता करें,परिवार पर विपत्ति के समय उचित सलाह मशवरा देकर लौह स्तंभ की भांति साबित हों। बच्चों अर्थात युवा संतान द्वारा उपरोक्त अपेक्षाएं करना कुछ गलत भी नहीं हैउनकी अपेक्षाओं पर खरा साबित होने पर परिवार में बुजुर्ग का सम्मान बढ़ जाता हैपरिवार में उसकी उपस्थिति उपयोगी लगती है साथ ही बुजुर्ग को इस प्रकार के कार्य करके उसे खाली समय की पीड़ा से मुक्ति मिलती है,उसे आत्मसंतोष मिलता हैवह आत्मसम्मान से ओत-प्रोत रहता है। उसे स्वयं को परिवार पर बोझ होने का बोध नहीं होता।
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मानवीय तपस्या का साकार रूप “नारी”


नारी कामधेनु हैअन्नपूर्णा हैसिद्धि हैरिद्धि है और वह सब कुछ है जो परिवार के समस्त अभावोंकष्टों एवं संकटों को निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धासिक्त सद्भावना,स्नेह ,सम्मान दिया जाए तो वह घर को स्वर्गीय वातावरण से ओत-प्रोत कर सकती है। माँ के रूप में उसका वात्सल्य पाकर हमें बोध हुआ है कि नारी सनातन शक्ति है जिसके आँचल से सतत स्नेहसिक्त अमृत रिसता रहता है जिसका पान कर शिशु मानसिक और शारीरिक पोषण प्राप्त कर समाज में श्रेष्ठ और महान व्यक्ति के रूप में अपना स्थान बनाता है ।मुझे याद  आती है इस भारत भूमि पर मानवीय देह में जन्मी वो महान माताएं जो धरती पर ईश्वर के अवतार का माध्यम बनी ,धरती पर जब –जब भी ईश्वर का प्रकटीकरण  हुआ तो ईश्वर को भी नारी पर ही आश्रित होना पड़ा है रामचरित मानस में तुलसी बाबा लिखते है की जब कौशल्या के भवन में चतुर्भुजी नारायण बालक  के रूप में प्रकट होना चाह रहे थे तो माता कौशल्या  उनसे कहती है की हे । ईश्वर यदि मेरे गर्भ से जन्म लेना चाहते हो तो सबसे पहले अपने अतिरिक्त दो हाथ लुप्त करो अपने वैभव को समेटो ,छोटे शिशु का रूप धारण करो और फिर रोना शुरू करो ईश्वर को अपनी इच्छानुसार आकार देने की जो क्षमता भारतीय नारी में मिलती है वो विश्व के किसी भी इतिहास में कहीं नहीं मिलती। कृष्ण जब मिट्टी खाते है तो माँ यशोदा उन्हें ओखल से बाँध देती है ना केवल बाँध देती है बल्कि उन्हें धमकाती है और डांटती भी है  ईश्वर को भी अपनी आज्ञा में चलाने का सामर्थ्य केवल भारत वर्ष की नारी में ही मिलता है ,फिर भी समाज में आज भी वो उपेक्षित है।
जहां तक विकास और पुरुष के समकक्ष होने बात कही जाती है ये केवल स्त्री समाज का एक बहूत छोटा हिस्सा है जो की बहुत संघर्ष और त्याग के बाद विकास कर पाया है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नारी शोषित , उपेक्षित है  कई सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ उठाये स्त्री सतत अपने कर्तव्यों का पालन करने में लगी हुई दिखाई देती है 
यदि आपको एक जीवित मशीन देखना हो तो आप विशेषकर सुबह के समय परिवार की महिला को देखिये पति के कपड़ोंबच्चों के नाश्तेउनके स्कूल बैग , बड़ों की दवाई आदि कार्यों में व्यस्त महिला साक्षात् मशीन दिखाई देती है ।जो केवल स्नेह वश बिना किसी स्वार्थ के तत्परता से सबकी सेवा में लगी रहती है , उसे केवल पति की मुस्कानबच्चों के द्वारा  सम्मान और बड़ों के आशीर्वाद की इच्छा गतिशील बनाये रखती है ,फिर भी पुरुष प्रधान समाज नारी के उस समर्पण को समझ नहीं पता दुर्भाग्य ऐसा की मंदिर में जाकर पत्थर की देवी प्रतिमा को श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे लेकिन घर में जो जीवंत देवी है जिसने परिवार की बागडोर सम्भाल रखी है उसकी उपेक्षा करेंगे यहाँ तक की कोई गलती हो जाने पर उसे खरी खोटी सुनाने से भी नहीं चुकेंगे  विडम्बना ऐसी है की जिस देवी की प्रतिमा को मंदिर ने सुंदर वस्त्रों से ढंककर उसका सुंदर श्रंगार कर अपने श्रद्धा और सम्मान को समर्पित करते है वहीं दूसरी और जीवंत नारी का शील भंग  कर उसे समाज में तिरस्कृत जीवन जीने के लिए छोड़ देते है  नारी कब तक इस पुरुष प्रधान समाज के इन घृणित कार्यों को सहन करती रहेगी ?
 नारी आदिकाल से उन सामाजिक दायित्वों को अपने कन्धों पर उठाए आ रही हैजिन्हें केवल पुरुष के कन्धों पर डाल दिया गया होता , तो वह न जाने कब का लड़खड़ा गया होताकिन्तु स्त्री आज भी उतनी ही कर्तव्यनिष्ठाउतने ही मनोयोगसंतोष और उतनी ही प्रसन्नता के साथ उसे आज भी ढोए चल रही है। इसलिए उसे मानवीय तपस्या की साकार प्रतिमा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा है।
भौतिक जीवन की लालसाओं के प्रवाह को उसी की पवित्रता ने रोका और सीमाबद्ध करके उन्हें प्यार की दिशा दी। प्रेम नारी का जीवन है। अपनी इस निधि को वह अतीत काल से मानव पर न्यौछावर करती आयी है। कभी न रुकने वाले इस अमृत निर्झर ने संसार को शान्ति और शीतलता दी है। ऐसी देव स्वरूप नारी के आत्म सम्मान की रक्षा करना और उसे स्नेह और सम्मान देना हमारा कर्तव्य होना चाहिए 
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14 Dec 2016

श्रेष्ट विद्यार्थी और गौरवशाली राष्ट्र


विद्यार्थी जीवन मनुष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है  इस समय में बने संस्कारसीखी हुई कलाएँ हमारा भविष्य निर्धारित करती हैं  इसलिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि मनुष्य अपने विद्यार्थी जीवन से ही देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझे  इससे वह अपने जीवन को इस प्रकार ढाल सकेगा कि राष्ट्र के प्रति उसके जो कर्तव्य है वो उन्हें पूरा करने के लिए सक्षम बने 
एक विद्यार्थी के रूप में मनुष्य का देश के प्रति पहला कर्तव्य यह होता है कि वह अपनी शिक्षा उचित रूप से पूर्ण करे  शिक्षा मनुष्य की योग्यता बढ़ाती है  उसे सामर्थ्यवान बनाती हैउसके विवेक का विकास करती है  कर्तव्यों का ज्ञान दिलाती है  एक उचित शिक्षा पाया हुआ व्यक्ति अपने परिवारसमाज तथा देश की सही तरीके से सेवा कर सकता है  इसलिए शिक्षा प्राप्त करना किसी भी विद्यार्थी का पहला कर्तव्य है ।उचित शिक्षा के अलावा विद्यार्थी का दूसरा कर्तव्य है कि वह अपने स्वास्थ्य पर सही ध्यान दे  कहा जाता है स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है  एक शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही देश की सही तरीके से सेवा कर सकता है 
शिक्षा तथा स्वास्थ्य के बाद देश के प्रति विद्यार्थी का जो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है देश के शक्ति-बोध तथा सौंदर्य-बोध को बढ़ाना  विद्यार्थी जहाँ भी जाएउन्हें हमारे देश के गौरवशाली अतीत का पूरा स्मरण होना चाहिए  एक विद्यार्थी को किसी भी परिस्थिति में अपने देश की बुराई नहीं करनी चाहिए , देश की कमियाँ नहीं निकालनी चाहिए  उसे हमेशा देश के सामर्थ्यदेश की असीम क्षमता का गुणगान करना चाहिए  विद्यार्थी कहाँ भी जाएदेश के लिए सकारात्मक माहौल का निर्माण करे  इससे देश का शक्ति-बोध बढ़ता है  इसके अलावा विद्यार्थी को देश का सौन्दर्य-बोध बड़ाने में भी योगदान देना चाहिए  उसे कहीं भी गंदगी नहीं फैलानी चाहिए व दूसरों को भी गंदगी फैलाने से रोकना चाहिए  अपने व्यवहार से वो देश में स्वच्छता के प्रति जागरूकता ला सकता है  एक विद्यार्थी को अपने व्यवहार में सज्जनता रखनी चाहिए  उसे यहाँ कि बातें वहाँ नहीं करनी चाहिए  खुद में किया हुआ यह परिवर्तन देश के सौन्दर्य-बोध को दृढ़ करता है 
इस तरह खुद के व्यवहार में परिवर्तन कर विद्यार्थी देश में कई सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं  विद्यार्थियों को अपने सामाजिक परिवेश तथा देश के सामने जो महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं , उनके बारे में भी जानकारी रखनी चाहिए  विद्यार्थी देश में साक्षरता के प्रसारअंधविश्वास के निर्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं  उन्हें अपने दिनचर्या का एक निश्चित समय देश व समाज की सेवा के लिए निर्धारित करना चाहिए  वो अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं कि किसी विशिष्ट सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए वह नियमित प्रयास करेंगे  उनका प्रयास भले छोटा हो पर एक लम्बे समय में वह अवश्य देश व समाज को लाभान्वित करेगा  इस प्रकार उचित शिक्षा प्राप्त करनास्वयं को स्वस्थ रखनासामाजिक बुराइयों को दूर करना , देश में सकारात्मक माहौल निर्माण करना व देश के सौन्दर्य-बोध को बढ़ाना विद्यार्थी का मुख्य कर्तव्य है 

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विद्यार्थी को पतन की ओर ले जाती माता पिता की महत्वाकांक्षा....


असफलता एक चुनौती हैइसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गईदेखो और सुधार करो।
जब तक न सफल होनींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किए बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
आज का विद्यार्थी बहुत सहमा और तनाव ग्रस्त है भवितव्यता उसे डराती है वो असमंजस की स्थिति में है की एक और तो उसके माता पिता की उससे आकांक्षाएं है और दूसरी और उसका सीमित बुद्धि कौशल इन दोनों के बीच फंसा विद्यार्थी बहुत अकेला और अपने प्रति हीन भावना से ग्रस्त है ।इन दोनों ही दोषों को दूर करने के लिए विद्यार्थी या तो आत्महत्या कर रहें है या फिर लक्ष्य प्राप्ति का शॉर्टकट अपना रहें है ।ये बड़े दुख का विषय है।
जीवन स्तर बढ्ने के साथ-साथ भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है जिसका दुष्प्रभाव तनाव युक्त जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है। आज के समाज में आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम अभिशाप बन गया ।आजकल अभिभावक भी स्वयं विद्यार्थियों पर पढ़ाई और करियर का अनावश्यक दबाव बनाते है। वे ये समझना ही नहीं चाहते की प्रत्येक विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है और जिसके चलते हर छात्र कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता। बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता है तो वह पारिवारिक एवं सामाजिक उलाहना के भय से आत्महत्या को सुलभ मान लेता है। जिसके बाद वे अपने परिवार और समाज पर प्रश्न चिह्न लगा जाते है। विद्यार्थियों  में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है।
आज खुशहाली के मायने बदल रहे है अभिभावक अपने बच्चे को हर क्षेत्र में अव्वल देखने व सामाजिक दिखावे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे है। एक प्रतिशत के लिए यह मान लिया जाए कि वे विद्यार्थी कुंठा ग्रस्त होते है जिन परिवारों में शिक्षा का अभाव होता है किन्तु वास्तविकता यह है की गरीब विद्यार्थी फिर भी संघर्ष पूर्ण जीवन में मेहनत व हौसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते है किन्तु अकसर धन वैभव से भरे घरों में अधिक तनाव का माहौल होता है और एक दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती है।  साधन सम्पन्न होने के बावजूद युवा पीढ़ी में आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे है।
वास्तव में खुदकुशी कोई मानसिक बीमारी नहीं मानसिक तनाव व दबाव का परिणाम  होता है। असंतोष इसका मुख्य कारण है। कुछ वर्षों से 14 से 17 वर्ष के विद्यार्थी  आत्महत्या को अपना रहे है। परीक्षाओं का दबाव सहपाठियों द्वारा अपमान का भयअध्यापक-गण की लताड़ या व्यंग न बर्दाश्त करने की क्षमता उन्हें इस मार्ग की ओर धकेल रही  है। शहरों की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और पाश्चात्य प्रभाव के कारण  विद्यार्थी समय से पहले ही परिपक्व हो रहे है जिसके फलस्वरूप वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते है और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार आशातीत परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते है। यही नहीं माता पिता की आकांक्षाओं की पूर्ति का दबाव वे अपनी ज़िंदगी पर न सह पाने की वजह और सही निर्णय न लेने की स्थिति में उन्हें यह मार्ग सुगम दिखता है।
आज के संदर्भ में दोष उन अभिभावकों का है जो अपनी विद्यार्थियों की प्रदर्शनी लगाना चाहते है मानो वह भी आज की उपभोगतावादी संस्कृति के चलते एक वस्तु हो और उन्हें जीवन के हर क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाया जा सके यही कारण है की आज परिवार अपने मौलिक स्वरूप से भटक कर एक प्रकार की होड़ में लगे हुए  है। भावनाओं व संवेदनाओं से शून्य होते पारिवारिक रिश्ते कलुषित समाज की रचना कर रहे है। अभिभावक को समझना होगा की विद्यार्थी मशीन या रोबोर्ट नहीं है। विद्यार्थियों को बचपन से अच्छे संस्कार दिये जाने चाहिए ताकि वे अपनी मंजिल खुद चुने किन्तु आत्मविश्वास न खोए। विद्यार्थियों को सहनशीलधैर्यवाननिर्भीकनिर्मलनिश्चल बनना है तो स्वतःअपने स्वभाव परिवर्तित करे। बाल सुलभ मन में चरित्र का प्रभाव पड़ता है। शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है ये मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है। इसके अंतर्गत विद्यार्थियों में पाँचों मानवीय मूल्यों अर्थात सत्यप्रेमधनअहिंसा और शांति का विकास होता है। आज की शिक्षा विद्यार्थियों को कुशल विद्वान एवं कुशल डॉक्टरइंजीनियर या अफसर तो बना देती है परंतु यह वह अच्छा चरित्रवान इंसान बने यह उसके संस्कारों पर निर्भर करता है। एक पक्षी को ऊंची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखो की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता  होती है जो अभिभावक अपने बच्चों को अवश्य दे। सांसारिक शिक्षा उसे जीविका और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी।
बच्चों को भी ध्यान रखना होगा कि ज़िंदगी बहुत कीमती है और वे जिस समाज में रहते है उसके प्रति उनकी भी नैतिक ज़िम्मेदारी है जिसका निर्वहन करना उनका फर्ज है। वे जिस समाज में रहते हैउसका सम्मान करे क्योंकि उस समाज ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और सामाजिक प्राणी होने के नाते आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाए बिना कैसे इस दुनिया से चले जाना चाहते हैसिर्फ इसलिए कि आप चुनौतियों से घबरा गए है। जीवन को चुनौती समझकर दृढ़ता से परीक्षा की तैयारी करे और कठिनाई के समय अपने शिक्षक-अभिभावक को अपना मित्र समझ अपनी परेशानी उन्हें बताए और स्वयं पर हीनता के भाव कदापि न आने दे। आत्मविश्वासी विद्यार्थी ही ऊँचे जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर पाते है 
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1 Oct 2016

गांधी - ईश्वरीय चेतना का एक अवतार

शास्त्र कहते हैं कि जब भी धरती पर अनाचार,अत्याचार,व्यभिचार,शोषण बढ़ता है तथा लोग आसुरी शक्तियों द्वारा सताये व परेशान किये जाते हैजब कभी मनुष्य अपने देवीय गुणों को छोड़ कर आसुरी प्रवृत्ति की और आकर्षित होने लगता है उस समय ईश्वर महानायक के रूप में अवतार लेते हैऔर दुष्टों का संहार कर हम मानवों की रक्षा करते है।  राम और कृष्ण का जीवन उनके कृत्य शिक्षाएं उनके उच्चादर्श आज भी समाज को नयी दिशा और प्रेरणा दे रहे है इन अवतारों के जीवन में कितने विघ्न बाधाएं और  समस्याएं आई रावण और कंस जैसे पराक्रमी दुर्भिक्ष राक्षस आये जिन्होंने पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मचा रखी थी ।लेकिन इन अवतारों ने अपने प्रबल पुरुषार्थ से उन पराक्रमी राक्षसों को जड़-मूल से समाप्त करते हुए एक नये सभ्य और सुसंस्कृत समाज  की स्थापना की 
इसी प्रकार यदि महात्मा गांधी के जीवन उनके आदर्शों और सिद्धांतों को देखते हुए उन्हें ईश्वरीय चेतना का अवतार कहा जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी  देश जब ब्रिटिशरों के आसुरी कृत्यों से दुःख के सागर में डूबा हुआ था उस समय इस महापुरुष ने आशा का एक नया दीप प्रज्वलित किया । इस महात्मा ने सत्य और अहिंसा के द्वारा न केवल समाज को अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र को एक नयी दिशा दी  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जीवन भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व के लिए एक प्रेरक रूप में है। दुष्प्रवृतियों के उन्मूलन के लिए अवतारों के द्वारा एक बड़ी रणभूमि तैयार की जाती रही है भीषण नरसंहार किया जाता है ।लेकिन इस महात्मा ने बिना किसी अस्त्र -शस्त्र और नरसंहार के स्वयं को कष्ट देकर बिना  किसी रणभूमि के ब्रिटिश सत्ता को समाप्त किया वो ब्रिटिशर जिसके लिए कहा जाता था की “इस सत्ता का सूर्य कभी अस्त नहीं होता। आज उनका नाम याद करते हुए गर्व का अनुभव होता है। भले ही महात्मा आज हमारे बीच न होंलेकिन वह सभी के हृदय में बसे हैं। उनके विचार और आदर्श आज हम सबके बीच हैंहमें उनके विचारों को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है। उनका सदा जीवन और मानव मात्र के प्रति संवेदना उन्हें अवतारी महापुरुषों के समकक्ष अनुभव कराती है  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपना जीवन सत्य की व्यापक खोज में समर्पित किया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने करने के लिए अपनी स्वयं की गलतियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग का नाम दिया।
यदि अवतारों के परिप्रेक्ष्य में देखे तो वे धरती पर आते है अपने उद्देश्य को पूरा करते है और फिर किसी न किसी निमित्त के द्वारा अपनी लीलाओं का समवरण करते हुए धरती से विदा लेते है उसी प्रकार महात्मा हमारे बीच आये हमे दुःख और पराधीनता रुपी अन्धकार से मुक्ति दिलाकर स्वयं एक छोटे से निमित्त के द्वारा असीम में समा गये  लेकिन उनके विचारों का प्रकाश आज भी हमारे राष्ट्र को सम्पूर्ण विश्व में प्रकाशित कर रहा है  उनकी शिक्षाएं उनके विचार आज भी प्रासंगिक है आइये ऐसे देवात्मा पुरुष को अपने श्रद्धा रुपी पुष्प चढ़कर नमन करें और निश्चय करें की हम अपने जीवन में उनके आदर्शों को जितना हो सके जीवन में उतारने का प्रयत्न करेंगे ।
एक देव पुरुष को समर्पित श्रद्धा सुमन .............

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18 Sept 2016

विद्यार्थियों के अवसाद का कारण परिवार और समाज


("सच का हौसला" राष्ट्रीय समाचार पत्र  दैनिक वर्तमान अंकुर (नोएडा) में प्रकाशित )
प्राचीन समय के मनीषियों से लेकर वर्तमान समय के दार्शनिकों तक के विचारों को पड़ा जाए तो एक ही निचोड़ सामने आता है , समाज की भावी पीढ़ी (विद्यार्थी) किसी भी देश की मजबूत आधार शिला एवं पूंजी होती है  ।यदि किसी देश को हानि पहुँचानी हो तो वहां की शिक्षा प्रणाली में सेंध लगा दो  जी हाँ मैकाले इस बात को जान गया था और उसने भारत की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में सेंध लगा दी और पश्चिम का विष घोल दिया  प्राचीन काल में  भारत में इतने  प्रखर और तेजस्वी  विद्यार्थी हुए जिनके नाम से आर्यावर्त को भारत नाम दिया गया  ऐसे गौरवशाली देश का विद्यार्थी आज दयनीय स्थिति में है जिसके  जिम्मेदार न केवल माता पिता बल्कि ये समाज भी है। प्राचीन काल में विद्यार्थी असीमित सम्भावनाओं का भण्डार माना जाता था  ध्रुवप्रहलादएकलव्यअर्जुनभरतआर्यभटउपमन्यु जैसे न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे  पडे है।  
ऐसे अप्रतिम देश का विद्यार्थी वर्तमान समय में अपने जीवन को अवसाद,हताशा और निराशा से भरे बैठा है  है जिसे देखकर आश्चर्य होता है 
आज का विद्यार्थी जीवन में जरा सी परेशानी आने पर  बहुत दुखी हो जाता है  महापुरुष कहते है की हम ईश्वर के अंश है अर्थात अपरिमित योग्यताओं का कोष , ईश्वर का अंश होते हुए भी विद्यार्थी  इतने असमर्थ और अवसादग्रस्त क्योंहम परिस्थितियों या परिणामों से इतने भयभीत क्यों है ?
अकसर देखा जाता है परीक्षा परिणाम अपने अनुरूप न मिलने पर विद्यार्थी अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैंमानसिक अवसादग्रस्त हो जाते है  यहाँ तक की आत्म हत्या जैसा घृणित कृत्य कर बैठते है   इन समस्याओं का मूल माता पिता की अत्यधिक अपेक्षाएं  परिवारों का विघटन है  जिसके कारण बच्चे अकेलापन महसूस करते है ,अधिक से अधिक सम्पत्ति की चाह एवं  भारत जैसे धार्मिक देश में पश्चिमी सभ्यता का समावेश है  इस पश्चिमी सभ्यता के अनुकरण का शिकार न केवल बच्चे और युवा वर्ग है अपितु इस अन्धानुकरण में माता पिता और धनाढ्य परिवार के बड़े बुजुर्ग भी पीछे नहीं हैं  कुछ ही लोग हैं जो अच्छे आचरण और मान मर्यादा की राह पर चल रहे हैं तथा नैतिकता कायम रखे हुए हैं  वर्तमान समय  की आपाधापी वाली जीवन शैली और जीवन में बहुत कुछ प्राप्त करने की मृग मरीचिका में मनुष्य फंसा है फलस्वरूप परिवार और बच्चों में संस्कारों के सिंचन के लिए समय ही नहीं है माता पिता दोनों के काम काजी होने की वजह से बच्चे को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने का समय दोनों में से किसी के पास नहीं है  मैकाले की शिक्षा पद्धति से प्रभावित हमारे विद्यालयों में तो छात्रों में नैतिक मूल्यों के विकास के लिए कुछ नहीं है विद्यालयों को तो अपनी मोटी सी विद्यालय शुल्क से मतलब होता है रटा-रटाया ज्ञान देकर वो छात्रों को प्रतिस्पर्धी तो बना पा रहे है लेकिन उनके मानवीय गुणों का विकास करने में असफल है 
अपने आस पास के दूषित वातावरण से कामक्रोधलोभजलनद्वेष तथा दूसरे का निवाला छीनकर खाने की कला बच्चे बस ये ही सीखते हैं रही सही कसर इन दो –दो पैसे में चलने वाले चैनलों और उन पर प्रसारित होने वाले भद्दे विज्ञापनों और गन्दी फिल्मों ने पूरी कर दी है।  ऐसे में आज के बच्चे जो कल का भविष्य हैं संस्कारों के अभाव में अपने जीवन के पतन की और बढ़ रहे है ।परिवार ने इनकी मानसिकता ये बना डाली है की दुनिया में जीवन जीना है तो खूब सारा पैसा और कार कोठी होना ज़रूरी है चाहे उसको पाने के लिए हमें कुछ भी करना पड़े  ऊँचा रहन सहन अच्छे कपड़े अच्छा खाना बस इसी का नाम जीवन है  नैतिक संस्कारों के रूप में बच्चों ऐसी ही शिक्षा दी जाती है  ऐसे में देश कैसे उन्नति कर सकता है।
समय आ गया है की हमें पश्चिम का अन्धानुकरण छोड़ कर अपने बच्चों के लिए  संस्कृति और संस्कारों का मार्ग प्रशस्त कर देना चाहिए।  उन्हें अर्जुन ,एकलव्य, सुदामा, महाराणा प्रताप ,शिवाजी जैसे महान चरित्रों  के विषय में बताना एवं उनसे सम्बन्धित नाटकों का रंगमंच पर अभिनय होना चाहिए  ये केवल माता-पिता का ही कार्य नहीं है अपितु मीडिया और समाज दोनों को ही इसमें सक्रिय भूमिका निभाना चाहिए मीडिया को स्वस्थ एवं मनोरंजक सामग्री समाज में परोसनी चाहिए रामायण , महाभारतचाणक्य जैसे नाटक पुन प्रारम्भ होने चाहिए 
विद्यालयों को अपने देश के महापुरुषों से सम्बन्धित प्रतियोगिताएं आयोजित करनी चाहिए जिससे बच्चे हमारे देश के महापुरुषों के बारे में जान सके  माता-पिता को भी अपने दैनिक चर्या से थोड़ा समय  निकलकर बच्चों के साथ बिताना चाहिए  उनसे बात करनी चाहिए एवं बच्चों की सोच व उनके विचारों को समझने का प्रयास करना चाहिये 
बच्चे अनगढ़ होते है उन्हें सुगढ़ बनाना और समाज व देश के अनुरूप सुंदर आकर प्रदान करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी है 

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15 Sept 2016

युवाओं का मानसिक तनाव राष्ट्र प्रगति में अवरोध


(राष्ट्रीय समाचार पत्र में प्रकाशित, दैनिक वर्तमान अंकुर (नोएडा) से भी प्रकाशित)
कुछ दिन पहले एक नाट्य प्रस्तुति देखने का अवसर मिला  जिसमें एक पात्र दूसरे पात्र से पूछता है की जीवन क्या है तो दुसरे  पात्र ने उत्तर दिया “हमारी सबसे पहली और सबसे अंतिम सांस के बीच का जो समय है वो जीवन है ” जीवन के प्रति उसकी इस संक्षिप्त परिभाषा में जीवन की क्षण भंगुरता दृष्टिगोचर हुई और अनुभव हुआ की ये जीवन जो ईश्वर ने हमें अपनी कृपा के रूप में दिया है ये कितना मूल्यवान है जिसे आज का युवा अनजाने ही थोड़े सी कठिनाइयों और विषाद में या तो समाप्त कर देता है या भटक जाता है 
किसी जमाने में युवा एक आयु वर्ग के ऐसे समृद्ध व्यक्तित्व को कहा जाता था जिसके जीवन का उद्देश्य गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त कर  मानव मूल्यों का सम्वर्धन करते हुए परिवार पालन और समाज निर्माण में भागीदारी लेना होता था  ये जीवन का वो समय होता था जिसमें युवा में एक नया उत्साह एक नयी चेतना हिलोरे मार रही होती थी।
लेकिन वर्तमान समय में परिस्थितियाँ भिन्न है आज का किशोर युवावस्था में कदम रखते ही तनाव और चिंता से ग्रस्त हो जाता है। आज की युवा होती पीढ़ी की आँखों में बड़े और चमकदार सपने होते है लेकिन जरा सी परिस्थितियों की विपरीत चाल से वो सारे  सपने उसी प्रकार ध्वस्त हो जाते है जिस प्रकार ताश के पत्तों का महल 
इस अवस्था में किसी किशोर या किशोरी को उचित अनुचित का भली भांति ज्ञान नहीं हो पाता है और शनै: शनै: यह मानसिक तनाव का कारण बनता है ।आज के युवा को शुरू से ही उच्च शिक्षा प्राप्त करके डॉक्टरइंजीनियर बनकर धनार्जन कर सुख-सुविधा युक्त जीवन निर्वाह करना ही सिखाया जाता है , परंतु जब उनका उद्देश्य उनकी इच्छानुरूप पूर्ण नहीं हो पता है तो उनका मन असंतुष्ट हो उठता है और मानसिक संतुलन गड़बड़ा जाता है साथ ऐसे समय में माता और पिता या दूसरे लोगों द्वारा की गयी टीका टिप्पणी भी उनके विषाद को बड़ा देती है  शिक्षा से प्राप्त उपलब्धियां उन्हें निरर्थक प्रतीत होती हैं।
वर्तमान युग में लड़का हो या लड़कीसभी स्वावलंबी होना चाहते हैंमगर बेरोजगारी की समस्या हर वर्ग के लिए अभिशाप सा बन चुकी है। मध्यम वर्ग के लिए तो यह स्थिति अत्यंत कष्टदायी होती है। जब इस प्रकार की स्थिति हो जाती है तो जीवन में आए तनाव से मुक्ति पाने के लिए वे या तो नशा करते है कुसंगति में पढ़ जाते है या तो आत्महत्या जैसे कदम उठाने को बाध्य हो जाते हैं। महिलाओं की स्थिति तो पुरुषों की तुलना में ज्यादा ही खतरनाक है।
जिस देश की 65 % जनसंख्या युवा हो और जिस युवा पीढ़ी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए बैठा हैउस राष्ट्र के युवा का विषाद या तनावगृस्त होना समाज व राष्ट्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। अब प्रश्न ये है की इस समस्या का समाधान  क्या है ? यदि सच्चे अर्थों में देखा जाये तो युवा वर्ग को ही इसका समाधान निकलना पड़ेगा  एक दृष्टि से देखा जाए तो इन मानसिक तनावों से मुक्ति का सबसे महत्वपूर्ण उपाय युवाओं का अपना विवेक है। इसके लिए दृढ़ संकल्पअथक परिश्रम और  धैर्यकी आवश्यकता होती है। यह जीवन एक साधना है। इसे आप एक नियमित दिनचर्या बनाकरएक उद्देश्य को सामने रख कर जिएं अपने आप को शुभ चिन्तन में व्यस्त रखें।
परेशानियों को हमेशा सबक की तरह लेंप्रकृति आपको सिखाना चाहती है। परीक्षा लेती है। कितने खरे उतरते हो किस  रोल के लिए आपको चुना गया है ये प्रकृति निर्धारित करती है । आप चाहें तो टूटकर बिखर जाएंआप चाहें तो निखर जाएं और अपनी ऊर्जा को सही दिशा देते हुए जीवन लक्ष्य को प्राप्त करें ये दोनों ही आप पर निर्भर करते है ।समस्याएं तो जीवन में आएगी ही आप उन से बच नहीं सकते जितना बचने की कोशिश करेंगे ये उतना ही विशाल रूप धारण कर आप को परेशान करेंगी इसलिए परिस्थितियों से घबराएं नहीं बल्कि पूरी तैयारी के साथ इनका स्वागत और सामना करें ,मन की नकेल सदैव अपने हाथ में रखें  चिंता और डर को अपने पर हावी न होने दें तो निश्चित ही आप अपने जीवन को ढंग से और सुख से जी पाने में समर्थ बन सकेंगे।
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13 Sept 2016

हमारी उपेक्षित हिन्दी भाषा

आज हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर बड़े भारी मन के साथ ये लेख लिख रहा हूँ क्योंकि में जनता हूँ की केवल हिन्दी दिवस के दिन ही हम हिन्दी की बात करेंगे और फिर भूल जायेंगे और हिन्दी भाषा को उसकी ह्रदय विदारक स्थिति में अकेला सुबकता छोड़ देंगे लेकिन क्योंकि में एक हिन्दी अध्यापक हूँ तो मैं तो हिन्दी भाषा के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना आवश्यक मानता हूँ । मैं किसी भाषा का विरोधी नहीं हूँ लेकिन पाठकों को ये अवगत करा देना चाहता हूँ , की एक ऐसी समृद्ध भाषा जिसके पास शब्दों का अकूत भण्डार है वो आज दयनीय स्थिति में आ पहुंची है ।
हिन्दी की दशा और दिशा देख कर बहुत दुःख होता है, आज अंग्रेजी में बात करना लोगों सम्माननीय लगता है। हिन्दी में बात करने वाले को हीन दृष्टि से देखा जाता  हैं। आज कल के माता पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देख कर प्रफुल्लित होते हैं। बड़े शहरों के ज्यादातर युवा अपने आपको आधुनिक दिखाने के लिए हिन्दी ज्ञान न होने या कम होने का दिखावा करके गौरवान्वित महसूस करते हैं।
दुर्भाग्य ये है की वो हिन्दी जिसने हमारी सेवा तब की जब हमें अन्य किसी भाषा का ज्ञान नहीं था ।तब हम केवल हिन्दी शब्दों को ही चबाया करते थे, जिससे हमारी अभिव्यक्ति की पूर्ति हुआ करती थी । लेकिन आज हमने अपनी उसी सहायिका उसी मात्र भाषा को दीन-हीन स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हम ये नहीं कहते की अन्य भाषाएँ न सीखी जायें हम सभी भाषाओं का सम्मान करते है जिस प्रकार से माता किसी की भी हो आदरणीय होती है उसी प्रकार भाषा कोई भी हो सभी सम्माननीय है । लेकिन दूसरे की माता का सम्मान करना और अपनी माता को दुःख पहचाना उसका शोषण करना उसे  लज्जित करना कहां तक उपयुक्त है। हम भारतीय इतने मूर्ख कैसे हुए समझ नहीं आता ? दुःख तो इस बात का है की हमने केवल अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही अपनी उच्च शिक्षा का मापदंड बना दिया है, क्यों ? और ये कार्य समाज के उस सम्भ्रांत वर्ग द्वारा प्रमुख रूप से किया जाता है जो समाज को दिशा देने का कार्य करते है । एक तरफ तो हम हिन्दी दिवस मनाने का ढोंग करते है वहीं दूसरी और हमारी भावी पीढ़ी को हम अंग्रेजी शिक्षा से संस्कारित करते है इतना ही नहीं यदि वो हिन्दी भाषा का उपयोग अपनी साधारण बोलचाल में करने लगे तो विद्यालय उस पर पेनल्टी (दंड शुल्क)लगा देते है । ऐसी परिस्थितियों में हिन्दी का आने वाला भविष्य कैसा होगा ये सोचनीय है ?  कहीं ऐसा ना हो की जिस प्रकार हमने अपनी संस्कृत भाषा की उपेक्षा कर उसे लगभग भुला दिया है एक दिन यही स्थिति हिन्दी भाषा की हो जाए । अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा पद्धति में सेंध लगाई जिसे हम भारतीयों ने बड़े गर्व के साथ स्वीकार किया है और आज भी हम अंग्रेजों की भाषायी दासता स्वीकारे बैठे है ।
इन दिनों यदि आप सरकारी दफ्तरों में जायेंगे तो  वहाँ एक वाक्य आपको देखने को मिलेगा की “हिन्दी में काम करना आसन है शुरुआत तो कीजिये।” और दुर्भाग्य ये है की और दिनों की तो छोड़े इस हिन्दी पखवाड़े में भी आप उसी कार्यालय के अधिकारी से लेकर बाबु तक और चपरासी से लेकर  सफाई कर्मचारी तक की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आसानी से देख सकते है ।
यदि भाषायी दृष्टि से देखा जाये तो आज भी हिन्दी अपने यौवन के सौन्दर्य से, अपने ताल से तेवर से अन्य भाषाओं को पछाड़ने में सक्षम है आज कवियों के नायक के अधरों पर नायिका के सौन्दर्य के रूप में हिन्दी है । लेखकों की लेखनी में, गाँव के गीतों में, चौपालों में केवल हिन्दी है ,बाजारों में मोहल्लों में केवल हिन्दी है । हम अपने  विचारों और भावों की अभिव्यक्ति  हिन्दी भाषा में जितने प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकते है उतना हम अन्य किसी और भाषा में नहीं कर पाते।
हम लोगों द्वारा शोषित हिन्दी आज भी विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का तमगा लगा कर हमें अंतराष्ट्रीय स्तर पर गौरवान्वित कर  रही है । आज भी हिन्दी हमारे देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली और सुनी जाने वाली भाषा है और में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान को साथ में मिला लूँ तो ये आंकड़ा और भी विस्तृत, विशाल हो जाता है, हाँ यदि लिखने और पड़ने के आंकड़े देखें तो ये आंकड़े थोड़ा तकलीफ देह हो जाते है और इस तकलीफ का कारण मैकाले द्वारा भारत की शिक्षा पद्धति में लगाई गयी सेंध है ,जिसका परिणाम हम कॉन्वेंट शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों में देख सकते है  परन्तु फिर भी हिन्दी कान और मुख के द्वारा सम्प्रेषण का सुख दे रही है । सच्चाई तो ये है कि जिस चीज़ पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है वो केवल हिन्दी है जो सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षों के बाद हम न कर पाएँ, क्यों कि अंग्रेज़ी उससे ज़्यादा मात्रा में फैल रही है।
वर्तमान समय में सरकार द्वारा शिक्षा पद्धति में व्यापक सुधार की महती आवश्यकता आ पड़ी है । क्योंकि केवल एक दिन हिन्दी दिवस मना लेने भर से हम  मातृ भाषा के ऋण से उऋण नहीं ही पाएंगे । यदि जल्द ही हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार के क्षेत्र में बड़े निर्णय नहीं लिए गये तो वो दिन दूर नहीं जब हम अपने गौरव से च्युत हो जायेंगे और हम अपनी माँ (राष्ट्र भाषा )को अपने ही सामने दम तोड़ते देखने के लिए मजबूर होंगे।
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11 Sept 2016

हिन्दी का दयनीय वर्तमान

 आज हिंदी दिवस के पावन पर्व पर सभी भारतीयों का ध्यान में आकृष्ट करना चाहता हूँ, हिंदी की वर्तमान दयनीय स्थिति पर वो हिंदी जिसका अनादर हम जाने अनजाने वर्षों से करते चले आ रहे है।
वो हिंदी जिसने हमारी सेवा तब की जब हमें अन्य किसी भाषा का ज्ञान नहीं था ।तब हम केवल हिंदी शब्दों को ही चबाया करते थे, जिससे हमारी अभिव्यक्ति की पूर्ति हुआ करती थी । लेकिन आज हमने अपनी उसी सहायिका उसी मात्र भाषा को दीन-हीन स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हम ये नहीं कहते की अन्य भाषाएँ न सीखी जायें हम सभी भाषाओं का सम्मान करते है जिस प्रकार से माता किसी की भी हो आदरणीय होती है उसी प्रकार भाषा कोई भी हो सभी सम्माननीय है । लेकिन दूसरे की माता का समान करना और अपनी माता को दुःख पहचाना उसका शोषण करना उसे  लज्जित करना कहां तक उपयुक्त है हम भारतीय इतने मूर्ख कैसे हुए समझ नहीं आता दुःख तो इस बात का है की हमने केवल अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही अपनी उच्च शिक्षा का मापदंड बना दिया है,क्यों ? और ये कार्य समाज के उस सम्भ्रांत वर्ग द्वारा प्रमुख रूप से किया  जाता है जो समाज को दिशा देने का कार्य करते है ।
इन दिनों यदि आप सरकारी दफ्तरों में जायेंगे तो  वहाँ एक वाक्य आपको देखने को मिलेगा की “हिंदी में काम करना आसन है शुरुआत तो कीजिये।” और दुर्भाग्य ये है की और दिनों की तो छोड़े इस हिंदी पखवाड़े में भी आप उसी कार्यालय के अधिकारी से लेकर बाबू तक और चपरासी से लेकर  सफाई कर्मचारी तक की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आसानी से देख सकते है ।
मैं धन्यवाद देता हूँ चीन को जापान को  की जब भी इन राष्ट्रों के प्रतिनिधि भारत में आते है तो ये अपने देश की भाषाओं में ही  हमारी सभाओं को संबोधित करते, और हम भारती पिछले कुछ वर्षों से अपने गौरवमयी राष्ट्रीय भाषा का चीर हरण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वयं कराते आये है ।
मैं धन्यवाद देता हूँ भारतवर्ष के वर्तमान प्रधान मंत्री को जो लाल किले की प्राचीर से ही नहीं अपितु यु. एन. ओ. जैसी अंतर्राष्ट्रीय सभा में भी अपने देश की भाषा का प्रयोग करते है; जो हम भारतीयों के लिए बड़े गौरव की बात है ।
यदि भाषायी दृष्टि से देखा जाये तो आज भी हिंदी अपने यौवन के सौन्दर्य से, अपने ताल से तेवर से अन्य भाषाओं को पछाड़ने में सक्षम है आज कवियों के नायक के अधरों पर नायिका के सौन्दर्य के रूप में हिंदी है । लेखकों की लेखनी में, गाँव के गीतों में,चौपालों में केवल हिंदी है ,बाजारों में मोहल्लों में केवल हिंदी है । हिंदी एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके पास  शब्दों का अकूत भंडार है अपने  विचारों और भावों की अभिव्यक्ति हम हिंदी भाषा में जितने प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकते है उतना हम अन्य किसी और भाषा में नहीं कर पाते ।
हम लोगों द्वारा शोषित हिंदी आज भी विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का तमगा लगा कर हमें अंतराष्ट्रीय स्तर पर गौरान्वित कर  रही है आज भी हिंदी हमारे देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली और सुनी जाने वाली भाषा है और में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान को साथ में मिला लू तो ये आंकड़ा और भी विस्तृत, विशाल हो जाता है, हाँ यदि लिखने और पड़ने के आंकड़े देखें तो ये आंकड़े थोडा तकलीफ देह हो जाते है और इस तकलीफ का कारण मैकाले द्वारा भारत की शिक्षा पद्धति में लगाई गयी सेंध है ,जिसका परिणाम हम कान्वेंट शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों में देख सकते है  परन्तु फिर भी हिंदी कान और मुख के द्वारा सम्प्रेष्ण का सुख दे रही है ।
सच्चाई तो ये है कि जिस चीज़ पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है वो केवल हिंदी है जो सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षों के बाद हम न कर पाएँ, क्यों कि अंग्रेज़ी उससे ज़्यादा मात्रा में फैल रही है।
वर्तमान समय में सरकार द्वारा शिक्षा पद्धति में व्यापक सुधार की महती आवश्यकता आ पड़ी है ।  क्योंकि  केवल एक दिन हिंदी दिवस मना लेने भर से हम  मातृभाषा के ऋण से उऋण नहीं ही पाएंगे । यदि जल्द ही हिंदी भाषा के विकास और प्रचार के क्षेत्र में बड़े निर्णय नहीं लिए गये तो वो दिन दूर नहीं जब हम अपने गौरव से च्युत हो जायेंगे और हम अपनी माँ (राष्ट्र भाषा )को अपने ही सामने दम तोड़ते देखने के लिए मजबूर होंगे।
लिए मजबूर होंगे।
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असहिष्णुता (हास्य व्यंग)

एक सेठ जी का बहुत पुराना बढ़ा सा  होटल था। सेठ जी बचा हुआ खाना यहाँ वहां फेंक देते थे । जिससे शहर में बहुत गंदगी का माहौल हो जाता था । लेकिन कुत्तों के लिए ये बड़ा अच्छा था उनकी तो मौज हो गयी थी रोज बोटियाँ-रोटियाँ खाने को मिल रही थी कुत्ते खुश रहते थे और और होटल के प्रति वफादार भी ,होटल की तरफ कोई टेड़ी निगाह करके देख ले तो उसे काटने को दौड़ते थे ।

लेकिन एक दिन एक नया अधिकारी शहर में आया और उसमें शहर को गंदगी से मुक्त करने के लिए जन जागृति पैदा की और सारे सरकारी कार्य न केवल ईमानदारी से करना शुरू कर किया बल्कि आवारा कुत्तों को भी पिंजरे में डालना प्रारम्भ किया ।

परिणामस्वरूप कुत्तों के मुंह से बोटी और रोटी छिनने लगी और बचा हुआ खाना व्यवस्थित रूप से गरीबों में बंटने लगा । परिणाम यह हुआ की कुत्तों ने भौंकना शुरू कर दिया और इस प्रकार समाज में असहिष्णुता

श्री कृष्ण एक आदर्श प्रेमी


आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी के इस पावन  पर्व पर हम चर्चा करेंगे कृष्ण के एक आदर्श प्रेमी के रूप की एक ऐसा रूप जहां कोई वासना या इन्द्रिय लिप्सा की तृप्ति  नहीं बल्कि जीव और बृह्म का मेल और विशुद्ध प्रेम है । प्रेम शब्दों से परे एक अनुभव है ये गूंगे के गुड के समान है निश्छल निष्कपट प्रेम के समक्ष प्रेमी निःशब्द होकर रह जाता है । सच्चे प्रेम के सामने तो ईश्वर भी भक्त के सामने हाथ बांधकर खड़े रह जाते है  । वास्तविक प्रेम में प्रेमी कुछ माँगता  नहीं है बल्कि अपने प्रेमी को कुछ देना चाहता है  । प्रेम कहते है अपने प्रेमी के प्रति निष्ठा और विश्वास को , प्रेम कहते है उस अनुभूति को जो आप को बिना किसी डोर के आपके प्रेमी से जीवन भर के जोड़ती है , प्रेम कहते प्रेमी और प्रेमिका के एक दुसरे के प्रति सहर्ष समर्पण को  । लेकिन वर्तमान समय में प्रेम की परिभाषा इतनी विकृत हो चली है उसे देखकर मन में बड़ी पीड़ा होती है  । प्रेम के नाम पर आज का युवा वो सब कुकृत्य करने लगा है जिस से प्रेम या प्रेमी का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध क्योंकि आज के युवा द्वारा प्रेम को केवल भोग विलास का एक माध्यम मान लिया गया है, जबकि प्रेम और प्रेमी का अर्थ भोग वासना न होकर एक दूसरे के जीवन और चरित्र को श्रेष्ठता की और ले जाना है । कई पुराणों में उल्लेख आता है की श्री कृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियाँ एवं आठ पटरानियाँ  थी ।  ये तथ्य युवाओं को बहुत प्रिय कर लगता है उन्हें लगता है जब भगवान इतनी सारी रख सकते है तो हम ने दो या तीन रख ली तो क्या हो गया गाहे-बगाहे ऐसी बातें हमें सुनने को मिल भी जाती है  । लेकिन ये सत्य से परे की बात है ।  सत्य ये है की कृष्ण अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति के लिए जब ऋषि मुनियों ने सैकड़ों वर्षों  तक तपस्या की तो भगवान प्रकट हुए और उनसे वर मांगने के लिए कहा ऋषि जो की भगवान की माया से मुक्त हो चुके थे उन्हें संसार की और साधन की लालसा  नहीं थी इसलिए उन्होंने वर मांगने से मना कर दिया क्योंकि उनकी तपस्या का उद्देश्य लौकिक सुख प्राप्त करना  नहीं था लेकिन भगवान के बार-बार कहने पर  सभी ऋषियों ने ये वर माँगा की है सच्चिदानंद अगर आप सच में हमारी तपस्या से प्रसन्न है तो कुछ ऐसा वर दे दो की हम सब आपके साथ नाचे गायें आपके प्रेम स्नेह को प्राप्त कर  सकें और आपको अपने इच्छानुसार अपनी उँगलियों पर नचा सकें  । ये बात सुनकर भगवान कुछ आश्चर्य में पढ़ गये लकिन भगवान तो भक्त के वश में होते है अतःभगवान ने ऋषियों से कहा की आप सब का जन्म वृन्दावन नामक स्थान पर सुंदर गोपियों के रूप में होगा और उस समय में धरती पर कृष्ण के रूप में अवतरित होकर आऊंगा तब तुम सब भी गोपियों के रूप में मेरे साथ रासलीला कर मेरे विशुद्ध प्रेम का पान कर लेना तो वास्तव में सौलह हजार एक सौ रानियाँ केवल स्त्री  नहीं थी । बल्कि स्त्री के रूप में तपस्वी ऋषि ही थे जिनके साथ भगवान ने रास रचाकर उन्हे अध्यात्म के अंतिम सोपान के बाद मुक्त कर दिया । भगवान की उस रास लीला का वर्णन अलग-अलग पुराणों में भिन्न भिन्न रूप में व्यक्त हुआ है कई विद्वान उसे युगों से बिछडे जीव और बृह्म का मिलन मानते है कोई अपने भक्तों के प्रेम से अभिभूत भगवान की लीला मानते है लेकिन सच्चे अर्थों में ये प्रेम का सर्वोत्तम एवं सर्वोत्कृष्ट रूप है  
इस तथ्य को जाने बिना युवा-वर्ग मनमाने अर्थ निकलकर प्रेम के नाम पर व्यभिचार और चारित्रिक पतन को बढ़ावा दे रहा है  । अतः ये जन्माष्टमी आज के युवाओं को ये सन्देश देती के की अपने प्रेम के आकार को केवल अपने प्रेमी के रूप सौंदर्य आकर तक ही सीमित न रखें   । बल्कि उसके अंदर छुपी ईश्वरीय चेतना को जागृत करें और पूर्ण समर्पण के साथ उसके और अपने चारित्रिक मूल्यों का सम्वर्धन करें  ।जय श्री कृष्णा 

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शिक्षकों को समर्पित .... एक अज्ञात रचना



शिक्षक-दिवस मनाने आये हम सब लोग यहाँ पर हैं।
एक गुरु की आवश्यकता पड़ती हमें निरन्तर है ।
हमनें जो भी सीखा अपने गुरुओं से ही सीखा है।
ज्ञान गुरू का अन्धकार में जैसे सूर्य सरीखा है।
कदम-कदम पर ठोकर खाते शिक्षा अगर नहीं होती।
खुद को रस्तों पर भटकाते शिक्षा अगर नहीं होती।
शिक्षा ये बेमानी होती शिक्षक अगर नहीं होते।
बस केवल नादानी होती शिक्षक अगर नहीं होते।
आगे बढने का पथ हमको शिक्षक ही दिखलाते हैं।
सही गलत का निर्णय करना शिक्षक ही सिखलाते हैं।
शिक्षक क्या होते हैं सबको आज बताने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षक-गण का आभार जताने आया हूँ।
अगर वशिष्ठ नहीं होते तो शायद राम नहीं होते।
सन्दीपन शिक्षा ना देते तो घनश्याम नहीं होते।
द्रोणाचार्य बिना कोई अर्जुन कैसे बन सकता है।
रमाकान्त आचरेकर बिन सचिन कैसे बन सकता है।
परमहंस ने हमें विवेकानन्द सरीखा शिष्य दिया।
गोखले ने गाँधी जैसा उज्जवल एक भविष्य दिया।
चन्द्रगुप्त चाणक्य के बल पर वैसा शासक बन पाया।
देशप्रेम आज़ाद ने हमको कपिलदेव से मिलवाया।
भीमसेन जोशी के सुर या बिस्मिल्ला की शहनाई।
गुरुओं की शिक्षा ने ही तो इनको शोहरत दिलवाई।
शुक्राचार्य, वृहस्पति हैं ये इन्हें मनाने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षकगण का आभार जताने आया हूँ।
जनम लिया जब सबने माँ को खुद का प्रथम गुरु पाया।
उठना, चलना, खाना-पीना माँ ने ही तो समझाया।
माँ की जगह पिता ने ले ली जैसे-जैसे उम्र बढ़ी। 
घर, बाहर कैसे जीना है बात पिता ने हमसे कही।
फिर हम विद्यालय में आये अक्षर ज्ञान हुआ हमको।
भाषा और कई विषयों का ज्ञान प्रदान हुआ हमको।
गुरू ने हमको शिक्षा दी संयम की, अनुशासन की।
गुण-अवगुण की, सही-गलत की, देशप्रेम और शासन की।
लेकिन हम सब शिक्षा पाकर भूल गुरू को जाते हैं।
केवल पाँच सितम्बर को ही याद गुरू क्यों आते हैं।
मैं सबको अपने गुरुओं की याद दिलाने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षकगण का आभार जताने आया हूँ।
शिक्षा अगर सही मिलती तो भ्रष्टाचार नहीं होता।
नेताओं, अधिकारीगण का ये व्यवहार नहीं होता।
भ्रूण के अन्दर कोई कन्या मारी कभी नहीं जाती।
जलती हालत में मुर्दाघर नारी कभी नहीं जाती।
आतंकी नहीं होते ये दंगे कभी नहीं होते।
लोकतन्त्र के खम्भे यूं बेढंगे कभी नहीं होते।
लूटमार, हत्या, बेइमानी चारों ओर नहीं होती।
भारत माता चुपके-चुपके ऐसे कभी नहीं रोती।
देश समस्याग्रस्त अगर है इसका हल भी शिक्षा है।
शिक्षण एक चुनौती है अब शिक्षण एक परीक्षा है।
शिक्षक ही है राष्ट्रविधाता ये समझाने आया हूँ।
मैं सारे शिक्षकगण का आभार जताने आया हूँ।;
अज्ञात 

31 May 2016

गुरुदेव ”रविन्द्रनाथ टैगोर ”(जन्म जयंती विशेष )


आज का भारतीय युवा पाश्चात्य के पीछे प्रभावित होकर अपने देश के साहित्य और उन महा पुरुषों के ज्ञान को विस्मृत करता जा रहा है जिन महापुरुषों ने अपने साहित्य के द्वारा देश को जागृत ही नहीं किया अपितु एक नई दिशा की और अग्रसर भी किया। जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज को ताप दिया था जागृति प्रदान की थी वो श्रेष्ठ साहित्यकार और कवि थे रविन्द्र नाथ टैगोर जिन्हें हम “गुरुदेव” के नाम से भी जानते है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। वह अपने माँ-बाप की तेरह जीवित संतानों में सबसे छोटे थे। जब वे छोटे थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया और चूँकि उनके पिता अकसर यात्रा पर ही रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन नौकरों-चाकरों द्वारा ही किया गया। रविंद्रनाथ टैगोर एक विश्वविख्यात कविसाहित्यकार और दार्शनिक थे। वे अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे। वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं – भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बाँग्ला। गुरुदेव के नाम से भी प्रसिद्ध रविंद्रनाथ टैगोर ने बांग्ला साहित्य और संगीत को एक नई दिशा दी।
रविंद्रनाथ टैगोर ने भारतीय सभ्यता की अच्छाइयों को पश्चिम में और वहां की अच्छाइयों को यहाँ पर लाने में प्रभावशाली भूमिका निभाई। उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की जब वे मात्र 8 साल के थे तब उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी थी। 16 साल की उम्र में ‘भानुसिम्हा’ उपनाम से उनकी कविताएं प्रकाशित भी हो गयीं। जलियावाला बाग़ कांड के बाद उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दिए गए नाइटहुड का त्याग कर दिया।
अपने उपनयन संस्कार के बाद रविंद्रनाथ अपने पिता के साथ कई महीनों के भारत भ्रमण पर निकल गए। उनके पिता
 देबेन्द्रनाथ उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे पर कुछ समय बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और शेक्सपियर और कुछ दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं का स्व-अध्ययन किया। सन 1880 में बिना लॉ की डिग्री के वह बंगाल वापस लौट आये। वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ।
वर्ष 1901 में रविंद्रनाथ शान्तिनिकेतन चले गए। वह यहाँ एक आश्रम स्थापित करना चाहते थे। यहाँ पर उन्होंने एक स्कूलपुस्तकालय और पूजा स्थल का निर्माण किया। उन्होंने यहाँ पर बहुत सारे पेड़ लगाये और एक सुन्दर बगीचा भी बनाया। यहीं पर उनकी पत्नी और दो बच्चों की मौत भी हुई। उनके पिता भी सन 1905 में चल बसे। इस समय तक उनको अपनी विरासत से मिली संपत्ति से मासिक आमदनी भी होने लगी थी। कुछ आमदनी उनके साहित्य की रायल्टी से भी होने लगी थी।
14 नवम्बर 1913 को रविंद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था स्वीडिश अकैडमी ने उनके कुछ कार्यों के अनुवाद और ‘गीतांजलि’ के आधार पर उन्हें ये पुरस्कार देने का निर्णय लिया था।
अपने जीवन के अंतिम दशक में टैगोर सामाजिक तौर पर बहुत सक्रिय रहे। इस दौरान उन्होंने लगभग 15 गद्य और पद्य कोष लिखे। उन्होंने इस दौरान लिखे गए साहित्य के माध्यम से मानव जीवन के कई पहलुओं को छूआ। इस दौरान उन्होंने विज्ञान से सम्बंधित लेख भी लिखे।
उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 4 साल पीड़ा और बीमारी में बिताये। वर्ष 1937 के अंत में वो अचेत हो गए और बहुत समय तक इसी अवस्था में रहे। लगभग तीन साल बाद एक बार फिर ऐसा ही हुआ। इस दौरान वह जब कभी भी ठीक होते तो कविताएं लिखते। इस दौरान लिखी गयीं कविताएं उनकी बेहतरीन कविताओं में से एक हैं। लम्बी बीमारी के बाद 7 अगस्त 1941 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
आज भी उनका व्यक्तित्व समूचे राष्ट्र के लिए आदर्श है ।आज उनके जन्म दिवस पर समूचा साहित्यिक समाज ही नही अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र उन्हें नमन करता है ।
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