13 Sept 2016

हमारी उपेक्षित हिन्दी भाषा

आज हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर बड़े भारी मन के साथ ये लेख लिख रहा हूँ क्योंकि में जनता हूँ की केवल हिन्दी दिवस के दिन ही हम हिन्दी की बात करेंगे और फिर भूल जायेंगे और हिन्दी भाषा को उसकी ह्रदय विदारक स्थिति में अकेला सुबकता छोड़ देंगे लेकिन क्योंकि में एक हिन्दी अध्यापक हूँ तो मैं तो हिन्दी भाषा के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना आवश्यक मानता हूँ । मैं किसी भाषा का विरोधी नहीं हूँ लेकिन पाठकों को ये अवगत करा देना चाहता हूँ , की एक ऐसी समृद्ध भाषा जिसके पास शब्दों का अकूत भण्डार है वो आज दयनीय स्थिति में आ पहुंची है ।
हिन्दी की दशा और दिशा देख कर बहुत दुःख होता है, आज अंग्रेजी में बात करना लोगों सम्माननीय लगता है। हिन्दी में बात करने वाले को हीन दृष्टि से देखा जाता  हैं। आज कल के माता पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी में बात करते देख कर प्रफुल्लित होते हैं। बड़े शहरों के ज्यादातर युवा अपने आपको आधुनिक दिखाने के लिए हिन्दी ज्ञान न होने या कम होने का दिखावा करके गौरवान्वित महसूस करते हैं।
दुर्भाग्य ये है की वो हिन्दी जिसने हमारी सेवा तब की जब हमें अन्य किसी भाषा का ज्ञान नहीं था ।तब हम केवल हिन्दी शब्दों को ही चबाया करते थे, जिससे हमारी अभिव्यक्ति की पूर्ति हुआ करती थी । लेकिन आज हमने अपनी उसी सहायिका उसी मात्र भाषा को दीन-हीन स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। हम ये नहीं कहते की अन्य भाषाएँ न सीखी जायें हम सभी भाषाओं का सम्मान करते है जिस प्रकार से माता किसी की भी हो आदरणीय होती है उसी प्रकार भाषा कोई भी हो सभी सम्माननीय है । लेकिन दूसरे की माता का सम्मान करना और अपनी माता को दुःख पहचाना उसका शोषण करना उसे  लज्जित करना कहां तक उपयुक्त है। हम भारतीय इतने मूर्ख कैसे हुए समझ नहीं आता ? दुःख तो इस बात का है की हमने केवल अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को ही अपनी उच्च शिक्षा का मापदंड बना दिया है, क्यों ? और ये कार्य समाज के उस सम्भ्रांत वर्ग द्वारा प्रमुख रूप से किया जाता है जो समाज को दिशा देने का कार्य करते है । एक तरफ तो हम हिन्दी दिवस मनाने का ढोंग करते है वहीं दूसरी और हमारी भावी पीढ़ी को हम अंग्रेजी शिक्षा से संस्कारित करते है इतना ही नहीं यदि वो हिन्दी भाषा का उपयोग अपनी साधारण बोलचाल में करने लगे तो विद्यालय उस पर पेनल्टी (दंड शुल्क)लगा देते है । ऐसी परिस्थितियों में हिन्दी का आने वाला भविष्य कैसा होगा ये सोचनीय है ?  कहीं ऐसा ना हो की जिस प्रकार हमने अपनी संस्कृत भाषा की उपेक्षा कर उसे लगभग भुला दिया है एक दिन यही स्थिति हिन्दी भाषा की हो जाए । अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा पद्धति में सेंध लगाई जिसे हम भारतीयों ने बड़े गर्व के साथ स्वीकार किया है और आज भी हम अंग्रेजों की भाषायी दासता स्वीकारे बैठे है ।
इन दिनों यदि आप सरकारी दफ्तरों में जायेंगे तो  वहाँ एक वाक्य आपको देखने को मिलेगा की “हिन्दी में काम करना आसन है शुरुआत तो कीजिये।” और दुर्भाग्य ये है की और दिनों की तो छोड़े इस हिन्दी पखवाड़े में भी आप उसी कार्यालय के अधिकारी से लेकर बाबु तक और चपरासी से लेकर  सफाई कर्मचारी तक की भाषा में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आसानी से देख सकते है ।
यदि भाषायी दृष्टि से देखा जाये तो आज भी हिन्दी अपने यौवन के सौन्दर्य से, अपने ताल से तेवर से अन्य भाषाओं को पछाड़ने में सक्षम है आज कवियों के नायक के अधरों पर नायिका के सौन्दर्य के रूप में हिन्दी है । लेखकों की लेखनी में, गाँव के गीतों में, चौपालों में केवल हिन्दी है ,बाजारों में मोहल्लों में केवल हिन्दी है । हम अपने  विचारों और भावों की अभिव्यक्ति  हिन्दी भाषा में जितने प्रभावपूर्ण ढंग से कर सकते है उतना हम अन्य किसी और भाषा में नहीं कर पाते।
हम लोगों द्वारा शोषित हिन्दी आज भी विश्व की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा का तमगा लगा कर हमें अंतराष्ट्रीय स्तर पर गौरवान्वित कर  रही है । आज भी हिन्दी हमारे देश की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली और सुनी जाने वाली भाषा है और में अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान को साथ में मिला लूँ तो ये आंकड़ा और भी विस्तृत, विशाल हो जाता है, हाँ यदि लिखने और पड़ने के आंकड़े देखें तो ये आंकड़े थोड़ा तकलीफ देह हो जाते है और इस तकलीफ का कारण मैकाले द्वारा भारत की शिक्षा पद्धति में लगाई गयी सेंध है ,जिसका परिणाम हम कॉन्वेंट शिक्षा पद्धति पर आधारित विद्यालयों में देख सकते है  परन्तु फिर भी हिन्दी कान और मुख के द्वारा सम्प्रेषण का सुख दे रही है । सच्चाई तो ये है कि जिस चीज़ पर आज हम गर्व कर सकने की स्थिति में है वो केवल हिन्दी है जो सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षों के बाद हम न कर पाएँ, क्यों कि अंग्रेज़ी उससे ज़्यादा मात्रा में फैल रही है।
वर्तमान समय में सरकार द्वारा शिक्षा पद्धति में व्यापक सुधार की महती आवश्यकता आ पड़ी है । क्योंकि केवल एक दिन हिन्दी दिवस मना लेने भर से हम  मातृ भाषा के ऋण से उऋण नहीं ही पाएंगे । यदि जल्द ही हिन्दी भाषा के विकास और प्रचार के क्षेत्र में बड़े निर्णय नहीं लिए गये तो वो दिन दूर नहीं जब हम अपने गौरव से च्युत हो जायेंगे और हम अपनी माँ (राष्ट्र भाषा )को अपने ही सामने दम तोड़ते देखने के लिए मजबूर होंगे।
सर्वाधिकार सुरक्षित

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