तो
ये क्या है ?
ये है उस व्यक्ति की औरा (शरीर के आस-पास बनी हुई अदृश्य आभा) वो
औरा जो उसके विचारों के परिणामस्वरूप उसके
इर्द-गिर्द बन जाती है फिर उस व्यक्ति को कुछ नहीं करना पड़ता बल्कि उसके सम्पर्क
में आने वाले व्यक्ति अपने आप उस से प्रभावित हो रहे होते है । इसके विपरीत अशांत
और दुखी व्यक्ति की औरा कमजोर होती है और उसके सम्पर्क में आने वाले को भी
नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है ।
एक
कहानी मुझे याद आती है ये कहानी कितनी सच है कितनी काल्पनिक पता नहीं लेकिन इसमें
सीखने जैसा बहुत है कहानी कुछ ऐसी है की एक व्यक्ति यात्रा करता हुआ एक जंगल से
गुजर रहा था थकान के कारण वो एक पेड़ के नीचे जाकर आराम करने लगा अचानक उस शीतल
वृक्ष की छाँव में उसे आराम मिला और वो सोचने लगा की इस वृक्ष की छाँव कितनी शीतल
है अगर सोने के लिए एक आरामदेह शय्या (पलंग) मिल जाता तो कितना आनन्द होता उसमें इतना सोचा ही था की उसकी सोच के अनुसार ही एक सुंदर सी शय्या
(पलंग )उसके सामने प्रकट हो गया आदमी उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उस पर लेट गया
थोड़ी देर में उसे भूख लगी उसने सोचा की यदि कहीं से स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था हो
जाती तो भूख भी शांत हो जाती और अच्छी नींद भी आ जाती ।उसने ये सोचा ही था की इतने
में स्वादिष्ट पकवानों से भरा एक स्वर्ण थाल उसके सामने प्रकट हो गया उस व्यक्ति
ने भर पेट भोजन किया अब तो उस व्यक्ति के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा उसे डर लगने
लगा की वो जैसा सोच रहा है वैसा ही होता जा रहा है ये क्या जादू है उसके मन में
अनेकानेक विचार आने लगे की कहीं ये किसी भूत की माया तो नहीं है कहीं वो भूत उसे
खा न जायेगा। उसने ये सोचा ही था की इतने में एक विशाल दैत्य वहां प्रकट हुआ और उस
व्यक्ति को खा गया ।
कहानी
कार आगे कहता है की ऐसा उस व्यक्ति के साथ इसलिए हो रहा था क्योंकि वह व्यक्ति
कल्पवृक्ष (मन चाहा वरदान देने वाला वृक्ष) के नीचे बैठा हुआ था। वो जो सोचता उसे
वो वस्तु प्राप्त होती जाती थी। लेकिन जब उसकी भावनाएं उसकी सोच बिगड़ी तो वो उसकी
मृत्यु का कारण बन गयी । मस्तिष्क और मस्तिष्क में उठने वाले विचार ही हमारे
निर्माण और ध्वंस का कारण होते है। रेलगाड़ी में जो महत्व इंजन का है, वही
महत्व मानव-शरीर में मस्तिष्क का है। जिस प्रकार से रेलगाड़ी एक निश्चित गति से सही
दिशा की और बड़े तो यात्री को उसके निर्धारित गंतव्य तक पहुंचा देती है ।उसी प्रकार
यदि मानव का मस्तिष्क और विचार रूपी इंजन सही दिशा की और गति करे तो मानव को जीवन
लक्ष्य की प्राप्ति करा देता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है सही दिशा और सही गति
एवं मार्ग ।
आज
की परिस्थितियाँ ये हो गयी है की मानव मन में असीमित लोभ,द्वेष
और ईर्ष्या बस गयी है । जिसने उसकी सोच पर नकारात्मक प्रभाव डाला है व्यक्ति में
स्वार्थ और लोलुपता इतनी है की वो अपने लाभ के लिए किसी को भी किसी भी प्रकार की
हानि पहुंचाने से नहीं हिचकिचाता । अतः आवश्यक है कि में अपने मस्तिष्क को प्रतिकूल
परिस्थितियों से संघर्ष करने योग्य बनाएं एवं उसे उच्च प्रयोजनों में लगायें । तभी
एक सुंदर स्वस्थ समाज की कल्पना कर पाना संभव होगा ।
सर्वाधिकार सुरक्षित
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