25 May 2017

न सुख से प्रभावित हों और न दुःख से विचलित


मानव जीवन में कठिनाइयों का भी अपना महत्व है। कठिनाईयाँ हमारी परीक्षा लेती हुई हमारी योग्यताओं को और धारदार कर देती है ज्यादातर लोग कठिनाइयों को अपना दुर्भाग्य मानकर अपनी किस्मत को कोसते रहते है । इनमें वो लोग विशेषकर होते हैं जिन्होंने सामान्य से निचले स्तर के परिवारों में जन्म लिया है। वे लोग मानते हैं कि उनकी समस्त आवश्यकताएं बिना किसी कठिनाई और समस्या के पूरा हो जाए अन्य लोग भी ऐसे लोगों को बड़ा भाग्यवान मानते है ।जबकि वास्तविकता ये है की जिन लोगों ने जीवन में कठोरता और समस्याओं का सामना नहीं किया उनका मन मस्तिष्क सब कमजोर रह जाता है ऐसे लोग छोटी-छोटी समस्याओं के सामने घुटने टेक देते है या तो कठिनाइयों से विचलित होकर स्वयं का अहित कर बैठते है ।
अत: भगवान ने मनुष्य के सम्पूर्ण विकास के लिए उसके जीवन में सुख और दुःख दोनों की स्रष्टि की है। परन्तु मानव समस्याओं को देवी आपदा मानकर ईश्वर को कोसने लगता है परन्तु ऐसा नहीं है ईश्वर दया एवं करुणा का सागर है वो हर क्षण अपनी सबसे सुंदर कृति मानव की सहायता के लिए तत्पर है और उसपर अपना भरपूर स्नेह लुटा रहा है ,लेकिन फिर भी समाज में हम जब दबे कुचले दुखी लोगों को देखते है तो हमें ईश्वर की दया और ममता पर शंका होने लगती है ।माँ  का अपने बच्चे के लिए निस्वार्थ निश्छल प्रेम होता है वो अपने बालक को खुश रखने के लिए हर सम्भव प्रयास करती है लेकिन फिर भी बालक को उसके कई कार्य अप्रिय लगते है माँ लीजिये बालक किसी भोजन को ज्यादा मात्रा में खाना चाहता है तो माँ उसे रोकती टोकती है क्योंकि वो जानती है की भोजन की अधिकता से वो बीमार पढ़ जाएगा ।इसलिये वो बच्चे के रोने पिटने को नज़र अंदाज करते हुए उतना ही भोजन उसे देती है जितनी की उसे आवश्यकता है माँ अपने बच्चे की सुरक्षा की दृष्टि से उसे उन स्थानों पर जाने की छूट नहीं देती जिनके विषय में वो शंकित होती है बच्चे की अनर्गल जिद पर वो उसे दण्डित करने से भी नहीं चुकती वो ही माँ बच्चे के बीमार पड़ने पर उसे कड़वी दवाएं पिलाती है और उसके कष्ट की परवाह किए बिना आवश्यक होने पर उसे इंजेक्शन लगवाती है ।लेकिन इस सब परिस्थितियों में बालक समझता है की उसकी माँ बहुत निष्ठुर है उसे अमुक वस्तु नहीं देती उसे अमुक प्रकार से सताती है और आवश्यकता पड़ने पर सहायता नहीं करती । अल्पज्ञान के कारण बालक अपनी माँ के प्रति अपने मन में दुर्भाव ला सकता है उस पर निष्ठुरता का दोषारोपण कर सकता है निश्चय ही उसकी ये मान्यता भ्रम पूर्ण होती है यदि वह माता के हृदय को देख सकता तो उसे पता चलता की उसके हृदय में उसके लिए कितनी करुणा और प्रेम भरा हुआ है ।
माँ के स्नेह के दो अलग-अलग तरीके  होते है एक तरीका वो जिनसे बालक प्रसन्न होता है जब उसे मिठाइयाँ खिलौने ,कपड़े आदि दिए जाते है और सैर कराने तमाशा दिखाने ले जाया जाता है तो बालक सोचता है मेरी माँ कितनी अच्छी है और जब उसी बालक को उसकी आँख में काजल लगाने के लिए उसके हाथ कसके पकड़कर उसके साथ ज़बरदस्ती करती है उसे ज़बरदस्ती नहलाती है स्कूल छोड़ने जाती है तो बालक झल्लाता है और माँ को कोसता है ।बालक बुद्धि ये नहीं जानती की कभी कठोर और कभी मधुर व्यवहार उसके साथ क्यों किया जा रहा है ।
इसी प्रकार मनुष्य है उस पर भी ईश्वर सुख और दुःख दो प्रकार से अपनी कृपा बरसाता है ईश्वर प्रदत्त सुख और दुःख दोनों ही हमारे लिए श्रेयस्कर होते है लेकिन अल्पज्ञता हमें उसका आभास नहीं होने देती ।जब भगवान की कृपा होती है तभी बुद्धि में सद्ज्ञान का प्रकाश होता है तो कष्ट देने वाली कोई भी वस्तु शेष नहीं रहती ।सुख से मनुष्य को कई लाभ है सुख से मनुष्य का मन प्रसन्न रहता है इन्द्रियाँ तृप्त होती है मन में उत्साह रहता है उन्नति करने में सुविधा रहती है साहस बढ़ जाता है और मान बढाई के अवसर मिलते है इस प्रकार सुख के अनेक लाभ है। लेकिन मानकर चलिए दुःख के लाभ भी कम नहीं होते है, दुःख से मनुष्य की सोयी हुई प्रतिभा का विकास होता है कष्ट से अपनी रक्षा करने के लिए दिमाग के सभी कलपुर्जे एक साथ क्रिया शील हो उठते है एवं शरीर भी आलस्य छोड़ कर कर्मनिष्ठ हो जाता है ।घुड़सवार अपने घोड़े को समय के अनुसार चलाने के लिए हंटर का उपयोग करता है जिसके इशारे से घुड़सवार घोड़े को कंट्रोल कर उसे अपने मन मुताबिक़ चलता है उसी प्रकार दुःख रूपी हंटर जीवन रूपी घोड़े को एक सही चाल चलाने के लिए आवश्यक होता है ।
अतः मनुष्य को सुख और दुःख दोनों ही परिस्थितियों में संतुलन बनाते हुए मन में इस विश्वास के साथ आगे बढ़ना चाहिए की दुःख भी ईश्वर की कृपा का अंश है और निश्चित रूप से ये सुख की प्राप्ति कराएगा ।



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2 comments:

  1. अपने ब्लॉग पर ब्लॉगर फालोबर्स का विजेट लगाइए

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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