आज का भारतीय
युवा पाश्चात्य के पीछे प्रभावित होकर अपने देश के साहित्य और उन महा पुरुषों के
ज्ञान को विस्मृत करता जा रहा है जिन महापुरुषों ने अपने साहित्य के द्वारा देश को
जागृत ही नहीं किया अपितु एक नई दिशा की और अग्रसर भी किया। जिन्होंने अपनी लेखनी
से समाज को ताप दिया था जागृति प्रदान की थी वो श्रेष्ठ साहित्यकार और कवि थे
रविन्द्र नाथ टैगोर जिन्हें हम “गुरुदेव” के नाम से भी जानते है।
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको
ठाकुरबाड़ी में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी थीं। वह
अपने माँ-बाप की तेरह जीवित संतानों में सबसे छोटे थे। जब वे छोटे थे तभी उनकी माँ
का देहांत हो गया और चूँकि उनके पिता अकसर यात्रा पर ही रहते थे इसलिए उनका लालन-पालन
नौकरों-चाकरों द्वारा ही किया गया। रविंद्रनाथ टैगोर एक
विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार और दार्शनिक थे। वे अकेले
ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार
पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे।
वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं – भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार
बाँग्ला’। गुरुदेव के नाम से भी प्रसिद्ध रविंद्रनाथ टैगोर
ने बांग्ला साहित्य और संगीत को एक नई दिशा दी।
रविंद्रनाथ
टैगोर ने भारतीय सभ्यता की अच्छाइयों को पश्चिम में और वहां की अच्छाइयों को यहाँ
पर लाने में प्रभावशाली भूमिका निभाई। उनकी प्रतिभा का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा
सकता है की जब वे मात्र 8 साल के थे तब उन्होंने अपनी पहली
कविता लिखी थी। 16 साल की उम्र में ‘भानुसिम्हा’ उपनाम से उनकी कविताएं प्रकाशित भी
हो गयीं। जलियावाला बाग़ कांड के बाद उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दिए गए नाइटहुड का
त्याग कर दिया।
अपने उपनयन
संस्कार के बाद रविंद्रनाथ अपने पिता के साथ कई महीनों के भारत भ्रमण पर निकल गए। उनके
पिता
देबेन्द्रनाथ
उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे पर कुछ समय बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और शेक्सपियर
और कुछ दूसरे साहित्यकारों की रचनाओं का स्व-अध्ययन किया। सन 1880 में बिना लॉ की डिग्री के वह बंगाल वापस लौट आये। वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवी से हुआ।
वर्ष 1901 में रविंद्रनाथ शान्तिनिकेतन चले गए। वह यहाँ एक आश्रम स्थापित करना चाहते
थे। यहाँ पर उन्होंने एक स्कूल, पुस्तकालय और पूजा स्थल
का निर्माण किया। उन्होंने यहाँ पर बहुत सारे पेड़ लगाये और एक सुन्दर बगीचा भी
बनाया। यहीं पर उनकी पत्नी और दो बच्चों की मौत भी हुई। उनके पिता भी सन 1905 में चल बसे। इस समय तक उनको अपनी विरासत से मिली संपत्ति से मासिक आमदनी
भी होने लगी थी। कुछ आमदनी उनके साहित्य की रायल्टी से भी होने लगी थी।
14 नवम्बर 1913 को रविंद्रनाथ टैगोर को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार
देने वाली संस्था स्वीडिश अकैडमी ने उनके कुछ कार्यों के अनुवाद और ‘गीतांजलि’ के आधार पर उन्हें ये पुरस्कार देने
का निर्णय लिया था।
अपने जीवन के
अंतिम दशक में टैगोर सामाजिक तौर पर बहुत सक्रिय रहे। इस दौरान उन्होंने लगभग 15 गद्य और पद्य कोष लिखे। उन्होंने इस दौरान लिखे गए साहित्य के माध्यम से
मानव जीवन के कई पहलुओं को छूआ। इस दौरान उन्होंने विज्ञान से सम्बंधित लेख भी
लिखे।
उन्होंने अपने
जीवन के अंतिम 4 साल पीड़ा और बीमारी में बिताये। वर्ष 1937 के अंत में वो अचेत हो गए और बहुत समय तक इसी अवस्था में रहे। लगभग तीन साल
बाद एक बार फिर ऐसा ही हुआ। इस दौरान वह जब कभी भी ठीक होते तो कविताएं लिखते। इस
दौरान लिखी गयीं कविताएं उनकी बेहतरीन कविताओं में से एक हैं। लम्बी बीमारी के बाद 7 अगस्त 1941 को उन्होंने इस दुनिया को
अलविदा कह दिया।
आज भी उनका
व्यक्तित्व समूचे राष्ट्र के लिए आदर्श है ।आज उनके जन्म दिवस पर समूचा साहित्यिक
समाज ही नही अपितु सम्पूर्ण राष्ट्र उन्हें नमन करता है ।
सर्वाधिकार सुरक्षित
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