कबीरा मन निर्मल भया जैसे
गंगा नीर
पीछे-पीछे हरि फ़िरे कहत कबीर
कबीर||
’उधौ मोहि बृज बिसरत नाही’
प्रेम क्या है ?
जीवन का इससे बड़ा गूढ़ सम्बन्ध क्यों है? किस शक्ति के अंतर्गत मनुष्य जाने अनजाने ही इसे
तलाश करता है। वह सदा प्रेम की एक गुदगुदी की प्रतीक्षा करता है व मिल जाने पर कभी
न बिछुड़ने की आशंका की व्याकुलता सी अनुभव आती है। प्रेम एक मीठा सा दर्द है जो
जीवन का सुरीला तार है, दुखियों
की आशा और वियोगियों का आकर्षण तथा थकावट की मदिरा, व्यथितों की दवा है जो हृदय
में कोमलता भर कर आत्मा को आनंद की अनुभूति करा देता है। ऐसा आनंद जिसे शब्दों में
बाँधा नहीं जा सकता | जीवन में सभी प्राणी किसी न किसी को प्रेम करते ही हैं और उस
प्रेम को अपनी-अपनी कसौटी में कसते हैं। बगैर प्रेम के कोई जीवित नहीं रह सकता, किसी को भी प्यार करना ही पड़ेगा, नीरस जीवन नहीं काटा जा सकता है। यहाँ उस प्रेम का
वर्णन है जिसे हमारे कवि प्रेम-दर्द कह कर अमर करते हुए हमारे हृदय पट खोल गये
हैं। प्रेम तो सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है| लेकिन प्रेम की विशेषता है की इसमें एक
प्रकार का नशा, दर्द और जिद है इस दर्द से पीड़ित मीरा इसीलिए ही तो कहती थी......
‘हेरी मे तो प्रेम दीवानी मेरो दर्द न जाने कोय|’
कितना ऊँचा प्रेम रहा होगा मीराबाई का जिन्होंने
अपने प्रेमी (कृष्ण) को कभी देखा नहीं था केवल दूसरों से सुना था और ऐसे प्रेमी के
प्रेम में वो डूबती चली गयी | इसी प्रकार ऊधो जब योग का संदेशा लेकर विरहणी
गोपियों को समझाने जाते हैं तो गोपी कहती हैं.....
“श्याम तन श्याम मन, श्याम ही हमारो धन,
आठों याम ऊधो हमें श्याम ही से काम
है।
श्याम हिये, श्याम जिये,श्याम बिन नाहीं तिये,
अन्धे को सी लाकड़ी आधार श्याम नाम
है॥
श्याम गति श्याम मति श्याम ही हैं
प्राणपति,
श्याम सुखदाई सो भलाई शोभा धाम है।
यदि प्रेम के सच्चे अर्थों को जानने वाली प्रेम की
इतनी दिव्य विभूतियाँ पैदा न हुई होतीं तो आज प्रेम की कीमत शायद कुछ भी न होती, जब हृदय प्रेम से विभोर हो उठता है तब उसे कुछ नहीं
सूझता,तभी तो कहते हैं कि प्रेम अन्धा है। सच्चा और
निर्विकारी प्रेम कुछ पाना नहीं चाहता बल्कि अपना सर्वस्व अपने प्रेमी को अर्पित
कर देना चाहता है लेकिन लगातार बदलते परिवेश में प्रेम का अर्थ बहुत भटक गया है
इसे अश्लीलता की चादर ओढ़ाकर केवल प्रदर्शन का माध्यम बना दिया गया है |
सर्वाधिकार सुरक्षित
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