“असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो
और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद
चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का
मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किए बिना
ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने
वालों की कभी हार नहीं होती।“
आज का
विद्यार्थी बहुत सहमा और तनाव ग्रस्त है भवितव्यता उसे डराती है वो असमंजस की
स्थिति में है की एक और तो उसके माता पिता की उससे आकांक्षाएं है और दूसरी और उसका
सीमित बुद्धि कौशल इन दोनों के बीच फंसा विद्यार्थी बहुत अकेला और अपने प्रति हीन
भावना से ग्रस्त है ।इन दोनों ही दोषों को दूर करने के लिए विद्यार्थी या तो आत्महत्या कर
रहें है या फिर लक्ष्य प्राप्ति का शॉर्टकट अपना रहें है ।ये बड़े दुख का विषय है।
जीवन स्तर
बढ्ने के साथ-साथ भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है जिसका दुष्प्रभाव तनाव
युक्त जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है। आज के समाज में आत्महत्या
जैसा आत्मघाती कदम अभिशाप बन गया ।आजकल अभिभावक भी स्वयं विद्यार्थियों
पर पढ़ाई और करियर का अनावश्यक दबाव बनाते है। वे ये समझना ही नहीं चाहते की
प्रत्येक विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है और जिसके चलते हर छात्र
कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता। बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को यह शिक्षा दी जानी
चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता
है तो वह पारिवारिक एवं सामाजिक उलाहना के भय से आत्महत्या को सुलभ मान लेता है।
जिसके बाद वे अपने परिवार और समाज पर प्रश्न चिह्न लगा जाते है। विद्यार्थियों
में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है।
आज खुशहाली के
मायने बदल रहे है अभिभावक अपने बच्चे को हर क्षेत्र में अव्वल देखने व सामाजिक
दिखावे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे है। एक प्रतिशत के लिए यह मान लिया जाए
कि वे विद्यार्थी कुंठा ग्रस्त होते है जिन परिवारों में शिक्षा का अभाव होता है
किन्तु वास्तविकता यह है की गरीब विद्यार्थी फिर भी संघर्ष पूर्ण जीवन में मेहनत व
हौसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते है किन्तु अकसर धन वैभव से भरे घरों में
अधिक तनाव का माहौल होता है और एक दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती है। साधन
सम्पन्न होने के बावजूद युवा पीढ़ी में आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे है।
वास्तव में खुदकुशी
कोई मानसिक बीमारी नहीं मानसिक तनाव व दबाव का परिणाम होता
है। असंतोष इसका मुख्य कारण है। कुछ वर्षों से 14 से 17 वर्ष के विद्यार्थी आत्महत्या को अपना रहे है।
परीक्षाओं का दबाव सहपाठियों द्वारा अपमान का भय, अध्यापक-गण
की लताड़ या व्यंग न बर्दाश्त करने की क्षमता उन्हें इस मार्ग की ओर धकेल रही
है। शहरों की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और पाश्चात्य प्रभाव के कारण
विद्यार्थी समय से पहले ही परिपक्व हो रहे है जिसके फलस्वरूप वे
अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते है और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार आशातीत
परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते है। यही नहीं माता पिता की
आकांक्षाओं की पूर्ति का दबाव वे अपनी ज़िंदगी पर न सह पाने की वजह और सही निर्णय न
लेने की स्थिति में उन्हें यह मार्ग सुगम दिखता है।
आज के संदर्भ
में दोष उन अभिभावकों का है जो अपनी विद्यार्थियों की प्रदर्शनी लगाना चाहते है
मानो वह भी आज की उपभोगतावादी संस्कृति के चलते एक वस्तु हो और उन्हें जीवन के हर
क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाया जा सके यही कारण है की आज परिवार अपने
मौलिक स्वरूप से भटक कर एक प्रकार की होड़ में लगे हुए है।
भावनाओं व संवेदनाओं से शून्य होते पारिवारिक रिश्ते कलुषित समाज की रचना कर रहे
है। अभिभावक को समझना होगा की विद्यार्थी मशीन या रोबोर्ट नहीं है। विद्यार्थियों
को बचपन से अच्छे संस्कार दिये जाने चाहिए ताकि वे अपनी मंजिल खुद चुने किन्तु
आत्मविश्वास न खोए। विद्यार्थियों को सहनशील, धैर्यवान, निर्भीक, निर्मल, निश्चल
बनना है तो स्वतःअपने स्वभाव परिवर्तित करे। बाल सुलभ मन में चरित्र का प्रभाव
पड़ता है। शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है ये मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी
पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है। इसके अंतर्गत विद्यार्थियों में पाँचों
मानवीय मूल्यों अर्थात सत्य, प्रेम, धन, अहिंसा और शांति का विकास होता है। आज की
शिक्षा विद्यार्थियों को कुशल विद्वान एवं कुशल डॉक्टर, इंजीनियर या अफसर तो बना देती है परंतु यह वह अच्छा चरित्रवान इंसान बने
यह उसके संस्कारों पर निर्भर करता है। एक पक्षी को ऊंची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त
पंखो की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त
करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता होती
है जो अभिभावक अपने बच्चों को अवश्य दे। सांसारिक शिक्षा उसे जीविका और आध्यात्मिक
शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी।
बच्चों को भी
ध्यान रखना होगा कि ज़िंदगी बहुत कीमती है और वे जिस समाज में रहते है उसके प्रति
उनकी भी नैतिक ज़िम्मेदारी है जिसका निर्वहन करना उनका फर्ज है। वे जिस समाज में
रहते है, उसका सम्मान करे क्योंकि उस समाज ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और सामाजिक
प्राणी होने के नाते आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाए बिना कैसे इस दुनिया से चले जाना चाहते
है? सिर्फ इसलिए कि आप चुनौतियों से घबरा गए है। जीवन
को चुनौती समझकर दृढ़ता से परीक्षा की तैयारी करे और कठिनाई के समय अपने शिक्षक-अभिभावक
को अपना मित्र समझ अपनी परेशानी उन्हें बताए और स्वयं पर हीनता के भाव कदापि न आने
दे। आत्मविश्वासी विद्यार्थी ही ऊँचे जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर पाते है ।
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