31 May 2016

गुरुदेव ”रविन्द्रनाथ टैगोर ”(जन्म जयंती विशेष )


आज का भारतीय युवा पाश्चात्य के पीछे प्रभावित होकर अपने देश के साहित्य और उन महा पुरुषों के ज्ञान को विस्मृत करता जा रहा है जिन महापुरुषों ने अपने साहित्य के द्वारा देश को जागृत ही नहीं किया अपितु एक नई दिशा की और अग्रसर भी किया। जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज को ताप दिया था जागृति प्रदान की थी वो श्रेष्ठ साहित्यकार और कवि थे रविन्द्र नाथ टैगोर जिन्हें हम “गुरुदेव” के नाम से भी जानते है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। वह अपने माँ-बाप की तेरह जीवित संतानों में सबसे छोटे थे। जब वे छोटे थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया और चूँकि उनके पिता अकसर यात्रा पर ही रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन नौकरों-चाकरों द्वारा ही किया गया। रविंद्रनाथ टैगोर एक विश्वविख्यात कविसाहित्यकार और दार्शनिक थे। वे अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे। वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं – भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बाँग्ला। गुरुदेव के नाम से भी प्रसिद्ध रविंद्रनाथ टैगोर ने बांग्ला साहित्य और संगीत को एक नई दिशा दी।
रविंद्रनाथ टैगोर ने भारतीय सभ्यता की अच्छाइयों को पश्चिम में और वहां की अच्छाइयों को यहाँ पर लाने में प्रभावशाली भूमिका निभाई। उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की जब वे मात्र 8 साल के थे तब उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी थी। 16 साल की उम्र में ‘भानुसिम्हा’ उपनाम से उनकी कविताएं प्रकाशित भी हो गयीं। जलियावाला बाग़ कांड के बाद उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दिए गए नाइटहुड का त्याग कर दिया।
अपने उपनयन संस्कार के बाद रविंद्रनाथ अपने पिता के साथ कई महीनों के भारत भ्रमण पर निकल गए। उनके पिता
 देबेन्द्रनाथ उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे पर कुछ समय बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और शेक्सपियर और कुछ दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं का स्व-अध्ययन किया। सन 1880 में बिना लॉ की डिग्री के वह बंगाल वापस लौट आये। वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ।
वर्ष 1901 में रविंद्रनाथ शान्तिनिकेतन चले गए। वह यहाँ एक आश्रम स्थापित करना चाहते थे। यहाँ पर उन्होंने एक स्कूलपुस्तकालय और पूजा स्थल का निर्माण किया। उन्होंने यहाँ पर बहुत सारे पेड़ लगाये और एक सुन्दर बगीचा भी बनाया। यहीं पर उनकी पत्नी और दो बच्चों की मौत भी हुई। उनके पिता भी सन 1905 में चल बसे। इस समय तक उनको अपनी विरासत से मिली संपत्ति से मासिक आमदनी भी होने लगी थी। कुछ आमदनी उनके साहित्य की रायल्टी से भी होने लगी थी।
14 नवम्बर 1913 को रविंद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार देने वाली संस्था स्वीडिश अकैडमी ने उनके कुछ कार्यों के अनुवाद और ‘गीतांजलि’ के आधार पर उन्हें ये पुरस्कार देने का निर्णय लिया था।
अपने जीवन के अंतिम दशक में टैगोर सामाजिक तौर पर बहुत सक्रिय रहे। इस दौरान उन्होंने लगभग 15 गद्य और पद्य कोष लिखे। उन्होंने इस दौरान लिखे गए साहित्य के माध्यम से मानव जीवन के कई पहलुओं को छूआ। इस दौरान उन्होंने विज्ञान से सम्बंधित लेख भी लिखे।
उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 4 साल पीड़ा और बीमारी में बिताये। वर्ष 1937 के अंत में वो अचेत हो गए और बहुत समय तक इसी अवस्था में रहे। लगभग तीन साल बाद एक बार फिर ऐसा ही हुआ। इस दौरान वह जब कभी भी ठीक होते तो कविताएं लिखते। इस दौरान लिखी गयीं कविताएं उनकी बेहतरीन कविताओं में से एक हैं। लम्बी बीमारी के बाद 7 अगस्त 1941 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
आज भी उनका व्यक्तित्व समूचे राष्ट्र के लिए आदर्श है ।आज उनके जन्म दिवस पर समूचा साहित्यिक समाज ही नही अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र उन्हें नमन करता है ।
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26 May 2016

माता-पिता बच्चों को परिणामों के भय से बचाएं और उनके मार्गदर्शक बने


विद्यार्थियों के जीवन में सबसे बड़ी भूमिका में होते है मात-पिता, ये उनकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों को नकारात्मक विचारों से बचाएं और अपने स्नेह एवं मार्गदर्शन से उनमें आत्मविश्वास का दीपक प्रज्वलित करें  ।उन्हें आश्वस्त करें कि अगर वे अपनी इच्छानुसार सफलता नहीं भी प्राप्त कर पाए या पूरी तरह असफल हो गये तब भी उनके पास अपनी योग्यता सिद्ध करने के कई अवसर आने वाले समय में उपलब्ध होंगे उन्हें विश्वास दिलाएं कि एक असफलता हमारा जीवण समाप्त नहीं करती बल्कि जीवन जीने के और भी नए व अच्छे रास्ते खोल देती है ।
परीक्षाओं का परिणाम निकलने का मौसम है और इन दिनों ज्यादातर विद्यार्थी सफलता और असफलता  या इच्छानुरूप अंक प्राप्त होंगे या नहीं होंगे इसी प्रकार के विचारों के बीच अपनी आशा रुपी नौका में गोते खा रहे होंगे । ऐसे समय में आवश्यकता है कि माता-पिता अपने बच्चों को नकारात्मक विचारों से बचाएं और अपने स्नेह एवं मार्गदर्शन से उनमें आत्मविश्वास का दीपक प्रज्वलित करें और उन्हें आश्वस्त करें की अगर वे अपनी इच्छानुसार सफलता नहीं भी प्राप्त कर पाए या पूरी तरह असफल हो गये तब भी उनके पास अपनी योग्यता सिद्ध करने के कई अवसर आने वाले समय में उपलब्ध होंगे उन्हें विश्वास दिलाएं की एक असफलता हमारा जीवन समाप्त नहीं करती बल्कि जीवन जीने के और भी कई सारे नए व अच्छे रास्ते खोल देती है ।
ऐसे समय में माता-पिता का ये कर्तव्य हो जाता है की वो अपने युवा हो रहे बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार करें उनकी चेष्टाओं को समझने का प्रयत्न करें उनके मित्र बने ।  आज के माता-पिता की ये शिकायत होती है की बच्चा उनकी नहीं सुनता अपनी मनमानी करता है ये आज की पीढ़ी की प्रमुख समस्या है ,युवा हो रहे बच्चे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते  है ।
यदि आप चाहते है कि आपके बच्चे आप के अनुसार अपने जीवन को एक सांचे में ढाले और जीवन को श्रेष्ठ मार्ग पर लेकर जाए तो उसके लिए ये आवश्यक हो जाता है की आप उन्हें वो सब करने दें जो वो चाहते है ,जी हाँ शायद आप को ये शब्द आश्चर्य में डाल दे परन्तु ये सत्य है आप जिन चीज़ों के लिए उन्हें रोकेंगे उनका मन उसी चीज़ की और अकारण ही आकर्षित होगा ।चाहे तो ये प्रयोग माता-पिता स्वयं अपने साथ करके देख सकते है। लेकिन हाँ इसका मतलब ये भी नहीं है कि बच्चे को हानि होती रहे और आप देखते रहें ।
 इसका एक सीधा सरल सा उपाय ये है की आप उन्हें कार्य करने से रोके नहीं बल्कि उससे होने वाली हानियों से उन्हें अवगत करायें । उन्हें समझाएं की ये करने से तुम्हें ये हानि होगी और नहीं करने से ये लाभ, और उसके द्वारा की गयी गलती के लिए उसे कोसते ना रहे बल्कि उसे आने वाले अवसरों के लिए सचेत करें ।
इस प्रयोग से दो लाभ है पहला तो ये की बच्चे को आपकी सोच पर विश्वास बड़ेगा और बच्चा भावनात्मक रूप से आप से और अधिक जुड़ जाएगा की जो बात आपने उसे बताई थी वो सही थी यदि वो आपकी बात मान लेता तो उसे लाभ होता दूसरा लाभ ये होगा की बच्चे को काम करके जो अच्छा या बुरा अनुभव हुआ है वो उसे सदैव याद रखेगा अच्छे लाभ उसकी योग्यता प्रदर्शित करेंगे उसके आत्मविश्वास को बढ़ायेंगे और बुरे अनुभव उसको कुछ सिखाकर जायेंगे । युवा हो रहे बच्चों के आप मार्गदर्शक बनिए न की उन पर हुक्म चलाने वाले तानाशाह नहीं क्योंकि बच्चे के मनोभाव कोमल होते है माता पिता की डांट- फटकार और कड़वी बातें बच्चे को मानसिक हानि पहुंचती है ।माता-पिता को इससे बचना चाहिए । लेकिन आज के माता-पिता यहीं चुक जाते है बच्चे के परसेंट उनकी आकांक्षा के अनुरूप नहीं हुए या बच्चा असफल हो गया तो बस घर का माहौल ही बिगड़ जाता है याद रहे डॉक्टर हमेशा रोग पर प्रहार करता है रोगी पर नहीं ।  
यदि बच्चा समझाने पर भी आपकी बात नहीं मान रहा है तो इसके दोषी बच्चे नही बल्कि आप स्वयं है यदि आपने शुरू से उन्हें अनावश्यक छूट न दी होती और उसमें संस्कारों का सिंचन किया होता तो आज ये परिस्थितियाँ नहीं होती अपनी कमी का ठीकरा हमें बच्चों पर नही फोड़ना चाहिए । आज हम सभी अपने बच्चों को डॉक्टरइंजीनियरसाइंटिस्टसी.ए.और न जानेक्या-क्या तो बनाना चाहते हैंपर उन्हें चरित्रवानसंस्कारवान बनाना भूल जाते हैं। यदि इस ओर ध्यान दिया जाएतो विकृत सोच वाली अन्य समस्याओं से आसानी से बचा जा सकेगा।
आज के बच्चे अधिक रूखे स्वभाव के हो गए हैं। वह किसी से घुलते-मिलते नहीं। इन्टरनेट के बढ़ते प्रयोग के इस युग में रोजमर्रा की जिंदगी में आमने-सामने के लोगों से रिश्ते जोड़ने की अहमियत कम हो गई है। बच्चा माता-पिता के पास बैठने की जगह कंप्यूटर पर गेम खेलना अधिक पसंद करता है । इसके लिए आवश्यक है की बच्चे के साथ भावनात्मक स्तर पर जुडें उसे पर्याप्त समय दें उसकी बात भी सुने और उपयुक्त सलाह दें उसकी छोटी-छोटी उपलब्धियों के लिए उसे सराहें तो निश्चित रूप से बच्चा आप को भी समय देगा और आपकी बात सुनेगा और समझेगा ।


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भावनाओं में घुला हुआ विष और अमृत्

 इस लेख का प्रारम्भ तुलसी बाबा की एक चौपाई से करता हूँ… “जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तेसी” इस चौपाई का सार सीधे शब्दों में ये है की मनुष्य जैसा सोचता है वैसी ही सृष्टि का निर्माण वो अपने आस-पास करने लगता है। संसार में अनेक प्रकार के जीव पाए जाते है,जिनमें मानव जीवन  को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करने वाली एक विशिष्ट योग्यता भगवान् ने उसे दी है और वो है “मस्तिष्क” जहाँ विचारकल्पनाएँइच्छाएँ और भावनाएँ बसती है। विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही इस तथ्य को मानते है की व्यक्ति के शरीर के इर्द-गिर्द एक प्रकार की औरा (शरीर के आस-पास बनी हुई अदृश्य आभा) होती है। जिसका निर्माण एवं प्रभाव उस व्यक्ति की विचारधारा पर आधारित होता है। आप में से ऐसे कई लोग होंगे जो ऐसे कई लोगों के सम्पर्क में आये होंगे जिन्हें देखकर या जिनके नजदीक जाकर हमें बड़े आनंद और हर्ष की अनुभूति होती है ।वहीं कुछ ऐसे लोग भी होते है जिनके संपर्क में आते ही एक प्रकार की हताशा,चिंता मन में उत्पन्न होने लगती है ।जब हम किसी श्रेष्ठ और सच्चे साधु या संत का दर्शन करते है तो एक प्रकार का आनंद और शांति हमारे अंदर हिलोरे लेने लगता है एक आत्मिक शांति का अनुभव होने लगता है और बार-बार उस व्यक्ति से मिलने और उसके साथ की इच्छा होती है ।
तो ये क्या है ? ये है उस व्यक्ति की औरा (शरीर के आस-पास बनी हुई अदृश्य आभा) वो औरा जो उसके विचारों के  परिणामस्वरूप उसके इर्द-गिर्द बन जाती है फिर उस व्यक्ति को कुछ नहीं करना पड़ता बल्कि उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति अपने आप उस से प्रभावित हो रहे होते है । इसके विपरीत अशांत और दुखी व्यक्ति की औरा कमजोर होती है और उसके सम्पर्क में आने वाले को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है ।
एक कहानी मुझे याद आती है ये कहानी कितनी सच है कितनी काल्पनिक पता नहीं लेकिन इसमें सीखने जैसा बहुत है कहानी कुछ ऐसी है की एक व्यक्ति यात्रा करता हुआ एक जंगल से गुजर रहा था थकान के कारण वो एक पेड़ के नीचे जाकर आराम करने लगा अचानक उस शीतल वृक्ष की छाँव में उसे आराम मिला और वो सोचने लगा की इस वृक्ष की छाँव कितनी शीतल है अगर सोने के लिए एक आरामदेह शय्या (पलंग) मिल जाता तो कितना आनन्द  होता उसमें इतना सोचा ही था की उसकी सोच के अनुसार ही एक सुंदर सी शय्या (पलंग )उसके सामने प्रकट हो गया आदमी उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उस पर लेट गया थोड़ी देर में उसे भूख लगी उसने सोचा की यदि कहीं से स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था हो जाती तो भूख भी शांत हो जाती और अच्छी नींद भी आ जाती ।उसने ये सोचा ही था की इतने में स्वादिष्ट पकवानों से भरा एक स्वर्ण थाल उसके सामने प्रकट हो गया उस व्यक्ति ने भर पेट भोजन किया अब तो उस व्यक्ति के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा उसे डर लगने लगा की वो जैसा सोच रहा है वैसा ही होता जा रहा है ये क्या जादू है उसके मन में अनेकानेक विचार आने लगे की कहीं ये किसी भूत की माया तो नहीं है कहीं वो भूत उसे खा न जायेगा। उसने ये सोचा ही था की इतने में एक विशाल दैत्य वहां प्रकट हुआ और उस व्यक्ति को खा गया ।
कहानी कार आगे कहता है की ऐसा उस व्यक्ति के साथ इसलिए हो रहा था क्योंकि वह व्यक्ति कल्पवृक्ष (मन चाहा वरदान देने वाला वृक्ष) के नीचे बैठा हुआ था। वो जो सोचता उसे वो वस्तु प्राप्त होती जाती थी। लेकिन जब उसकी भावनाएं उसकी सोच बिगड़ी तो वो उसकी मृत्यु का कारण बन गयी । मस्तिष्क और मस्तिष्क में उठने वाले विचार ही हमारे निर्माण और ध्वंस का कारण होते है। रेलगाड़ी में जो महत्व इंजन का हैवही महत्व मानव-शरीर में मस्तिष्क का है। जिस प्रकार से रेलगाड़ी एक निश्चित गति से सही दिशा की और बड़े तो यात्री को उसके निर्धारित गंतव्य तक पहुंचा देती है ।उसी प्रकार यदि मानव का मस्तिष्क और विचार रूपी इंजन सही दिशा की और गति करे तो मानव को जीवन लक्ष्य की प्राप्ति करा देता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है सही दिशा और सही गति एवं मार्ग ।
आज की परिस्थितियाँ ये हो गयी है की मानव मन में असीमित लोभ,द्वेष और ईर्ष्या बस गयी है । जिसने उसकी सोच पर नकारात्मक प्रभाव डाला है व्यक्ति में स्वार्थ और लोलुपता इतनी है की वो अपने लाभ के लिए किसी को भी किसी भी प्रकार की हानि पहुंचाने से नहीं हिचकिचाता । अतः आवश्यक है कि में अपने मस्तिष्क को प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करने योग्य बनाएं एवं उसे उच्च प्रयोजनों में लगायें । तभी एक सुंदर स्वस्थ समाज की कल्पना कर पाना संभव होगा ।


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10 May 2016

शहीद दिवस...... विशेष लेख

एक राष्ट्र की धरोहर होता है “युवा” युवाओं के मजबूत कंधो पर ही राष्ट्र की प्रगति की आधार शिला रखी जाती है। वो युवा जो अपनी धारदार सोच और प्रगतिशील विचारों से किसी भी देश को गरिमामय स्थान दिलाता है  युवा काल युवावस्था का नाम नहीं है अपितु इसका सम्बन्ध  तो विचारों के युवापन से है युवा वो जिसमें गति हो जिसमें प्रवाह हो जिसमें चेतना हो जिस  व्यक्ति में ये गुण हो वो हर व्यक्ति युवा है ।भारत वर्ष के गौरवमय अतीत में ऐसे कई युवाओं का नाम आता है,जिन्होंने अपने ज्वलंत और निडर विचारों से समाज को सन्देश दिया और न केवल सन्देश दिया बल्कि आवश्यकता आने पर इतिहास के पन्नों को अपने बलिदान से सुर्ख कर दिया युवाओं की इस भीड़ में मुझे याद आते है ‘भगत सिंह'
 वो भगत सिंह जिसके ज़हन में प्रारम्भिक काल से ही देश को अंग्रेजी दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने की आकांक्षा हिलोरे लेती थी । भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था  अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियाँवाला बाग हत्या काण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी।।
चौबीस वर्ष की उम्र में पहुंचा युवक जहाँ आमतौर पर यौवन की नैसर्गिक मांग पर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर स्त्री-सहवास एवं घर बसाने की इच्छा रखता है,  वहाँ भगतसिंह जैसे युवक ने इस उम्र में पहुंच कर देश की आजादी के लिए फांसी के फन्दे को अपनी नियति बना लिया। इसके लिए वे निस्संदेह हम सब को दृष्टि में आदर एवं अभिनंदन के पात्र हैं। ना केवल शहीड़-ए-आजम अभिनन्दन के पात्र है बल्कि ये प्राणोंत्कर्ष की परम्परा एक लम्बे समय से चली आ रही परंपरा है जिसमें उनसे पहले देश की आजादी के लिए सोलह वर्षीय किशोर खुदीराम बोसराम प्रसाद बिस्मिलअशफाकउल्ला खानरोशन सिंहराजेन्द्र लाहिडी जैसे युवक फांसी पर लटक चुके थे। यही नहीं, ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ जिनके सदस्य भगतसिंह भी थेके मास्टर माइण्ड माने जाने वाले चन्द्रशेखर आजाद भी उनकी फांसी के पूर्व ही इलाहाबाद के एक पार्क में पुलिस के साथ मुठभेड में मारे जा चुके थे। देश के लिए शहीद होने वाले इन सभी युवकों का जीवनविवाह एवं स्त्री प्रेम से अछूता रहा।
23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में जब भगतसिंह को फांसी दी गई तब उनके चेहरे का तेज़ अद्भुत अनोखा था उनका सीना गर्व से फूला हुआ था और मुंह पर “इन्कलाब जिंदाबाद” का नारा;  ये वो युवा थे जिन्होंने समय की मांग को पहचाना और मात्रभूमि के ऋण से उऋण हो गये 
जब हम आज के युवा को देखते है तो दुःख होता है की वो युवा जिसमें असीमित अपरिमित योग्यताएं छिपी है ।वो अपनी गरिमामय छवि को पाश्चात्य अन्धानुकरण में धूमिल कर रहा है ये दुःख का विषय है। आज समाज में आतंकवाद,भ्रष्टाचारआदि कई विकृतियां आ गयी है जो व्यक्ति के चरित्र और उसकी राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को खा जाने के लिए आमादा है आज इन समस्याओं के बंधन से राष्ट्र को आज़ाद कराने के लिए  और इन विकृतियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए ज़रुरत है भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव जैसे सपूतों की 
हे युवाओं जागो और अपनी देश की अस्मिता भारत माता के स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए अपने व्यक्तित्व और विचारों में तेजस्विता लाओ तभी हमारा देश विकास की और बढ़कर विश्व गुरु  के पद पर आसीन हो सकेगा ,और निश्चित रूप से यही हमारे शहीदों के लिए सच्ची श्रधांजलि होगी ।



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नैतिक मूल्य और आज का युवा

भारत वर्ष विश्व में एक मात्र ऐसा देश है, जिसने जीवन मूल्यों की स्थापना की ये वो देश है जिसने समूचे विश्व को नैतिकता और आदर्शों का पाठ पढ़ाया, नैतिकता और उच्च आदर्श एक तरह से भारतीय संस्कृति की पहचान व पुरखों से विरासत में मिली अनमोल धरोहर हैं।
लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ये बातें बे-मानी सी ही गयी है यह समय आदर्शों और नैतिक मूल्यों के पतन का समय है। ये वो समय है जब व्यक्तिव्यक्ति से कटता जा रहा है व्यक्ति अपने किंचित लाभ को प्राप्त करने के लिए दूसरे को हानि पहुँचाने पर आमादा है । मानवीय संवेदनाएं लगभग समाप्त होने को है । परिवार है पर पारिवारिक नहीं है ,समाज है पर सामाजिकता नहीं बची है, और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित  है “युवा “ वो युवा जो आने वाले समय में इस गौरव शाली राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करेगा वर्तमान “युवा” पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ में लगा हुआ है  युवाओं का रुष्ट और रूखा व्यवहार,बड़ों के प्रति अनादर, कुतर्क, मनमानी यह सब दर्शाता है कि युवाओं में नैतिक मूल्यों का स्तर किस हद तक गिर चुका है।
वो युवा जो आने वाली पीढ़ियों का भविष्य है । आज से कुछ दशक पूर्व, अपने बड़ों का आदर करना, उन्हें उचित प्रेम देना कर्तव्य माना जाता था, लोग मिलनसार थे, रिश्तों में गरमाहट थी, लेकिन यह कहते हुए भी लज्जा आती है के जिन बूढ़े माँ- बाप ने पाल पोस कर बड़ा किया  वही माँ- बाप आज बच्चों पर बोझ हैं मोबाइल फ़ोन में युवा इतने मग्न हैं की मेल मिलाप के लिए वक़्त ही कहाँ आज युवाओं के पास 2 घंटे बैठकर अपना स्टेटस अपडेट करने का समय है लेकिन वो थोड़ी देर अपने माता पिता के साथ बैठकर अपना समय ख़राब करने को तैयार नहीं है , और रिश्ते तो आजकल फेसबुक पर बनते हैं तो गर्मजोशी  का कोई सवाल ही नहीं उठता।
संवेदनहीनता की हद तो इस बात से आंकी जा सकती है की सड़क पर तड़पते हुए घायल की जान बचाने के बजाय हमारे युवा उसकी दर्दनाक तस्वीर अपने स्मार्ट फ़ोन के कैमरों में कैद करने को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं, ताकि उसे व्हाट्सअप  पर अपलोड कर सकें और बाकी  के युवक संवेदनशीलता का स्वांग रचाते हुए बड़ी फुर्ती से उस पर लाइक और कमेंट्स करते हैं। छोटी सी उम्र में ही युवा वह सब कुछ करना चाहते हैं, वह सब कुछ पाना चाहते हैं जो ना ही उनके लिए उचित हैं और ना ही उसका अभी वक़्त आया है। इन्टरनेट ने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन हमारी मासूमियत को छीन लिया ।धूम्रपान , शराब , पैसा, अय्याशी सब कुछ और वह भी शॉर्टकट से. ऐशो- आराम की महत्वकांषा ऐसी की थोड़े से पैसों के लिए “युवा ”कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार है। युवाओं की मानसिकता ये हो गयी है की जीवन में सब कुछ पैसा ही है , इसके लिए कुछ भी कर गुज़रने की ललक उनके चेहरों पर साफ़ झलकती है। न जाने कितने ऐसे उदाहरण हैं जो रोज़ अख़बारों में छपते हैं और हमारे आस-पास घटित होते हैं, जो दर्शाते हैं के युवा किस हद तक खुद को भुला चुके हैं गिर चुके हैं, और सबसे ज़्यादा तकलीफ तो इस बात की होती है के न तो उन्हें इसकी भनक है और न ही अफ़सोस, मदहोश युवा किसी पागल हाथी की तरह अपने रस्ते में आने वाली हर चीज़ को रौंदते कुचलते हुए वे आसमानों में उड़ रहे हैं इस बात से बेखबर के जब ज़मीन पर गिरेंगे तो क्या होगा।
कैसी विडम्बना है यह ? जिस भूमि पर "मर्यादा पुरुषोत्तम" श्री राम और अर्जुन जैसे "महान शिष्य" का जन्म हुआ उस ही धरा पर आज हर दूसरे क्षण मर्यादा लांघी जा रही है, आये दिन गुरुओं को अपमानित किया जाता हैऔर कड़वा सच तो देखिये हमारे आज के युवाओं को तो "आदर्श" ,"उद्देश्य" और "सिद्धांत" का मतलब भी ज्ञात नहीं और उसकी इस ही अनैतिकता के चलते हर रोज़ समाज पतन की नई गहराइयाँ नाप रहा है। बड़े ज़ोर-शोर से चारों तरफ गिरते नैतिक मूल्यों की चर्चा होती है सभाओं में , टेलीविज़न पर, अखबारों में बड़े-बड़े विद्वान ,प्रख्यात, प्रकांड पंडित ज्ञान का बघार लगाते हैं, चिंता जताते हैं और घर चले जाते हैं। आज तक सभी ने विचार ही किया लेकिन इस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाया।
अगर ईमानदारी से सोचें तो पाएंगे की इस महान समस्या को फ़ैलाने वाले कोई और नहीं अपितु हमारे बड़े ही हैं, समाज में गिरती नैतिकता केवल पतन का ही नहीं बल्कि बड़ों की असफलता का भी प्रतीक है, असफलता विश्व की सबसे कीमती धरोहर अपनी नयी पीढ़ी को न दे पाने की अपने बच्चों को अच्छे संस्कार और शिक्षा देने के बजाय उनके हाथों में लैपटॉप और इंटरनेट थमा दिए, ज़रा बड़े हुए नहीं के महंगे मोबाइल और गाड़ियां दिला दी और समझ लिए के हमने हमारा फ़र्ज़ पूरा कर दिया। एक बच्चा कोरे कागज़ की तरह होता है और उस कागज़ पर नैतिक मूल्यों और अच्छी आदतों की तहरीर लिखना मात- पिता का फ़र्ज़ है पर माता-पिता अपनी निजी ज़िन्दगी में ही इतने व्यस्त हो गए कि ये भूल ही गए कि वे किसी के माता-पिता भी हैं, अपनी व्यस्तताओं में इस बात का ध्यान ही नहीं रहा की उनके बच्चों की देश की अगली पीढ़ी को असली ज़रूरत क्या हैं? कल राष्ट्र की कमान युवाओं के हाथों में होगी. क्या संभालेंगे देश को जो खुद ही को नहीं संभल सकते। गहरी नींद से जागने का वक़्त अब आ चूका है. ज़रूरत है युवाओं पर दोष मढ़ने के बजाय बड़े इस और कुछ सार्थक कदम उठाये ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त अपने बच्चों के साथ युवाओं के साथ व्यतीत करें. उन्हें  उचित मार्गदर्शन दे देश के सांस्कृतिक गौरव से अवगत कराएं और युवाओं को भी आवश्यकता है समझने की अपने आप को और अपने देश को, पाश्चात्य रंगो में रंगने के  बजाय अपनी पहचान बनाने के प्रयत्न करने होंगे।         सर्वाधिकार सुरक्षित








राष्ट्र का युवा भगत सिंह

शहीद दिवस विशेष लेख 
लेखक:- पंकज "प्रखर"

प्रकाशित :- (दैनिक वर्तमान अंकुर (नोयडा), जबलपुर दर्पण (जबलपुर )
क राष्ट्र की धरोहर होता है युवा युवाओं के मजबूत कंधो पर ही राष्ट्र की प्रगति की आधारशिला रखी जाती है| वो युवा जो अपनी धारदार सोच और प्रगतिशील विचारों से किसी भी देश को गरिमामय स्थान दिलाता है युवाकाल युवावस्था का नाम नही है अपितु इसका सम्बन्ध  तो विचारों के युवापन से है युवा वो जिसमे गति हो जिसमे प्रवाह हो जिसमे चेतना हो जिस  व्यक्ति में ये गुण हो वो हर व्यक्ति युवा है |भारत वर्ष के गौरवमय अतीत में ऐसे कई युवाओं का नाम आता है,जिन्होंने अपने ज्वलंत और निडर विचारों से समाज को सन्देश दिया और न केवल सन्देश दिया बल्कि आवश्यकता आने पर इतिहास के पन्नो को अपने बलिदान से सुर्ख कर दिया युवाओं की इस भीड़ में मुझे याद आते है भगत सिंह
                                              वो भगत सिंह जिसके ज़हन में प्रारम्भिक काल से ही देश को अंग्रेजी दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने की आकांक्षा हिलोरे लेती थी | भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर 1907 में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आज़ादी के लिये नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी।|
चौबीस वर्ष की उम्र में पहुंचा युवक जहाँ आमतौर पर यौवन की नैसर्गिक मांग पर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर स्त्री-सहवास एवं घर बसाने की इच्छा रखता है,  वहाँ भगतसिंह जैसे युवक ने इस उम्र में पहुंच कर देश की आजादी के लिए फांसी के फन्दे को अपनी नियति बना लिया। इसके लिए वे निस्संदेह हम सब को दृष्टि में आदर एवं अभिनंदन के पात्र हैं। ना केवल शहीदे आजम अभिनन्दन के पात्र है बल्कि ये प्राणोंत्कर्ष की परम्परा एक लम्बे समय से चली आ रही परंपरा है जिसमे उनसे पहले देश की आजादी के लिए सोलह वर्षीय किशोर खुदीराम बोसराम प्रसाद बिस्मिलअशफाकउल्ला खानरोशन सिंहराजेन्द्र लाहिडी जैसे युवक फांसी पर लटक चुके थे। यही नहीं, ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ जिनके सदस्य भगतसिंह भी थेके मास्टर माइण्ड माने जाने वाले चन्द्रशेखर आजाद भी उनकी फांसी के पूर्व ही इलाहाबाद के एक पार्क में पुलिस के साथ मुठभेड में मारे जा चुके थे। देश के लिए शहीद होने वाले इन सभी युवकों का जीवनविवाह एवं स्त्रीप्रेम से अछूता रहा।
23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में जब भगतसिंह को फांसी दी गई तब उनके चेहरे का तेज़ अद्भुत अनोखा था उनका सीना गर्व से फूला हुआ था और मुंह पर “इन्कलाब जिंदाबाद” का नारा;  ये वो युवा थे जिन्होंने समय की मांग को पहचाना और मात्रभूमि के ऋण से उऋण हो गये |
जब हम आज के युवा को देखते है तो दुःख होता है की वो युवा जिसमे असीमित अपरिमित योग्यताएं छिपी है |वो अपनी गरिमामय छवि को पाश्चात्य अन्धानुकरण में धूमिल कर रहा है ये दुःख का विषय हैआज समाज में आतंकवाद,भ्रस्टाचारआदि कई विकृतियां आ गयी है जो व्यक्ति के चरित्र और उसकी राष्ट्र प्रेम की भावनाओं को खा जाने के लिए आमादा है आज इन समस्याओं के बंधन से राष्ट्र को आज़ाद कराने के लिए  और इन विकृतियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए ज़रुरत है भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव जैसे सपूतों की |
हे युवाओं जागो और अपनी देश की अस्मिता भारत माता के स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए अपने व्यक्तिव और विचारों में तेजस्विता लाओ तभी हमारा देश विकास की और बढकर विश्व गुरु  के पद पर आसीन हो सकेगा ,और निश्चित रूप से यही हमारे शहीदों के लिए सच्ची श्रधांजलि होगी |

युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...