29 Sept 2017

आधुनिकता के इस दौर में संस्कृति से समझौता क्यों ?

आज एक बच्चे से लेकर 80 वर्ष का बुज़ुर्ग आधुनिकता की अंधी दौड़ में लगा हुआ है आज हम पश्चिमी हवाओं के झंझावत में फंसे हुए हैं। पश्चिमी देशो ने हमें बरगलाया है और हम इतने मुर्ख की उससे प्रभावित होकर इस दिशा की और भागे जा रहे हैं जिसका कोई अंत नहीं है ।वास्तव में देखा जाए तो हमारा स्वयं  का कोई विवेक नहीं है हम जैसा देख लेते है वैसा ही बनने का प्रयत्नं करने लगते है निश्चित रूप से यह हमारी संस्कृति के ह्रास का समय है जिस तेज गति से पाश्चात्य संस्कृति का चलन बढ़ रहा है, उससे लगता है कि वह समय दूर नहीं, जब हम पाश्चात्य संस्‍कृति के गुलाम बन जायेंगे और अपनी पवित्र पावन भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा सम्पूर्ण रूप से विलुप्त हो जायेगी, गुमनामी के अंधेरों में खो जायेगी। आज मनोरंजन के नाप पर बुद्धू बॉक्स से केवल अश्लीलता और फूहड़पंन का ही प्रसारण हो रहा है हमें मनोरंजन के नाम पर क्या दिया जा रहा  है मारधाड़, खुन खराबा, पर फिल्माए गए दृश्य मनोरंजन के नाम पर मानवीय गुणों, भारतीय संस्कृति व कला का गला घोट रहे हैं।माना की आधुनिक होना आज के दौर की मांग हैं और शायद अनिवार्यता भी है, लेकिन यह कहना भी गलत ना होगा कि यह एक तरह का फैशन है। आज हर शख्स आधुनिक व मॉर्डन बनने के लिये हर तरह की कोशिश कर रहा है, मगर फैशन व आधुनिकता का वास्तविक अर्थ जानने वालों की संख्या न के बराबर होगी, और है भी, तो उसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। क्या आधुनिकता हमारे कपड़ों, भाषा, हेयर स्टाइल एवं बाहरी व्यक्तित्व से ही संबंध रखती है? शायद नहीं।
भारत वो देश है जहां पर मानव की पहचान उसके महंगे और सुंदर वस्त्र नहीं बल्कि उसके अदंर छुपे हुए नैतिक मूल्य है जो मानव के व्यवहार से प्रतिबिंबित  होते है विवेकानंद जब शिकागो धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये तो वहां के लोग उनकी भारतीय वेशभूषा को देख कर हास्य करने लगे कई लोगों ने मजाक बनाया बुरा भला कहा लेकिन जब उन्होंने धर्म सम्मेलन में अपने विचार व्यक्त किये तो सारा जन समूह भारतीय संस्कृति के रंग में रंग गया विवेकानन्द ने अपने ज्ञान से विदेशियों के समक्ष अपना लोहा मनवा दिया ।
मैं आधुनिकता के विपक्ष में नहीं हूँ मैं समय के साथ बदलना आवश्यक मानता हूँ। लेकिन आधुनिकता का मतलब ये तो बिल्कुल नहीं है की हम अपनी संस्कृति  के स्वयं भक्षक बन जाएँ । वास्तविक रूप में आधुनिकता तो एक सोच है, एक विचार है, जो व्यक्ति को इस दुनिया के प्रति अधिक जागरूक व मानवीय दृष्टिकोण से जीने का सही मार्ग दिखलाती है। सही मायने में सही समय पर, सही मौके पर अपने व्यक्तित्व को आकर्षक व् सभ्य परिधान से सजाना, सही भाषा का प्रयोग तथा समय पर सोच-समझकर फैसले लेने की क्षमता, समझदारी और आत्मविश्वास का मिला-जुला रूप ही आधुनिकता है। लेकिन आधुनिकता के नाम पर हो कुछ और रहा है  आज हमारी वेशभूषा से लेकर सोच तक सारी पश्चिम के रंग में रंगी हुई है ।।
हम इतने आधुनिक हो गए की व्यक्ति को व्यक्ति से बात करने की फुर्सत नहीं है सब काम ऑनलाइन है सब व्यस्त है किसी के पास समय नहीं है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो सब व्यस्त नहीं है बल्कि तृस्त है आज तकनीक को हम नहीं बल्कि तकनीक हमें स्तेमाल कर रही है । सुबह उठते ही सबसे पहले  मोबाइल पर हाथ जाता है की किस –किस के और कितने मेसेज आये ,फेसबुक पर कितने लाइक आये । आदमी पहले सुबह उठकर ईश्वर का नाम लेता था अपनी दैनिक - चर्या से निवृत्त हो फिर वो अपने कामकाज में लगता था परिवार के साथ माता-पिता के पास बैठता था आज हमें अपने बच्चों से बात करने का माता-पिता के पास बैठने का ही समय नहीं है आज भीढ़ में भी आदमी अकेलेपं का अनुभव करता है ।
आज युवा इससे ज्यादा तृस्त है वो युवा जो आने वाले समय में इस देश की दिशा धारा निर्धारित करने वाले है । वेशभुषा हमारी निहायती फूहड़ और भद्दी हो गयी बिगडती हुई भाषा शैली और अस्त व्यस्त जीवन शैली से युवा तृस्त है । अपने बच्चो को छोटे-छोटे कपड़े पहनाने में भी हमें अब गर्व का अनुभव होने लगा है सलवार कुर्ते की जगह अब मिनी स्कर्ट और टॉप ने ले लिया लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ समाज का वातावरण दूषित हुआ हाँ ये बात पक्की है मेरे इस विचार को पढकर कई तथाकथित सामाजिक लोग मुझे पिछड़ी और छोटी सोच का व्यक्ति आंकेगे । जिसका मुझे कोई रंज नहीं है लेकिन ये वास्तविकता है ।
एक बहुत सोचनीय स्थिति बनी हुई है और वो ये की हमारे बच्चे हमारी  और आप की आधुनिक शैली अपनाने की वजह से समय से पहले बड़े हो रहे ।
बचपन में दादा-दादियों द्वारा हमें अच्छी-अच्छी कहानिया सुनाई जाती थीं। कहते हैं कि जब बच्चा छोटा होता है तो उसका दिमाग बिल्कुल शून्य होता है। आप उसको जिस प्रकार के संस्कार व शिक्षा देंगे उसी राह पर वह आगे बढ़ता है। अगर वाल्यकाल में बच्चों को यह शिक्षा दी जाती है कि चोरी करना बुरी बात है तो वह चोरी जैसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा। छोटी अवस्था में बच्चों को संस्कारित करने में माता-पिता, दादा-दादी व बुजुर्गो का बड़ा हाथ होता था। कहानियां भी प्रेरणादायी होती थीं। - कही ऐसा ना हो की अंधी आधुनिकता और स्वयं की मह्त्व्कंषा की वजह से हमारा सारा कुछ समय से पहले ही लूट जाये और हमारे सामने रोने के सिवा कुछ ना बचे देश में आधुनिकता के नाम पर एक अंधी दौड़ जारी है।
आम इंसान आधुनिकता की इस दौड़ में अंधा व भ्रमित हो गया है, उसे यही समझ में नहीं आ पा रहा कि आधुनिकता के नाम पर कंपनियाँ आम इंसान को किस प्रकार गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने की फिराक में लगी हुई हैं।
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तपस्या और प्रेम की साकार प्रतिमा है “नारी”


नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥

प्राचीन समय से स्त्रियों के नाम के साथ देवी शब्द का प्रयोग होता चला आ रहा है जैसे लक्ष्मी देवी, सरस्वती देवी, दुर्गा देवी आदि नारी के साथ जुड़ने वाले इस शब्द का प्रयोग आकस्मिक रूप में नहीं हुआ है अपितु ये नारी की दीर्घकालीन तपस्या का ही फल है । वास्तव में पुरुष में ऊर्जा का संचार करने वाली पथ-प्रदर्शिका को देवी कहा जाता है। आज की नारी भी अपने अंदर वो अतीत के देवीय गुण संजोए हुए है जिन्होंने समाज के समग्र विकास में योगदान दिया है ।
कहा जाता है पुरुष के जीवन में माँ के बाद नारी का दूसरा महत्वपूर्ण किरदार पत्नी का होता है। उसके इस रूप को सबसे विश्वास पात्र मित्र की संज्ञा दी जाती है। जीवन के कठिन क्षणों में जब सब नाते रिश्तेदार हमसे किनारा कर लेते है हमें अकेला छोड़ देते है धन संपत्ति का विनाश हो चूका होता है शरीर को रोगों ने जकड़ लिया होता है हम मानसिक अवसाद से ग्रस्त होते है, उपेक्षा जनित एक प्रकार की खीज और चिढ़चिढ़ापन हमारे अंदर आ गया होता है। उस स्थिति में केवल पत्नी ही होती है जो पुरुष को हिम्मत देती है। उससे कुछ और करते ना बन पढ़े तो भी वो कम से कम पुरुष के मनोबल को बढ़ाने उसे हिम्मत देकर उसमें आशा को जगाए रखने का काम तो करती ही है । वो पुरुष को पीयूष रुपी स्नेह से धैर्य बंधाती है उसके आत्मबल को जागृत कर उसके टूटे स्वाभिमान को समेटकर उसे इस लायक बना देती है की वो समाज की चुनौतियों को न केवल स्वीकार करता है अपितु सफल भी होता है।
यदि नारी न होती तो कहाँ से इस सृष्टि का सम्पादन होता और कहाँ से समाज तथा राष्ट्रों की रचना होती! यदि माँ दुर्गा न होती तो वो कौन सी शक्ति होती जो संसार में अनीति एवं अत्याचार मिटाने के लिये चंड-मुंड, शुम्भ-निशुम्भ का संहार करती । यदि नारी न होती तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक, प्रचण्ड पंडित, अप्रतिम साहित्यकार, दार्शनिक, मनीषी तथा महात्मा एवं महापुरुष किस की गोद में खेल-खेलकर धरती पर पदार्पण करते। यहाँ तक की राम और कृष्ण धरती पर कैसे उतरते मानव मूल्यों और धर्म की स्थापना कैसे होती । नारी व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की जननी ही नहीं वह जगज्जननी हैं उसका समुचित सम्मान न करना, अपराध है तथा अमनुष्यता है।
प्राचीन काल से ही नारी में लेने का नही अपितु देने का ही भाव रहा है नारी में दया, क्षम, करुना, सहयोग, उदारता, ममता जैसे भाव भरे रहते है ये दैवीय गुण उसे जन्म से ईश्वर द्वारा प्रदत्त किये जाते है। नारी के ये गुण उसे पुरुष से श्रेष्ठ सिद्ध करते है यदि नारी को श्रद्धासिक्त सद्भावना से सींचा जाए तो ये नारी शक्ति सम्पूर्ण विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है ।
प्रेम नारी का जीवन है ।अपनी इस निधि को वो आदिकाल से पुरुष पर बिना किसी स्वार्थ के पूर्ण समर्पण और ईमानदारी के साथ निछावर करती आई है ।कभी न रुकने वाले इस निस्वार्थ प्रेम रुपी निर्झर ने पुरुष को शांति और शीतलता दी है । स्त्री को एक कल्पवृक्ष के रूप में भी देखा जा सकता है जिसके सानिध्य में बैठने पर न केवल  पुरुष  को आत्म तृप्ति मिलती है अपितु उसका पूरा परिवार संतुष्टि प्राप्त करता है 

कई दिनों पहले एक महापुरुष की वाणी सुनने का सौभाग्य मिला उन्होंने एक इतना सुंदर विचार दिया जिसकी मौलिकता जिसकी सत्यता ने मुझे ये लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया ।
वो महापुरुष बता रहे थे कि यदि सारे संसार से केवल स्त्रियों को हटा दिया जाए तो इस समूचे ब्रह्माण्ड  का विनाश निश्चित है क्योंकि स्त्री के अभाव में तो सृष्टि आगे चल ही नहीं सकती शक्ति के अभाव में शिव  भी शव समान हो जाते है ।बात सोलह आने सच भी है स्त्री ही परिवार और समाज की निर्मात्री है वो ही वंश परम्परा को आगे बढ़ती है। लेकिन उनकी बात यहाँ पर ही समाप्त नहीं हुई उन्होंने आगे बोला की यदि इस समूचे ब्रह्माण्ड से पुरुष जाति को समाप्त कर दिया जाए तब भी स्त्री अकेले ही स्त्री का न केवल निर्माण कर सकती है बल्कि उसे आगे भी बड़ा सकती है ।ये विचार सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ की ये कैसे सम्भव है मैं उन महापुरुष से ये पूछ बैठा की महाराज ऐसे कैसे सम्भव है क्योंकि स्त्री तो धरती होते है और पुरुष आकाश के समान है और जब आकाश रूपी पुरुष का स्नेह बीज के रूप में जब धरती के गर्भ में पहुँचता है तब ही तो धरती से कोमल पौधों का सृजन  होता है ।तब उन्होंने कहा की जो बीज आकाश रूपी पुरुष धरती रूपी स्त्री को सौंप देता है स्त्री उसके द्वारा हजारों बीज बना लेती है तो जो गर्भवती महिलाएं इस धरा पर रह जायेंगी वो पुरुष का अभाव होने के बाद भी उनके बीज से सृष्टि का निर्माण करने में सक्षम रहेगी जबकि पुरुष के पास ये योग्यता नहीं है तो इस प्रकार यदि सृष्टि से पुरुष समाप्त भी हो जाएँ तो स्त्रियाँ तो सृष्टि फिर से रच देने में सक्षम है लेकिन यदि समूची स्त्री जाति नष्ट हो जाए तो पुरुष स्त्री को नहीं रच सकता क्योंकि नारी सनातन शक्ति है और ये सामान्य जीवन में देखने में भी  आता है की स्त्री  अपने जीवन में इतने सामाजिक दायित्वों को उठाकर पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलती है । यदि उन दायित्वों का भार केवल पुरुष के कंधे पर ही डाल दिया जाए तो पुरुष मझदार में ही असंतुलित होकर गिर पढ़े । जब कोई व्यक्ति अपने भवन का निर्माण करता है तो सबसे पहले नींव खुदवाता है ना केवल खुदवाता है बल्कि अच्छे से अच्छे चुने  मिट्टी का प्रयोग करता है जिससे की एक मजबूत नींव के ऊपर एक सुद्रण भवन स्थापित हो सके उसी प्रकार स्त्री भी परिवार में मूक रूप से नींव के पत्थर का कार्य करती है  जिस पर पूरा परिवार निर्भर करता है । नारी के अभाव में एक संस्कारी सभ्य परिवार की कल्पना नही की जा सकती । अतः नारी हर परिस्थिति में वन्दनीय है वो पुरुष की पथ प्रदर्शिका है उसकी प्रेरणा स्रोत है ।पुरुष सदैव स्त्री का ऋणी रहा है और आगे भी रहेगा ।
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24 Sept 2017

कन्याभ्रूण ‘आखिर ये हत्याएं क्यों ?

बेटा वंश की बेल को आगे बढ़ाएगा,मेरा अंतिम संस्कार कर बुढ़ापे में मेरी सेवा करेगा। यहाँ तक की मृत्यु उपरान्त मेरा श्राद्ध करेगा जिससे मुझे शांति और मोक्ष की प्राप्ति होगी और बेटी, बेटी तो क्या है पराया कूड़ा है जिसे पालते पोसते रहो उसके दहेज की व्यवस्था के लिए अपने को खपाते रहो और अंत में मिलता क्या है ? वो पराये घर चली जाती है। यदि गुणवान है तो ससुराल के साथ निभा लेती है, अन्यथा बुढ़ापे में उसके ससुराल वालों की गालियाँ सुनने को ही मिलती है और कहीं घर छोड़ कर आ गयी तो मरने तक उसे खिलाओ और इसी चिंता में मर जाओ की हमारे बाद उसका क्या होगा ।
ये मानसिकता प्रबल रूप से काम करती है आज के समय में कन्या भ्रूण हत्या के पीछे लड़के या लड़की का पैदा होना स्वयं उसके हाथ में तो नहीं होता और कौन ऐसा होगा जो ये चाहे की उसके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पढ़े तो ऐसे में हम लड़की को समस्याओं परेशानियों का पुलिंदा और लडकों को कुल का दीपक  क्यों समझते है?
ये बात मैं केवल अशिक्षित और गाँव देहात के लोगों के लिए नहीं कह रहा हूँ बल्कि ये ही हालात पढ़े लिखे समाज में हाई सोसाइटी के माने जाने वाले लोगों के भी है ।
आखिर क्योंक्या अपराध है उसकाजिस मासूम ने अभी दुनिया में कदम भी न रखा होजिस अबोध की आँखों में संसार का चित्र भी न उभरा होउसका भी कोई जानी-दुश्मन हो सकता हैये प्रश्नवाचक चिह्न अटपटे जरूर हैंपरन्तु वर्तमान समाज की क्रूर व्यवस्था का एक नग्न सत्य है। पितृ सत्तात्मक समाज पुत्र से वंश-बेल को आगे बढ़ाने की सड़ी-गली परम्परा को बदले हुए परिवेश और परिस्थितियों में भी ढोए फिर रहा है। इस रूढ़ि ग्रस्तता की आसक्ति ही हैजिससे प्रेरित होकर बेकसूर कन्या अपनी भ्रूणावस्था में ही माँ की कोख से जबरदस्ती खींचकर फेंक दी जाती है।
पुराने जमाने के इतिहास-पुराणों मेंलोक-कथाओं में ऐसे राक्षस-पिशाचों का जिक्र आता हैजो छोटे बच्चों का मारकर खा जाते थे। बाल हत्यारे इन राक्षसों की कथाओं को सुनने पर हर किसी का मन घृणा से भर जाता है। अपरिपक्व भ्रूण तो बालक से भी मासूम होता हैउसकी हत्या करने वालों को क्या कहा जाएजो इनके हत्यारे हैंक्या उनमें सचमुच पिता का प्यार और माता की ममता स्पंदित होती हैयदि ऐसा है तो शायद वे ऐसा क्रूर कर्म कभी न कर पाते।
पुत्र प्राप्ति की प्रबल इच्छा एक मृगतृष्णा ही तो हैआखिर क्या दे रहे हैं पुत्र आज अपने माता-पिता कोइस प्रश्न का उत्तर प्रायः हर घर में लड़कों द्वारा माँ-बाप की जमीन -जायदाद हथियाने के बदले उन्हें दिए जाने वाले शर्मनाक अपमान-तिरस्कार में खोजा जा सकता है। इसे मोहान्धता ही कहेंगे कि रोजमर्रा की ऐसी सैकड़ों-हजारों घटनाओं को देखने के बाद भी पुत्र प्राप्ति की लालसा नहीं मिटती। इस लालसा को मिटाए जाने के बदले कन्या को जन्म लेने के पहिले ही मिटा दिया जाता है। विज्ञान और आधुनिक तकनीकी ज्ञान जैसे- अल्ट्रासाउंड स्केनिंग आदि ने इस क्रूरता को और बढ़ावा दिया है।
इस सबके परिणामस्वरूप वर्तमान समाज में गर्भपात की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई। इन गर्भपातों में बहुलता कन्या शिशुओं की होती है।
अब ये कहा जाए की इसकी रोकथाम के लिए सरकार क्यों कुछ नहीं करती तो मैं ये कहना चाहूँगा क्या सब काम सकार करेगी हम लोगों में जागृति कब आएगी सरकार हर एक के पीछे तो भाग नहीं सकती तो क्या होना चाहिए । इसका समाधान बहुत सोचने के बाद मुझे लगा की जो समाजसेवी संस्थाएं है और जो वास्तव में समाज सेवा करना चाहती है। उन्हें जन जागृति के बड़े कदम उठाने चाहिए। समाजसेवी संस्थाओं को जिन इलाकों में ज्यादा भ्रूण हत्या होती है उन्हें गोद ले लेना चाहिए और पूरी चौकसी के साथ नजर रखनी चाहिए कि ऐसी एक भी घटना उसके गाँव में न हो सके साथ ही साथ सरकार को भी ऐसी संस्थाएं बनानी चाहिए ,जहां अनचाहे बच्चों को जीवन जीने योग्य वातावरण मिल सके और उन्हें भी समाज में वही सम्मान और अधिकार मिले जो एक सामान्य व्यक्ति के होते है ।यदि ऐसा होता है तो परिस्थितियाँ एक दम तो नहीं लेकिन धीरेधीरे बदली जा सकती है।
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युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...