25 May 2021

मन की इम्युनिटी भी बढ़ाएं (कोरोना काल विशेष लेख)

 इस भयंकर काल खंड में जिसमें की अकाल ही लोग काल-कवलित हो रहे हैं ऐसे में आवश्यकता है कि हम लोग अपने जीवन की रक्षा घर पर रहकर ही करें एवं इस प्रकार जीवन जियें जिससे की हमारे मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हो सके।

मित्रों, इन दिनों शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने और उसे सुरक्षित रखने के भरकस प्रयास किये जा रहे हैं । शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए जोर-शोर से काम चल रहा है । देश-विदेश सब मानव देह की क्षमताओं को बढ़ाने में लगे हैं सब एक ही दिशा की ओर अग्रसर हैं क्योंकि सभी की समस्याएँ लगभग एक समान हैं। शारीरिक क्षमताओं को बढ़ाने के लिए बलवर्धक, रोग निवारक औषधियों का अनुसंधान एवं निर्माण भी तेजी से चल रहा है। यह प्रसन्नता की बात है।

परन्तु दुःख इस बात का है कि शरीर से भी अत्यधिक उपयोगी मनके आरोग्य की आवश्यकता नहीं समझी जा रही और उसके लिए कुछ कहने लायक प्रयत्न भी नहीं किया जा रहा। शारीरिक कमज़ोरी विभिन्न प्रकार के रोग एवं अकाल मृत्यु का प्रधान कारण मानसिक अवसाद व विकृतियां होती हैं। उन्हीं से प्रेरित होकर मनुष्य विकृत गतिविधियां अपनाता है और शरीर को  नुकसान पहुंचता है। ये हमारे मन में उत्पन्न दूषित विचार ही हैं जो मन को कमज़ोर कर हमें गलत मार्ग एवं गतिविधियों की ओर अग्रसर करते हैं और शरीर को विवश होकर वैसा ही करना पड़ता है जिससे आरोग्य का विनाश सामने आ खड़ा होता है।

 इसके लिए मन को अनुशाषित करने की आवश्यकता है । आवश्यकता इस बात की भी है कि अच्छे तथा सकारात्मक चिंतन से अपने मन की इम्युनिटी को बढ़ाया जाए जिससे की ये मन अवसाद, तनाव, चिंता एवं भय जैसे वाइरस से बच सके । इसके लिए हमें इन दिनों अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित करने पर ध्यान देना चाहिए ।

 चूँकि दिनों हमारे पास पर्याप्त समय हैं और करने के लिये कोई विशेष कार्य नहीं है तो क्यों न इस समय का प्रयोग कुछ नए अनुसंधानों के लिए किया जाए।  सार्थक प्रयासों द्वारा इस कोरोना काल को हम उपलब्धियों का काल भी बना सकते हैं ।

          इसके लिए कई प्रयत्न किये जा सकते हैं जैसे यदि आप शिक्षक हैं तो अपने विषयों के अतिरिक्त अन्य विषयों के बारे में जानकारी प्राप्त कर उन्हें सीखने का प्रयास करें । अपनी अध्यापन शैली को और प्रभावी बनाने और विषय-वस्तु के साथ अतिरिक्त जानकारियाँ जोड़कर उसे स्तरीय ज्ञान तक लाने का प्रयत्न कर सकते हैं ।

यदि आप व्यापारी हैं तो सकारात्मक और स्वस्थ मन मस्तिष्क के साथ अब तक इस महामारी से हुए नुकसान को छोड़कर आगे की व्यावसायिक कार्य-योजना पर चिंतन करें क्योंकि जो समय और लाभ चला गया है वो आपके चिंता करने या दुखी होने से वापस आने वाला नहीं है इसलिए आगे की सोचें और पूरे उत्साह से लग जाएँ  

यदि आप विद्यार्थी हैं तो इन्टरनेट की सहायता से अपने भविष्य के लिए उपयोगी कार्यक्षेत्र की जानकारीयाँ प्राप्त कर उन्हें अपने माता –पिता व बड़े भाई-बहन के साथ साझा कर उस जानकारी के अन्य पक्षों के बारे में समझें ।

कक्षा दसवीं, बारहवीं एवं  में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों के लिए ये विशेष समय हैं  क्योंकि आप भविष्य में जो भी  बनना चाहते हैं उसके बारे में  सोचने और उसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए ये एकदम उचित समय है ।

यदि आप बुज़ुर्ग हैं तो अपने मन को ईश्वर की सेवा में लगायें ध्यान,योग प्राणायाम करें ।अपने इष्ट-मित्रों से बात करें अपने जीवन के विशेष अनुभव एवं यादों को अपने बच्चों और उनके बच्चों से साझा करें ।

यदि आप गृहणी हैं तो मैगज़ीन या इन्टरनेट की सहायता से नये-नये शुद्ध,सात्विक स्वास्थ्यवर्धक व्यंजन सीखें अथवा घर में रखी अनावश्यक वस्तुओं के द्वारा आकर्षक वस्तुओं का निर्माण करें और उन्हें अपने ब्लॉग,फेसबुक ,इन्स्ताग्राम और व्हात्सप पर साझा करें ।

अपने दिमाग को किसी न किसी कार्य में संलग्न रखें जिससे की किसी भी प्रकार की अवांछित नकारात्मक विषय-वस्तु इसमें प्रवेश न कर सके।

मनोरंजन भी करें तो सावधानी बरतें क्योंकि आज मनोरंजन के नाम पर भी विकृत विचार परोसे जा रहे हैं । इस विषय पर हम अगले लेख में विस्तृत चर्चा करेंगे । अच्छी फिल्में, डोक्युमेंट्रीज़, फ़िल्मी गाने ,भजन ,प्रार्थना भी मन को आनंदित करने के साधन हो सकते हैं । अपने परिवारजनों के साथ मिलकर ईश्वर से हमें कोरोना जैसी भयंकर विभीषिका से निकालने की प्रार्थना भी करते रहें । (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पंकज ‘प्रखर’

लेखक एवं विचारक

सुन्दर नगर,कोटा

प्रार्थी और प्रार्थना (कोरोना काल विशेष लेख)

 कहते हैं कि जब दवा और दुआ साथ मिलते हैं तो भीषण रोगों से ग्रसित व्यक्ति भी चमत्कारिक रूप से ठीक होने लगते हैं । यह ऐसी ही दुआओं, प्रार्थनाओं का दौर है जहाँ हमारे अपने या तो काल-कवलित हो चुके हैं या काल की चपेट में हैं । ऐसे समय में हम क्या करें? अपनी ओर से सारे प्रयास करने के बाद हमारे पास केवल एक ही मार्ग बचता है और वह है ‘प्रार्थना’। यही एक ऐसा माध्यम से है जो दिवंगत आत्माओं की शांति और रोगग्रस्त स्वजनों के लिए अचूक औषधि सदृश्य है ।

 मित्रों, प्रार्थना का बढ़ा महत्व है,किसी भी समस्या के निदान के लिए मन से की गई प्रार्थना भगवान् सारंगपाणि के सारंग से निकले अचूक बाण की तरह है जो सीधा अपने लक्ष्य अर्थात भगवान् के श्री चरणों तक पहुँचती है, फिर भगवान् भी प्रार्थी की समस्या का निदान किये बिना नहीं रह सकते।  

 लेकिन यह आवश्यकहै कि प्रार्थना केवल शब्दों का समूह न हो बल्कि उसमें हृदय की निश्छल और प्रेमाप्लावित भक्ति भी विद्यमान हो । जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प अपने प्रभाव को खो देता  हैं उसी प्रकार केवल शब्द-गुच्छ ईश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते उनमें प्रार्थी की पवित्र एवं परोकार ,दया व करुणा युक्त सुगंध होना अतिआवश्यक है तभी बात बनती है।

 प्रहलाद के हरि-संकीर्तन में हृदय का भाव क्या मिला कि ईश्वर नरसिंह के रूप में प्रकट हो गये। कृष्ण के लिए गोपियों का ऐसा ही भाव रहा होगा, क्योंकि गोपी गीत केवल शब्दों तक बंधा होता तो बात नहीं बनती लेकिन जब गोपियों की विरह-वेदना गोपी गीत के साथ जुड़ी तो गोविन्द प्रकट हो गये ।प्रार्थना ज्ञान का प्रतीक है और भाव निश्चलत प्रेम का प्रतीक है । जब ये दोनों मिलते हैं तो भगवान् को आना ही पड़ता है । 

 ईश्वर को केवल सच्ची भावयुक्त प्रार्थना के द्वारा ही रिझाया जा सकता है। जब हृदय से भाव उमड़ता है तो प्रार्थना के शब्द अश्रु बनकर नेत्रों को सजल कर देते हैं इसी स्थिति में परमात्मा प्रार्थना को स्वीकार करते हैं। प्रकृति के कण-कण में ईश्वर विद्यमान है । उसी की सत्ता से सूर्य,चन्द्र प्रकाशवान हैं । शीतल मंद पवन प्राणवायु के रूप में जीव मात्र को पोषित कर रही है, जल शरीर में नवीन चेतना का संचार कर रहा है ।

 प्रकृति का कण-कण उसी की सत्ता से जीवंत दिखाई देता है । प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है, पक्षियों के कलरव में, पहाड़ों के सन्नाटो में, वृक्षों की  शीतल छांव में, सागरों की शांत गहराईयों में, नदियों की कल-कल में ,निर्झर की झर-झर में परमात्मा मौजूद है । यदि हम ये नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, उत्सवी प्रार्थना परमात्मा से मिलाती है, शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं  है।

 जब प्रार्थी भावविभोर होकर ईश्वर को पुकारता है तभी भगवान प्रकट होते हैं । प्रार्थना में अद्भुत शक्ति होती है, सच्चे मन से की जाने वाली प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनते हैं जो उसे साफ मन से याद करते हैं, सच्चे प्रार्थी बन गये तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं ।

 जब तक हृदय की वीणा परमात्मा के विरह में झंकृत नहीं होती, जब तक प्रार्थी के प्रेमाश्रु अपने प्रेमी परमात्मा के लिए नही बहते तब तक प्रार्थना मात्र एक शब्दों का समूह  भर है लेकिन जब प्रार्थी विरह-वेदना से विभूषित हो आर्तभाव से अपने प्रेमी प्रभु को पुकारता है तो ईश्वर नंगे पैर दौढ़े चले आते हैं इस परिप्रेक्ष्य में गज और ग्राह्य की कथा सर्वविदित है।

 जब तक हमारे मन में ईश्वर प्राप्ति की प्यास नहीं जागेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा, धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है, जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं, अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है, परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जायें, उद्धव के प्रसंग में ठाकुर जी ने उस ऐश्वर्यज्ञानी को गोपांगनाओं के पास प्रेमाभाव की दीक्षा लेने के लिए भेजा है भगवान् कहते हैं “गच्छो उधौ ब्रजं सौम्य” इसलिये परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है।

 प्राणों से प्रेम के गीत उठते ही भगवान् प्रार्थी के पास दौड़े चले आते है, हम तो उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं, बिना पता-ठिकाने के जायें भी तो कहाँ जाएं? परन्तु जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं।

 इसी प्रकार जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी, छोटा शिशु जब पालने में रोता है तो माँ सहज ही दौड़ी चली आती है, इसी तरह सच्चे प्रार्थी के भजन में ऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते, क्योंकि सारि प्रार्थनाएँ तो तड़पते प्रार्थी के आंसुओं की ही छलकन हैं, इसलिए ‘हारिये न हिम्मत बिसारिये न प्रभु’। केवल प्रार्थना कीजिये । (सर्वाधिकार सुरक्षित)

पंकज ‘प्रखर’

लेखक एवं विचारक

सुन्दर नगर,कोटा

मंथरा के ऋणी….. श्रीराम

 

 (सर्वाधिकार सुरक्षित}

‘मंथरा’ ये शब्द सुनते ही हमारे सामने एक अधेड़ उम्र की कुरूप,घृणित किन्तु रामायण की अत्यंत महत्वपूर्ण स्त्री की छवि बन जाती है जिसका नाम था ‘मंथरा’। इस पात्र ने हमारे मन मस्तिष्क पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ा है कि आज भी जब हम किसी नकारात्मक स्वभाव वाली महिला को देखते हैं तो केवल ये एक शब्द (मंथरा) ही उसकी प्रवृत्ति और उसके स्वभाव की व्याख्या कर देने में सक्षम नज़र आता है। रामायण का यह पात्र समाज में इतना घृणित माना जाता है कि आज तक कोई भी अपनी कन्या का नाम मंथरा नहीं रखता है।

संस्कृत में मंथरा शब्द का अर्थ ’कुबड़ा’ होता है और मंथरा के कुबड़े होने के कारण ही उसे ये नाम मिला होगा हिंदी में मंथरा शब्द का अर्थ ’मंदमति’ है । मंथरा राजा दशरथ की तीसरी पत्नी और राजा अश्वपति के यहाँ काम करने वाली कैकेयी की धाय थी । कैकेयी के प्रति इसका विशेष लगाव था इसलिए कैकेयी के पिता अश्वपति ने विवाह के पश्चात कैकेयी के साथ मंथरा को भी अयोध्या भेज दिया था । कैकेयी की धाय माँ होने के कारण उसका प्रभाव भी कैकेयी पर बहुत था। रामचरित्र मानस के रचयिता भले ही महाकवि तुलसी दास हैं लेकिन इस महाकाव्य की भूमिका तैयार करने वाली देवी मंथरा लगती हैं क्योंकि मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं कि.........नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि, अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि ।।

अर्थात्- मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर देवी सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गई। अर्थात राम वनवास का षड्यंत्र मंथरा ने नहीं बनाया बल्कि मंथरा को देवताओं ने अपने उद्धार का और इस षड्यंत्र का निमित्त बनाया था।

मानस में ये भी आता है कि देवी सरस्वती द्वारा ऐसा कुचक्र बनवाने के लिए देवता उनसे प्रार्थना करते हैं और जब देवी ऐसा करने में संकोच व्यक्त करती हैं तो तुलसीदास लिखते हैं ……‘बार बार गहि चरण संकोची, चली बिचारि बिबुध मति  पोची’।।

अर्थात्- बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वे ये विचार करती हुई चलीं कि देवताओं कि मति ओछी है।

अगली पंक्ति में तुलसी बाबा ने लिखा कि माँ सरस्वती सोचती हैं‘....ऊँच निवासु नीच करतूती,देखि न सकहि पराई बिभूती’।।

अर्थात्- ये देवता ऊँचे स्थानों पर निवास करते हैं अर्थात महान माने जाते हैं लेकिन इनकी बुद्धि बहुत खोटी है ये दूसरों की विभूति(ऐश्वर्य)देख नहीं सकते।

 यदि ये कहा जाए कि राजकुमार राम को मर्यादा पुरुषोत्तम राम और जन-जन के राम बनाने में जो महत्वपूर्ण भूमिका देवी मंथरा ने निभाई है और देव कल्याण और जनकल्याण के लिए अपयश का जो विषपान किया है उसके लिए मंथरा सदैव प्रणम्य रहेंगी तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी ।

‘कम्ब-रामायण’ में ये वर्णित है कि राम वनवास के बाद मंथरा को कारागार में डाल दिया जाता है और राम वनवास के पश्चात उसे वहाँ से मुक्त करवाते हैं और उसे धन्यवाद भी देते हैं। कई विचारकों का ये भी मानना है कि राम कैकेयी और मंथरा का कार्य बुरा होते हुए भी समाज के हित में था क्योंकि उन्हीं के कारण राम वन जा पाए और अपने अवतार का वास्तविक कार्य रावण-वध कर पाए ।

मंथरा इतने युगों से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के लिए अपयश का जो दंश झेलती आ रही है उसके लिए नरोत्तम श्रीराम सदैव देवी मंथरा के ऋणी रहेंगे। (सर्वाधिकार सुरक्षित}

पंकज कुमार शर्मा प्रखर

पौराणिक पात्रों एवं

कथानक लेखन

कोटा, राज॰

युवा नरेन्द्र से स्वामी विवेकानंद तक....

  जाज्वल्य मान व्यक्तित्व के धनी स्वामी विवेकानंद ‘ विवेकानंद ’ बनने से पहले नरेन्द्र नाम के एक साधारण से बालक थे। इनका जन्म कोलकता में एक स...