18 Dec 2016

परिवार का वृद्ध वृक्ष और नयी कोपलें (युवा विशेष )


जब हम किसी पुराने पीपल या बरगद के वृक्ष को देखते है तो हमारा हृदय एक प्रकार की श्रद्धा से भर जाता है पुराने वृक्ष ज्यादातर पूजा पाठ के लिए देव स्वरूप माने जाते है इसी प्रकार हमारे घर के वृद्ध वृक्ष हमारे बुजुर्ग भी देव स्वरूप है । जिनकी शीतल छाँव में हम अपने सब दुखों और समस्याओं को भूल कर शांति का अनुभव कर सकते है। क्या आज का युवा भी ऐसा ही सोचता है ? ये जानना आवश्यक है क्योंकि आज के युवा की सोच और गति बहुत ही अलग है, युवा नई कोपलों की तरह संवेदनशील है जिस पर आस पास के परिवेश का बहुत जल्दी प्रभाव पड़ता है क्योंकि आज का युवा अपने बचपन से ही दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित है । उसे बचपन से ही कलर टी॰वी॰,मोबाइल ,कारस्कूटर,कंप्यूटरफ्रिज जैसी सुविधाओं को देखा हैजाना है। जिसकी कल्पना भी आज का बुजुर्ग अपने बचपन में नहीं कर सकता था । जो कुछ सुविधाएँ उस समय थी भी तो उन्हें मात्र एक प्रतिशत धनवान लोग ही जुटा पाते थे। आज इन सभी आधुनिक सुविधाओं को जुटाना प्रत्येक युवा के लिए गरिमा का प्रश्न बन चुका है। प्रत्येक युवा का स्वप्न होता है कीवह अपने जीवन में सभी सुख सुविधाओं से सुसज्जित शानदार भवन का मालिक हो। प्रत्येक युवा की इस महत्वाकांक्षा के कारण ही प्रत्येक क्षेत्र में गला काट प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हुई है। अब वह चाहे शिक्षा पाने के लिए स्कूल या कालेज में प्रवेश का प्रश्न हो या नौकरी पाने के लिए मारामारी हो। रोजगार पाने के लिए व्यापार ,व्यवसाय की प्रतिस्पर्धा हो या अपने रोजगार को उच्चतम शिखर पर ले जाने की होड़ हो या फिर अपनी नौकरी में उन्नति पाने के अवसरों की चुनौती हो ।प्रत्येक युवा की आकांक्षा उसकी शैक्षिक योग्यता एवं रोजगार में सफलता पर निर्भर करती है यह संभव नहीं है की प्रत्येक युवा सफलता के शीर्ष को प्राप्त कर सके परन्तु यदि युवा ने अपने विद्यार्थी जीवन में भले ही मध्यम स्तर तक सफलता पाई हो परन्तु चरित्र को विचलित होने से बचा लिया हैतो अवश्य ही दुनिया की अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है,चाहे वे उच्चतम गुणवत्ता वाली न हों और वह एक सम्मान पूर्वक जीवन जी पाता है। सफलता,असफलता प्राप्त करने में ,या चरित्र का निर्माण करने में अभिभावक और माता पिता के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता । यदि सफलता का श्रेय माता पिता को मिलता है तो उसके चारित्रिक पतन या उसके व्यक्तित्व विकास के अवरुद्ध होने के लिए भी माता पिता की लापरवाही , उचित मार्गदर्शन दे पाने की क्षमता का अभाव जिम्मेदार होती है। जबकि युवा वर्ग कुछ भिन्न प्रकार से अपनी सोच रखता है। वह सफलता का श्रेय सिर्फ अपनी मेहनत और लगन को देता है और असफलता के लिए बुज़ुर्गों को दोषी ठहराता है। आज के युवा के लिए बुजुर्ग व्यक्ति घर में विद्यमान मूर्ती की भांति होता हैजिसे सिर्फ दो वक्त की रोटी,कपड़ा और दवा दारू की आवश्यकता होती है। उसके नजरिये के अनुसार बुजुर्ग लोग अपना जीवन जी चुके हैं। उनकी इच्छाएंभावनाएंआवश्यकताएं सीमित हो गयी हैं। उन्हें सिर्फ मौत की प्रतीक्षा है। अब हमारी जीने की बारी है। जबकि वर्तमान का बुजुर्ग एक अर्ध शतक वर्ष पहले के मुकाबले अधिक शिक्षित है।,स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है,और मानसिक स्तर भी अधिक अनुभव के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा है।(अधिक पढ़े लिखे व्यक्ति का अनुभव भी अधिक समृद्ध होता है) अतः वह अपने जीवन के अंतिम प्रहार को प्रतिष्ठा से जीने की लालसा रखता है,वह वृद्धावस्था को अपने जीवन की दूसरी पारी के रूप में देखता हैजिसमें उस पर कोई जिम्मेदारियों का बोझ नहीं होता। और अपने शौक पूरे करने के अवसर के रूप में देखना चाहता है।  वह निष्क्रिय न बैठ कर अपनी मन पसंद के कार्य को करने की इच्छा रखता है,चाहे उससे आमदनी हो या न हो। यद्यपि हमारे देश में रोजगार की समस्या होने के कारण युवाओं के लिए रोजगार का अभाव बना रहता है,एक बुजुर्ग के लिए रोजगार के अवसर तो न के बराबर ही रहते हैं और अधिकतर बुजुर्ग समाज के लिए बोझ बन जाते हैं। उनके ज्ञान और अनुभव का लाभ देश को नहीं मिल पाता। कभी-कभी उनकी इच्छाएं,आकांक्षाएंअवसाद का रूप भी ले लेती हैं क्योंकि पराधीन हो कर रहना या निष्क्रिय बन कर जीना उनके लिए परेशानी का कारण बनता है। आज का युवा अपने बुजुर्ग के तानाशाही व्यक्तित्व के आगे झुक नहीं सकता सिर्फ बुजुर्ग होने के कारण उसकी तार्किक बातों को स्वीकार कर लेना उसके लिए असहनीय होता है परन्तु यह बात बुजुर्गों के लिए कष्ट साध्य होती है क्योंकि उन्होंने अपने बुजुर्गों को शर्तों के आधार पर सम्मान नहीं दिया था,और न ही उनकी बातों को तर्क की कसौटी पर तौलने का प्रयास किया था। उनके द्वारा बताई गयी परम्पराओं को निभाने में कभी आनाकानी नहीं की थी। उन्हें आज की पीढ़ी का व्यवहार उद्दंडता प्रतीत होता है। समाज में आ रहे बदलाव उन्हें विचलित करते हैं। क्या सोचता है आपका पुत्रक्या चाहता है आपका पुत्रवह और उसका परिवार आपसे क्या अपेक्षाएं रखता है?इन सभी बातों पर प्रत्येक बुजुर्ग को ध्यान देना आवश्यक है। आज के भौतिकतावादी युग में यह संभव नहीं है की अपने पुत्र को आप उसके कर्तव्यों की लिस्ट थमाते रहें और आप निष्क्रिय होकर उसका लाभ उठाते रहें। आपका पुत्र भी चाहता है आप उसे घरेलू वस्तुओं की खरीदारी में यथा संभव मदद करें,उसके बच्चों को प्यार दुलार देंउनके साथ खेल कर उनका मनोरंजन भी करें,बच्चों को स्कूल से लाने और ले जाने में सहायक सिद्ध हों,बच्चों के दुःख तकलीफ में आवश्यक भागीदार बनेबुजुर्ग महिलाएं गृह कार्यों और रसोई के कार्यों में यथा संभव हाथ बंटाएं,बच्चों को पढाने में योग्यतानुसार सहायता करें,परिवार पर विपत्ति के समय उचित सलाह मशवरा देकर लौह स्तंभ की भांति साबित हों। बच्चों अर्थात युवा संतान द्वारा उपरोक्त अपेक्षाएं करना कुछ गलत भी नहीं हैउनकी अपेक्षाओं पर खरा साबित होने पर परिवार में बुजुर्ग का सम्मान बढ़ जाता हैपरिवार में उसकी उपस्थिति उपयोगी लगती है साथ ही बुजुर्ग को इस प्रकार के कार्य करके उसे खाली समय की पीड़ा से मुक्ति मिलती है,उसे आत्मसंतोष मिलता हैवह आत्मसम्मान से ओत-प्रोत रहता है। उसे स्वयं को परिवार पर बोझ होने का बोध नहीं होता।
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मानवीय तपस्या का साकार रूप “नारी”


नारी कामधेनु हैअन्नपूर्णा हैसिद्धि हैरिद्धि है और वह सब कुछ है जो परिवार के समस्त अभावोंकष्टों एवं संकटों को निवारण करने में समर्थ है। यदि उसे श्रद्धासिक्त सद्भावना,स्नेह ,सम्मान दिया जाए तो वह घर को स्वर्गीय वातावरण से ओत-प्रोत कर सकती है। माँ के रूप में उसका वात्सल्य पाकर हमें बोध हुआ है कि नारी सनातन शक्ति है जिसके आँचल से सतत स्नेहसिक्त अमृत रिसता रहता है जिसका पान कर शिशु मानसिक और शारीरिक पोषण प्राप्त कर समाज में श्रेष्ठ और महान व्यक्ति के रूप में अपना स्थान बनाता है ।मुझे याद  आती है इस भारत भूमि पर मानवीय देह में जन्मी वो महान माताएं जो धरती पर ईश्वर के अवतार का माध्यम बनी ,धरती पर जब –जब भी ईश्वर का प्रकटीकरण  हुआ तो ईश्वर को भी नारी पर ही आश्रित होना पड़ा है रामचरित मानस में तुलसी बाबा लिखते है की जब कौशल्या के भवन में चतुर्भुजी नारायण बालक  के रूप में प्रकट होना चाह रहे थे तो माता कौशल्या  उनसे कहती है की हे । ईश्वर यदि मेरे गर्भ से जन्म लेना चाहते हो तो सबसे पहले अपने अतिरिक्त दो हाथ लुप्त करो अपने वैभव को समेटो ,छोटे शिशु का रूप धारण करो और फिर रोना शुरू करो ईश्वर को अपनी इच्छानुसार आकार देने की जो क्षमता भारतीय नारी में मिलती है वो विश्व के किसी भी इतिहास में कहीं नहीं मिलती। कृष्ण जब मिट्टी खाते है तो माँ यशोदा उन्हें ओखल से बाँध देती है ना केवल बाँध देती है बल्कि उन्हें धमकाती है और डांटती भी है  ईश्वर को भी अपनी आज्ञा में चलाने का सामर्थ्य केवल भारत वर्ष की नारी में ही मिलता है ,फिर भी समाज में आज भी वो उपेक्षित है।
जहां तक विकास और पुरुष के समकक्ष होने बात कही जाती है ये केवल स्त्री समाज का एक बहूत छोटा हिस्सा है जो की बहुत संघर्ष और त्याग के बाद विकास कर पाया है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी नारी शोषित , उपेक्षित है  कई सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों का बोझ उठाये स्त्री सतत अपने कर्तव्यों का पालन करने में लगी हुई दिखाई देती है 
यदि आपको एक जीवित मशीन देखना हो तो आप विशेषकर सुबह के समय परिवार की महिला को देखिये पति के कपड़ोंबच्चों के नाश्तेउनके स्कूल बैग , बड़ों की दवाई आदि कार्यों में व्यस्त महिला साक्षात् मशीन दिखाई देती है ।जो केवल स्नेह वश बिना किसी स्वार्थ के तत्परता से सबकी सेवा में लगी रहती है , उसे केवल पति की मुस्कानबच्चों के द्वारा  सम्मान और बड़ों के आशीर्वाद की इच्छा गतिशील बनाये रखती है ,फिर भी पुरुष प्रधान समाज नारी के उस समर्पण को समझ नहीं पता दुर्भाग्य ऐसा की मंदिर में जाकर पत्थर की देवी प्रतिमा को श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे लेकिन घर में जो जीवंत देवी है जिसने परिवार की बागडोर सम्भाल रखी है उसकी उपेक्षा करेंगे यहाँ तक की कोई गलती हो जाने पर उसे खरी खोटी सुनाने से भी नहीं चुकेंगे  विडम्बना ऐसी है की जिस देवी की प्रतिमा को मंदिर ने सुंदर वस्त्रों से ढंककर उसका सुंदर श्रंगार कर अपने श्रद्धा और सम्मान को समर्पित करते है वहीं दूसरी और जीवंत नारी का शील भंग  कर उसे समाज में तिरस्कृत जीवन जीने के लिए छोड़ देते है  नारी कब तक इस पुरुष प्रधान समाज के इन घृणित कार्यों को सहन करती रहेगी ?
 नारी आदिकाल से उन सामाजिक दायित्वों को अपने कन्धों पर उठाए आ रही हैजिन्हें केवल पुरुष के कन्धों पर डाल दिया गया होता , तो वह न जाने कब का लड़खड़ा गया होताकिन्तु स्त्री आज भी उतनी ही कर्तव्यनिष्ठाउतने ही मनोयोगसंतोष और उतनी ही प्रसन्नता के साथ उसे आज भी ढोए चल रही है। इसलिए उसे मानवीय तपस्या की साकार प्रतिमा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा है।
भौतिक जीवन की लालसाओं के प्रवाह को उसी की पवित्रता ने रोका और सीमाबद्ध करके उन्हें प्यार की दिशा दी। प्रेम नारी का जीवन है। अपनी इस निधि को वह अतीत काल से मानव पर न्यौछावर करती आयी है। कभी न रुकने वाले इस अमृत निर्झर ने संसार को शान्ति और शीतलता दी है। ऐसी देव स्वरूप नारी के आत्म सम्मान की रक्षा करना और उसे स्नेह और सम्मान देना हमारा कर्तव्य होना चाहिए 
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14 Dec 2016

श्रेष्ट विद्यार्थी और गौरवशाली राष्ट्र


विद्यार्थी जीवन मनुष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है  इस समय में बने संस्कारसीखी हुई कलाएँ हमारा भविष्य निर्धारित करती हैं  इसलिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि मनुष्य अपने विद्यार्थी जीवन से ही देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझे  इससे वह अपने जीवन को इस प्रकार ढाल सकेगा कि राष्ट्र के प्रति उसके जो कर्तव्य है वो उन्हें पूरा करने के लिए सक्षम बने 
एक विद्यार्थी के रूप में मनुष्य का देश के प्रति पहला कर्तव्य यह होता है कि वह अपनी शिक्षा उचित रूप से पूर्ण करे  शिक्षा मनुष्य की योग्यता बढ़ाती है  उसे सामर्थ्यवान बनाती हैउसके विवेक का विकास करती है  कर्तव्यों का ज्ञान दिलाती है  एक उचित शिक्षा पाया हुआ व्यक्ति अपने परिवारसमाज तथा देश की सही तरीके से सेवा कर सकता है  इसलिए शिक्षा प्राप्त करना किसी भी विद्यार्थी का पहला कर्तव्य है ।उचित शिक्षा के अलावा विद्यार्थी का दूसरा कर्तव्य है कि वह अपने स्वास्थ्य पर सही ध्यान दे  कहा जाता है स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है  एक शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही देश की सही तरीके से सेवा कर सकता है 
शिक्षा तथा स्वास्थ्य के बाद देश के प्रति विद्यार्थी का जो दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है देश के शक्ति-बोध तथा सौंदर्य-बोध को बढ़ाना  विद्यार्थी जहाँ भी जाएउन्हें हमारे देश के गौरवशाली अतीत का पूरा स्मरण होना चाहिए  एक विद्यार्थी को किसी भी परिस्थिति में अपने देश की बुराई नहीं करनी चाहिए , देश की कमियाँ नहीं निकालनी चाहिए  उसे हमेशा देश के सामर्थ्यदेश की असीम क्षमता का गुणगान करना चाहिए  विद्यार्थी कहाँ भी जाएदेश के लिए सकारात्मक माहौल का निर्माण करे  इससे देश का शक्ति-बोध बढ़ता है  इसके अलावा विद्यार्थी को देश का सौन्दर्य-बोध बड़ाने में भी योगदान देना चाहिए  उसे कहीं भी गंदगी नहीं फैलानी चाहिए व दूसरों को भी गंदगी फैलाने से रोकना चाहिए  अपने व्यवहार से वो देश में स्वच्छता के प्रति जागरूकता ला सकता है  एक विद्यार्थी को अपने व्यवहार में सज्जनता रखनी चाहिए  उसे यहाँ कि बातें वहाँ नहीं करनी चाहिए  खुद में किया हुआ यह परिवर्तन देश के सौन्दर्य-बोध को दृढ़ करता है 
इस तरह खुद के व्यवहार में परिवर्तन कर विद्यार्थी देश में कई सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं  विद्यार्थियों को अपने सामाजिक परिवेश तथा देश के सामने जो महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं , उनके बारे में भी जानकारी रखनी चाहिए  विद्यार्थी देश में साक्षरता के प्रसारअंधविश्वास के निर्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं  उन्हें अपने दिनचर्या का एक निश्चित समय देश व समाज की सेवा के लिए निर्धारित करना चाहिए  वो अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं कि किसी विशिष्ट सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए वह नियमित प्रयास करेंगे  उनका प्रयास भले छोटा हो पर एक लम्बे समय में वह अवश्य देश व समाज को लाभान्वित करेगा  इस प्रकार उचित शिक्षा प्राप्त करनास्वयं को स्वस्थ रखनासामाजिक बुराइयों को दूर करना , देश में सकारात्मक माहौल निर्माण करना व देश के सौन्दर्य-बोध को बढ़ाना विद्यार्थी का मुख्य कर्तव्य है 

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विद्यार्थी को पतन की ओर ले जाती माता पिता की महत्वाकांक्षा....


असफलता एक चुनौती हैइसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गईदेखो और सुधार करो।
जब तक न सफल होनींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किए बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
आज का विद्यार्थी बहुत सहमा और तनाव ग्रस्त है भवितव्यता उसे डराती है वो असमंजस की स्थिति में है की एक और तो उसके माता पिता की उससे आकांक्षाएं है और दूसरी और उसका सीमित बुद्धि कौशल इन दोनों के बीच फंसा विद्यार्थी बहुत अकेला और अपने प्रति हीन भावना से ग्रस्त है ।इन दोनों ही दोषों को दूर करने के लिए विद्यार्थी या तो आत्महत्या कर रहें है या फिर लक्ष्य प्राप्ति का शॉर्टकट अपना रहें है ।ये बड़े दुख का विषय है।
जीवन स्तर बढ्ने के साथ-साथ भौतिक प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है जिसका दुष्प्रभाव तनाव युक्त जीवनशैली से आत्महत्या का बढ़ता चलन देखने में आ रहा है। आज के समाज में आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम अभिशाप बन गया ।आजकल अभिभावक भी स्वयं विद्यार्थियों पर पढ़ाई और करियर का अनावश्यक दबाव बनाते है। वे ये समझना ही नहीं चाहते की प्रत्येक विद्यार्थी की बौद्धिक क्षमता भिन्न होती है और जिसके चलते हर छात्र कक्षा में प्रथम नहीं आ सकता। बाल्यकाल से ही विद्यार्थियों को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि असफलता ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है। यदि बच्चा किसी वजह से असफल होता है तो वह पारिवारिक एवं सामाजिक उलाहना के भय से आत्महत्या को सुलभ मान लेता है। जिसके बाद वे अपने परिवार और समाज पर प्रश्न चिह्न लगा जाते है। विद्यार्थियों  में आत्मविश्वास की कमी भी एक बहुत बड़ा कारक है।
आज खुशहाली के मायने बदल रहे है अभिभावक अपने बच्चे को हर क्षेत्र में अव्वल देखने व सामाजिक दिखावे के चलते उन्हें मार्ग से भटका रहे है। एक प्रतिशत के लिए यह मान लिया जाए कि वे विद्यार्थी कुंठा ग्रस्त होते है जिन परिवारों में शिक्षा का अभाव होता है किन्तु वास्तविकता यह है की गरीब विद्यार्थी फिर भी संघर्ष पूर्ण जीवन में मेहनत व हौसले के बलबूते अपनी मंजिल पा ही लेते है किन्तु अकसर धन वैभव से भरे घरों में अधिक तनाव का माहौल होता है और एक दूसरे से अधिक अपेक्षाएं रखी जाती है।  साधन सम्पन्न होने के बावजूद युवा पीढ़ी में आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे है।
वास्तव में खुदकुशी कोई मानसिक बीमारी नहीं मानसिक तनाव व दबाव का परिणाम  होता है। असंतोष इसका मुख्य कारण है। कुछ वर्षों से 14 से 17 वर्ष के विद्यार्थी  आत्महत्या को अपना रहे है। परीक्षाओं का दबाव सहपाठियों द्वारा अपमान का भयअध्यापक-गण की लताड़ या व्यंग न बर्दाश्त करने की क्षमता उन्हें इस मार्ग की ओर धकेल रही  है। शहरों की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और पाश्चात्य प्रभाव के कारण  विद्यार्थी समय से पहले ही परिपक्व हो रहे है जिसके फलस्वरूप वे अपने निर्णय स्वयं लेना चाहते है और अपने द्वारा लिए गए निर्णयों के अनुसार आशातीत परिणाम प्राप्त न होने पर आत्महत्या का निर्णय ले लेते है। यही नहीं माता पिता की आकांक्षाओं की पूर्ति का दबाव वे अपनी ज़िंदगी पर न सह पाने की वजह और सही निर्णय न लेने की स्थिति में उन्हें यह मार्ग सुगम दिखता है।
आज के संदर्भ में दोष उन अभिभावकों का है जो अपनी विद्यार्थियों की प्रदर्शनी लगाना चाहते है मानो वह भी आज की उपभोगतावादी संस्कृति के चलते एक वस्तु हो और उन्हें जीवन के हर क्षेत्र के लिए अधिक से अधिक मूल्यवान बनाया जा सके यही कारण है की आज परिवार अपने मौलिक स्वरूप से भटक कर एक प्रकार की होड़ में लगे हुए  है। भावनाओं व संवेदनाओं से शून्य होते पारिवारिक रिश्ते कलुषित समाज की रचना कर रहे है। अभिभावक को समझना होगा की विद्यार्थी मशीन या रोबोर्ट नहीं है। विद्यार्थियों को बचपन से अच्छे संस्कार दिये जाने चाहिए ताकि वे अपनी मंजिल खुद चुने किन्तु आत्मविश्वास न खोए। विद्यार्थियों को सहनशीलधैर्यवाननिर्भीकनिर्मलनिश्चल बनना है तो स्वतःअपने स्वभाव परिवर्तित करे। बाल सुलभ मन में चरित्र का प्रभाव पड़ता है। शिक्षा का अंतिम लक्ष्य सुंदर चरित्र है ये मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का पूर्ण और संतुलित विकास करता है। इसके अंतर्गत विद्यार्थियों में पाँचों मानवीय मूल्यों अर्थात सत्यप्रेमधनअहिंसा और शांति का विकास होता है। आज की शिक्षा विद्यार्थियों को कुशल विद्वान एवं कुशल डॉक्टरइंजीनियर या अफसर तो बना देती है परंतु यह वह अच्छा चरित्रवान इंसान बने यह उसके संस्कारों पर निर्भर करता है। एक पक्षी को ऊंची उड़ान भरने के लिए दो सशक्त पंखो की आवश्यकता होती है उसी प्रकार मनुष्य को भी जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता  होती है जो अभिभावक अपने बच्चों को अवश्य दे। सांसारिक शिक्षा उसे जीविका और आध्यात्मिक शिक्षा उसके जीवन को मूल्यवान बनाएगी।
बच्चों को भी ध्यान रखना होगा कि ज़िंदगी बहुत कीमती है और वे जिस समाज में रहते है उसके प्रति उनकी भी नैतिक ज़िम्मेदारी है जिसका निर्वहन करना उनका फर्ज है। वे जिस समाज में रहते हैउसका सम्मान करे क्योंकि उस समाज ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और सामाजिक प्राणी होने के नाते आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाए बिना कैसे इस दुनिया से चले जाना चाहते हैसिर्फ इसलिए कि आप चुनौतियों से घबरा गए है। जीवन को चुनौती समझकर दृढ़ता से परीक्षा की तैयारी करे और कठिनाई के समय अपने शिक्षक-अभिभावक को अपना मित्र समझ अपनी परेशानी उन्हें बताए और स्वयं पर हीनता के भाव कदापि न आने दे। आत्मविश्वासी विद्यार्थी ही ऊँचे जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर पाते है 
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पतंगे

  ‘ ज़िंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगे , बारिशों में पतंगे उड़ाया करो। ’ ये शेर आज की परिस्थितियों में बिलकुल माकूल बैठता है ये ज़िंदगी हमें ख...